- ब्रायन लफकिन (बीबीसी फ़्यूचर)
पिछले साल दिसंबर में थाईलैंड में पुदित कित्तित्रादिलोक नाम के एक शख़्स को 13 हज़ार 275 साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी। पुदित का जुर्म ये था कि उसने चिटफंड कंपनी के ज़रिए 2400 लोगों को करोड़ों का धोखा दिया था। उन्हें भरोसा दिया था कि उन्हें अच्छा रिटर्न मिलेगा।
पुदित को इस धोखाधड़ी की जो सज़ा सुनाई गई, वो तो उसकी उम्र क्या, धरती के नियोलिथिक युग से भी लंबी है। लेकिन, थाईलैंड के क़ानून के मुताबिक़ वो सिर्फ़ 20 साल जेल में रहेगा। आम तौर पर दुनिया भर में ये माना जाता है कि लंबी और सख़्त सज़ा से अपराध कम होते हैं। वैसे पुदित को जो सज़ा सुनाई गई वो तो दिखावे के लिए थी।
इसी तरह अमेरिका के ओक्लाहोमा शहर में 1995 में हुई बमबारी के मुजरिम टेरी निकोलस को 161 साल उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी। उसे कोई पैरोल न दिए जाने की शर्त भी सज़ा में शामिल थी। यानी टेरी की उम्र जेल में ही बीतनी थी। सवाल ये है कि ऐसी लंबी और सख़्त सज़ाएं अपराध कम करने में कितनी कारगर होती हैं? इनका असर होता भी है या नहीं?
क़ैद का मक़सद
जब जज किसी को सज़ा सुनाते हैं तो चार बातों की भूमिका अहम होती है। पहली, किसी को उसके किए की सज़ा देनी है। दूसरा, उसके बर्ताव को सुधारना है। तीसरा, उसकी सुरक्षा है क्योंकि जिन लोगों के ख़िलाफ़ उसने जुर्म किए हैं, वो उससे बदला लेने के लिए नुक़सान भी पहुंचा सकते हैं। चौथी बात बाक़ी समाज को संदेश देना है कि ऐसे अपराध करने पर सख़्त सज़ा होगी।
बहुत से लोग, ख़ास तौर से अमेरिका में सरकारी वक़ील ये मानते हैं कि लंबी क़ैद से ये चारों मक़सद पूरे होते हैं। अमेरिका के एटॉर्नी जनरल जेफ़ सेशन्स हिंसक अपराधों और ड्रग से जुड़े जुर्म के लिए सख़्त सज़ा की वक़ालत करते आए हैं। सेशन्स जैसे लोगों का मानना है कि इससे समाज सुरक्षित होगा।
लंबी सज़ा की वक़ालत करने वाले कहते हैं कि इससे क़ैदी को अपने जुर्म पर विचार करने और ख़ुद को सुधारने का ज़्यादा मौक़ा मिलता है। वो क़ैद में रहने के नुक़सान का तजुर्बा करते हैं। तो वो फिर से कोई जुर्म करके जेल जाने से बचते हैं।
लेकिन, लंबी सज़ा के प्रावधान से जेलों में क़ैदियों की भीड़ बढ़ जाती है। इसका सरकारी ख़ज़ाने यानी आम जनता पर भारी असर पड़ता है। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के लॉ स्कूल की 2016 में आई रिपोर्ट कहती है अगर अमेरिकी अपनी जेलों में क़ैदियों की तादाद 40 फ़ीसदी तक घटा ले, तो वो दस सालों में 200 अरब डॉलर की बचत कर सकता है।
67 फ़ीसदी लोग फिर से पकड़े गए
रिसर्च बताते हैं कि क़ैद की लंबी मियाद असरदार नहीं होती। फिर 13 हज़ार 275 साल की सज़ा सुनाने का कोई तुक है क्या? और सज़ायाफ़्ता लोगों को ये लगता है कि वो पकड़े नहीं जाएंगे। अपराधी भविष्य जेल में बिताने को लेकर डरते भी नहीं। यानी लंबी सज़ा के बावजूद जेल से छूटते ही लोग जुर्म की दुनिया में लौट जाते हैं।
2009 में अमेरिका में हुई स्टडी बताती है कि 3 साल जेल में रहने के बाद रिहा हुए 67 फ़ीसदी लोगों को नए जुर्म के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। इनमें से 46.9 फ़ीसदी को नए जुर्म के लिए सज़ा हो गई। जेल भेज दिया गया। ब्रिटेन में जेल से छूटने वाले 70 फ़ीसदी अपराधियों को साल भर के भीतर दोबारा सज़ा सुनाई गई।
