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Written By BBC Hindi
Last Updated : शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020 (08:52 IST)

कोरोना वायरस: आख़िर मरीज़ों के पेट के बल लेटने के मायने क्या हैं?

कोरोना वायरस: आख़िर मरीज़ों के पेट के बल लेटने के मायने क्या हैं? - therapy for Corona
फर्नांडा पॉलबीबीसी न्यूज़ मुंडो
कोविड-19 संक्रमित मरीज़ों के इलाज में दुनिया भर में प्रोनिंग तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसमें मरीज़ों को पेट के बल लेटाया जा रहा है।

दुनिया भर में कोविड-19 संक्रमण के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। इसके चलते अलग-अलग हिस्सों से अस्पतालों की तस्वीरें भी सामने आ रही हैं। इन तस्वीरों में इंटेंसिव केयर यूनिट में अत्याधुनिक वेंटिलेटरों पर लेटे हुए मरीज़ दिखाई देते हैं।

वेंटिलेटरों से उन्हें सांस लेने में मदद मिलती हैं लेकिन इन तस्वीरों की एक ख़ास बात पर नज़रें टिक रही हैं। बहुत सारे मरीज़ पेट के बल, आगे की ओर लेटे हुए हैं?
 
दरअसल, यह एक बेहद पुरानी तकनीक है जिसे प्रोनिंग कहते हैं, इससे सांस लेने में समस्या होने वाले मरीज़ों को फ़ायदा होते हुए देखा गया है। इस मुद्रा में लेटने से फेफेड़ों तक ज़्यादा ऑक्सिजन पहुंचती है। लेकिन इस तकनीक के अपने ख़तरे भी हैं।
 
ज्यादा ऑक्सिजन का मिलना
मरीज़ों को प्रोन पोजिशन में कई घंटों तक लिटाया जाता है ताकि उनके फेफड़ों में जमा तरल पदार्थ मूव कर सके। इससे मरीज़ों को सांस लेने में आसानी होती है। इंटेंसिव केयर यूनिट में कोविड-19 के मरीज़ों के साथ इस तकनीक का इस्तेमाल काफ़ी बढ़ा है।
 
जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और फेफड़ों तथा क्रिटिकल केयर के मेडिसिन एक्सपर्ट पानागिस गालियातस्तोस ने कहा, "अधिकांश कोविड-19 मरीज़ के फेफड़ों तक पर्याप्त आक्सीजन नहीं पहुंच पाती हैं और इससे ख़तरा पैदा होता है।"

डॉ. गालियातस्तोस ने कहा, "जब ऐसे मरीज़ों को ऑक्सिजन दी जाती है तो वह भी कई बार पर्याप्त नहीं होता है। ऐसी स्थिति में हम उनको पेट के बल लिटाते हैं, चेहरा नीचे रहता है, इससे उनका फेफड़ा बढ़ता है।"
 
गालियातस्तोस के मुताबिक इंसानी फेफड़े का भारी हिस्सा पीठ की ओर होता है इसलिए जब कोई पीठ के बल लेटकर सामने देखता है तो फेफड़ों में ज्यादा आक्सिजन पहुंचने की संभावना कम होती है।

इसकी जगह अगर कोई प्रोन पॉजिशन में लेटे तो फेफड़ों में ज़्यादा ऑक्सिजन पहुंचता है और फेफड़े के अलग-अलग हिस्से काम करने की स्थिति में होते हैं।

डॉ. गालियातस्तोस ने कहा, "इससे बदलाव दिखता है। हमने इस तकनीक से कई मरीज़ों को फ़ायदा मिलते देखा है।"
 
एक्यूट रिसेपरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम (एआरडीएस) वाले कोविड-19 मरीज़ों के लिए मार्च महीने में वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने 12 से 16 घंटे तक प्रोनिंग की अनुशंसा की थी।

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के मुताबिक़ यह तकनीक बच्चों के लिए भी इस्तेमाल हो सकती है लेकिन इसे सुरक्षित करने के लिए लिए प्रशिक्षित लोग और अतिरिक्त विशेषज्ञता चाहिए।

अमरीकी थोरासिस सोसायटी ने चीन के वुहान स्थित जियानतान हॉस्पिटल में फ़रवरी महीने में एआरडीएस वाले 12 कोविड मरीज़ों पर अध्ययन किया। इस अध्ययन के मुताबिक़ जो लोग प्रोन पॉजिशन लेट रहे थे उनके फेफड़ों की क्षमता ज़्यादा थी।
 
तकनीक के ख़तरे
हालांकि यह तकनीक बहुत आसान लग रही है लेकिन इसके अपने ख़तरे भी हैं। मरीज़ों को उनके पेट पर लिटाने में वक़्त लगता है। इसमें अनुभवी पेशेवरों की ज़रूरत भी होती है।