जानकार कहते हैं कि पकड़े जाने के बाद भी अपराधियों को यही लगता है कि वो जुर्म करने पर पकड़े नहीं जाएंगे। ऐसे में उन्हें लंबे वक़्त तक क़ैद में रहने का डर नहीं होता। तो, हम इस बात पर तो राज़ी हो सकते हैं कि अपराधियों को सबक़ सिखाना ज़रूरी है। मगर उन्हें कितने दिनों तक क़ैद में रखा जाए, इस सवाल पर मतभेद हैं।
एक जुर्म के लिए अलग-अलग देशों में सज़ा भी अलग-अलग होती है। जैसे कि 2006 में डकैती करने वालों को फिनलैंड में 16 महीने क़ैद की सज़ा मिली। वहीं ऑस्ट्रेलिया में इसी जुर्म की सज़ा 72 महीने की क़ैद थी। इंग्लैंड में डकैती की सज़ा 15 महीने क़ैद है, तो अमेरिका में इस जुर्म की सज़ा 60 महीने की जेल।
लंबी सज़ा के मामले में अमेरिका अव्वल है।
यही वजह है कि अमेरिका में 1970 के दशक से जेल में क़ैद लोगों की संख्या में बेतहाशा इज़ाफ़ा हुआ है। जैसे-जैसे सज़ा की मियाद बढ़ रही है, क़ैदियों की तादाद भी बढ़ रही है। आज हिंसक अपराधों और ड्रग से जुड़े जुर्म के लिए क़ैद लोगों की संख्या काफ़ी बढ़ गई है। आज की तारीख़ में अमेरिका में सबसे ज़्यादा 22 लाख लोग जेलों में क़ैद हैं। इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर 57 अरब डॉलर सालाना का बोझ पड़ता है।
अमेरिका के हालात
वॉशिंगटन के अर्बन इंस्टीट्यूट के जस्टिस पॉलिसी सेंटर के रेयान किंग कहते हैं कि हिंसक अपराधों के लिए कोई भी सज़ा लंबी नहीं लगती। पिछले 40 सालों से अमेरिका में यही विचार चल रहा है।
किंग कहते हैं कि अमेरिका के लिए 60 का दशक काफ़ी उठा-पटक भरा रहा था। अमेरिकी सेनाएं वियतनाम युद्ध में फंसी थीं। वहीं, घर में अमेरिकी अश्वेतों के सिविल राइट्स आंदोलन का सामना कर रहे थे। इस दौरान हिंसक घटनाएं और दंगों की तादाद काफ़ी बढ़ गई थी।
रेयान किंग कहते हैं कि राजनेता ऐसे हालात का फ़ायदा उठाते रहे हैं। वो बताते हैं कि 60 के दशक से ही अमेरिकी जेलों में बंद लोगों की संख्या बढ़नी शुरू हुई थी। 1974 में जहां अमेरिका की जेलों में महज़ 2 लाख लोग क़ैदी थे। वहीं 2002 में ये संख्या बढ़कर 15 लाख से ज़्यादा हो गई थी। किंग के मुताबिक़ हर राजनेता को ये बयान देना पसंद है कि वो अपराध और अपराधियों पर लगाम लगाएगा।
जैसे यूपी के सीएम ने अपराधियों के एनकाउंटर की नीति पर अमल शुरू किया है। जुर्म का हाथों-हाथ हिसाब। ग़ैरक़ानूनी होने के बावजूद इसे लगातार सियासी तौर पर जायज़ ठहराया जा रहा है। हमारे देश में हर चुनाव में विरोधी पर अराजकता फैलाने के आरोप लगाए जाते हैं। फिर वादा किया जाता है कि क़ानून का राज क़ायम करेंगे।
सामाजिक सोच भी लंबी सज़ाओं के लिए ज़िम्मेदार है। जैसे कि अमेरिका में कहा जाता है कि अगर आप सज़ा भुगतने को तैयार नहीं हैं, तो जुर्म मत कीजिए। फिर लोगों को व्यक्तिवाद के चलते अपने कर्मों का फल भोगने की सोच भी अमेरिकी समाज में देखने को मिलती है। धर्म का भी काफ़ी असर होता है, सज़ा की मियाद तय करने में।
लंबी क़ैद का विकल्प क्या है?
अपराधियों को अगर जुर्म करने पर लंबे वक़्त तक क़ैद में न रखें तो फिर उनका करें क्या?