डॉ. गालियातस्तोस ने बताया, "यह आसान नहीं है। इसे प्रभावी ढंग से करने के लिए चार या पांच पेशेवरों की ज़रूरत होती है।" अस्पतालों में यह काफ़ी मुश्किल होता है क्योंकि वहां पहले से ही स्टाफ़ की कमी होती है और कोविड-19 मरीज़ों की बढ़ती संख्या ने उनकी मुश्किलों को बढ़ा दिया है।

डॉ. गालियातस्तोस के मुताबिक़ जोंस होपकिंस हॉस्पिटल में कोरोना संक्रमित मरीज़ों की बढ़ती संख्या को देखते हुए प्रोनिंग के लिए एक अलग टीम तैयार की गई है।
 
गालियातस्तोस ने बताया, "अगर कोविड-19 मरीज़ वैसे इंटेंसिव केयर यूनिट में भर्ती हों जहां इस तकनीक में सक्षम स्टाफ नहीं हों तो वहां के स्टाफ विशेष टीम से स्टाफ को बुला सकते हैं।" लेकिन मरीज़ों की पोजिशन बदलने में दूसरी अन्य मुश्किलें भी शुरू हो सकती हैं।
 
डॉ. गालियातस्तोस ने बताया, "हमारी बड़ी चिंताओं में मोटापा एक है। हमें छाती में इंजरी वाले मरीज़ों के साथ भी सावधान होना होता है। इसके अलावा वेंटिलेशन औरर कैथेटर ट्यूब वाले मरीजों में सावधानी बरतनी होती है।"
हालांकि इस तकनीक से हार्ट अटैक का ख़तरा भी बढ़ जाता है और कई बार सांस में अवरोध भी पैदा हो सकता है।
 
तकनीक का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल
1970 के दशक के मध्य में प्रोनिंग के फ़ायदे को पहली बार देखा गया था। विशेषज्ञों के मुताबिक 1986 के बाद दुनिया भर के अस्पतालों में इस तकनीक का इस्तेमाल शुरू हुआ। लुसियानो गातिनोनी इस तकनीक पर शुरुआती अध्ययन और अपने मरीज़ों पर सफलातपूर्वक इस्तेमाल करने वाले डॉक्टरों में एक रहे हैं।

लुसियानो इन दिनों एनिस्थिसियोलॉजी (निश्चेत करने वाले विज्ञान) एवं पुनर्जीवन से जुड़े विज्ञान के एक्सपर्ट हैं। इसके अलावा वे मिलान स्टेट यूनिवर्सिटी में एमिरेट्स प्रोफ़ेसर हैं।
 
प्रोफ़ेसर लुसियानो ने बीबीसी को बताया कि शुरुआती दिनों में प्रोनिंग को मेडिकल समुदाय के रूढ़िवादी होने के चलते काफ़ी विरोध का सामना करना पड़ा। प्रोफ़ेसर लुसियानो ने कहा, "लेकिन अब इस तकनीक का काफ़ी इस्तेमाल होता है।" उनके मुताबिक़ प्रोनिंग से फेफड़ों में ऑक्सिजन की मात्रा बढ़ने के अलावा दूसरे फ़ायदे भी हैं।

उन्होंने बताया, "जब मरीज़ चेहरा नीचे करके लेटता है तो उसके फेफड़ों के अलग-अलग हिस्सों एकसमान दबाव वितरीत होता है।"

प्रोफ़ेसर लुसियानो ने बताया, "फेफड़े को आप वेंटिलेटर की यांत्रिक ऊर्जा की तरह देखिए, तो इसके लगातार काम करना होता है। अगर फेफड़े के अलग-अलग हिस्सों पर एकसमान दबाव लगेगा तो इसका नुक़सान कम होगा।"
इस शताब्दी की शुरुआत में हुए दूसरे अध्ययनों में भी इस तकनीके के फ़ायदे बताए गए हैं।

फ्रांस में 2000 में हुए एक अध्ययन के नतीजे भी बताते हैं कि प्रोनिंग से मरीज़ों के फेफड़ों में ज्यादा ऑक्सिजन तो पहुंची ही साथ में उनके बचने की संभावना भी बढ़ गई।

ऐसे में प्रोनिंग के तकनीक के तौर उस महामारी में अपनाया जा सकता है जिसके चलते दुनिया भर में हज़ारों लोगों की मौत हो चुकी है और जिसका फ़िलहाल कोई इलाज भी नहीं है।

प्रोफ़ेसर गालियातस्तोस ने बताया, "जब तक इलाज नहीं मिलता, तब तक हम ऐसी थेरेपी का इस्तेमाल कर सकते हैं।"
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