इस सवाल के जवाब में रास्ता दिखाता है उत्तरी यूरोपीय देश नॉर्वे। वहां खुली जेलों का चलन ज़्यादा है। नॉर्वे ने मौत की सज़ा 1902 में ही ख़त्म कर दी थी। 1981 में वहां उम्र क़ैद की सज़ा भी ख़त्म हो गई। आज नॉर्वे में जो अधिकतम सज़ा दी जा सकती है, वो है 21 साल की क़ैद।
नॉर्वे की हाल्डेन जेल, दुनिया भर के लिए मिसाल बन सकती है। यहां क़ैदी कोठरियों में क़ैद नहीं किए जाते। न ही यहां के गार्ड हथियार लिए होते हैं। क़ैदी और जेल के सुरक्षा गार्ड आपस में घुल-मिल कर रहते हैं। ये अधिकतम सुरक्षा वाली जेल है, जहां से भागना कमोबेश नामुमकिन है। मगर जेल के भीतर क़ैदियों को काफ़ी आज़ादी है। यहां तक कि सुरक्षा के लिए ज़रूरी कैमरे भी नहीं लगाए गए हैं।
अब हर देश तो नॉर्वे की मिसाल से नहीं सीख सकता। कट्टर अपराधियों को आप खुली जेलों में नहीं रख सकते। मगर, छोटे अपराध करने वालों को सुधारने के लिए ये एक अच्छा विकल्प हो सकता है।
ओस्लो यूनिवर्सिटी में अपराध विज्ञान के प्रोफ़ेसर थॉमस यूगेल्विक कहते हैं कि खुली जेलें बनाना आसान है। इनका रख-रखाव भी कम ख़र्चीला है। क़ैदियों को एक हद तक आज़ादी तो है मगर उन्हें सज़ा पूरी होने तक बंदिश में तो रहना ही पड़ता है। खुली जेलों की वजह से नॉर्वे में अपराधी जेल से छूटने के बाद जुर्म की दुनिया में भी कम ही लौटते हैं। यहां केवल 20 फ़ीसदी अपराधी जेल से छूटकर दोबारा अपराध की दुनिया में लौटते हैं। अमेरिका में ये आंकड़ा 60 फ़ीसद है। नॉर्वे में औसत सज़ा आठ महीने ही है।
खुली जेलों में रहना आसान नहीं। प्रोफ़ेसर थॉमस कहते हैं कि क़ैदियों को स्कूल जाना पड़ता है। काम करना होता है। अपराधियों को पॉज़िटिव रवैया अपनाना पड़ता है।
मौत की सज़ा से कम होते हैं अपराध?
भारत की मिसाल ही लीजिए, हाल ही में गैंग रेप की दो घटनाओं के बाद सज़ा सख़्त करने की मांग हुई। सरकार ने अध्यादेश जारी कर के क़ानून में बदलाव किया। अब नाबालिग से रेप की सज़ा मौत होगी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने पिछले महीने ही ड्रग डीलर्स को मौत की सज़ा देने की मांग का समर्थन किया था।
क्या किसी जुर्म के लिए मौत की सज़ा तय होने से अपराध कम होता है?
इस सवाल का जवाब है नहीं।
वॉशिंगटन में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम सुधारने के लिए काम कर रहीं एश्ले नेलिस कहती हैं कि इससे बस नेताओं को बयानबाज़ी का मौक़ा मिलता है। वो हर जुर्म में सियासी फ़ायदा लेने की कोशिश करते हैं।
नेलिस कहती हैं कि अपराधी यही सोचते हैं कि वो पकड़े ही नहीं जाएंगे। जब वो इस विचार से मज़बूत हैं, तो उन्हें सज़ा का ख़ौफ़ क्या ख़ाक होगा! वैसे बलात्कारियों और सीरियल किलर को लंबी सज़ा देने को एक हद तक ठीक माना जा सकता है। इससे पीड़ित परिवार को बदला पूरा होने का अहसास होता है। समाज में भी सख़्त संदेश जाता है।
लेकिन, ऐसे अपराध होते बहुत कम हैं। भले ही अख़बारों और टीवी चैनलों में बलात्कार और हत्याओं के मामले बढ़ने का शोर मचा हो, मगर ऐसे गंभीर अपराध बहुत कम होते हैं। ज़्यादातर जानकार कहते हैं कि ड्रग जैसे जुर्म से निपटने के लिए हमें सामाजिक तौर पर क़दम ज़्यादा उठाने चाहिए।
सख़्त सज़ा के बजाय लोगों को इससे बचाने की कोशिश करनी चाहिए। एक बार सज़ा पाने वाले को पुनर्वास में पूरी मदद करनी चाहिए। क्योंकि ये तो नशा है औऱ नशा सज़ा से नहीं छूटता। किसी को क़ैद करना बहुत सख़्त सज़ा होती है। ज़्यादातर अपराधों में तो इसके बग़ैर ही काम चल सकता है। ड्रग लेने जैसे जुर्म के लिए तो पुनर्वास पर ज़ोर दिया जाना चाहिए क्योंकि ये लत का मामला है।
अपराध से हर देश अपने तरीक़े से निपटता है। ऐसे में शायद हर मुल्क़ के लिए नॉर्वे जैसी जेलें बनाना और चलाना मुमकिन न हो। पर एक बात तो तय है कि लंबी सज़ा से अपराध कम नहीं होते। इसके बजाय क़ैदियों को सुधारने और उनको समाज की मुख्यधारा से दोबारा जोड़ने पर ज़ोर होना चाहिए। बहुत कुछ क़ैदियों पर भी निर्भर करता है कि वो अपनी ज़िंदगी के साथ क्या करना चाहते हैं।