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Last Modified: सोमवार, 30 नवंबर 2015 (17:50 IST)

आईएस क्या जाने किस क़ाबिल हैं भारतीय लड़ाके

आईएस क्या जाने किस क़ाबिल हैं भारतीय लड़ाके - indian soldier
- आकार पटेल (वरिष्ठ विश्लेषक)
 
कुछ दिन पहले मैंने एक खबर देखी और मैं हैरान रह गया। इसमें कहा गया कि इस्लामी चरमपंथी संगठन आईएस भारत सहित दक्षिण एशियाई मुसलमानों को सीरिया और इराक जैसे संकटग्रस्त क्षेत्रों में लड़ने के काबिल नहीं समझता और अरब लड़ाकों के मुकाबले उन्हें कमतर आंकता है।
रिपोर्ट में बताया गया था कि इसी वजह से दक्षिण एशियाई मुसलमान लड़ाकों को छोटे समूह में रखा जाता है और अरब लड़ाकों के मुकाबले उन्हें कम वेतन मिलता है। यही नहीं, उन्हें अच्छे हथियार भी नहीं दिए जाते हैं। यह बात एक विदेशी एजेंसी की ओर से तैयार की गई खुफिया रिपोर्ट में सामने आई है, जिसे भारतीय एजेंसियों के साथ भी साझा किया गया है।
 
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश के साथ-साथ नाइजीरिया और सूडान जैसे देशों के लड़ाकों को अरब लड़ाकों के मुकाबले कमतर समझा जाता है।
 
मैं नाइजीरिया और सूडान में हुए संघर्षों के बारे में तो ज्यादा नहीं जानता हूं, लेकिन मैं अरबों को यह जरूर बताना चाहता हूं कि लड़ने के मामले में भारतीय उपमहाद्वीपीय के लोगों का इतिहास उनसे कहीं बेहतर रहा है।
 
एक तरह से तो यह अच्छा ही है कि अरब इन लोगों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य ही गलत है। लेकिन दूसरी ओर, पाठकों के लिए इतिहास जानना दिलचस्प हो सकता है ताकि बात साफ रहे।
 
इतिहास में पेशेवर भारतीय लड़ाकों का जिक्र सबसे पहले 479 ईसा पूर्व में ग्रीस में आता है जब प्लातिया का युद्ध ईरानियों और ग्रीक सिटी स्टेट के बीच लड़ा गया था।
इतिहासकार हेरोडोटस हमें दोनों पक्षों की विभिन्न संरचनाओं के बारे में बताते हैं। वो ये भी बताते हैं कि फारसी राजा जरक्सिज ने भारतीय लड़ाकों को भाड़े पर लिया था। मैंने बहुत दिन पहले एक किताब पढ़ी थी लेकिन मुझे याद नहीं आता कि किसी और देश से लड़ाकों को भाड़े पर लिया गया हो। केवल भारतीय लड़ाके भाड़े पर लिए गए। हालांकि फारसी युद्ध हार गए, लेकिन भारतीय लड़ाकों का हमेशा वर्णन होता है।
 
एक सदी बाद इतिहासकार एरियन ने पंजाब में सिकंदर महान के आक्रमण के समय की घटना का जिक्र किया। सिकंदर को जो सबसे बड़ा प्रतिरोध झेलना पड़ा वह था वो भारतीय पेशेवर लड़ाकों की तरफ से था, जिन्हें गांव वालों ने मैसोडोनियाई सेना से अपनी बस्तियों की रक्षा के लिए भाड़े पर लिया था।
 
किराए के भारतीय लड़ाके लड़ाई में अच्छे माने जाते थे। हम यह बात इसलिए जानते हैं क्योंकि सिकंदर ने उनके साथ संघर्ष विराम किया, फिर धोखा देकर उनका नरसंहार करवा दिया। यह उन कुछ घटनाओं में से एक है जिसे, सामान्यतः सिकंदर के चापलूस रहे, उनके जीवनी लेखकों एरियन और क्विंटस कोअर्टिसोअस रुफस ने नैतिक रूप से निंदनीय माना। इसलिए हम भी यह मानते हैं कि ऐसा हुआ होगा।
 
भारतीय लड़ाकों ने इतिहास की कुछ भयंकर लड़ाइयों में अपना और दूसरों का खूब खून बहाया है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1915 में गैलिपोली की जिस जंग से तुर्की के मुस्तफा कमाल अतातुर्क मशहूर हुए थे, उसमें भी भारतीय लड़ाकों ने हिस्सा लिया था।
लेकिन बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि जिस खंदक युद्धनीति ने युद्ध को दिशा दी, वह भारतीयों की खोज थी।
 
प्रथम विश्व युद्ध पर लिखी गई अपनी किताब में सैन्य इतिहासकार जॉन किगन कहते हैं, 'पहला खंदक हमला 1914 में 9/10 नवंबर की रात भारतीय सेना के 39वें गढ़वाल राईफल्स ने किया। अंधेरे की आड़ में दुश्मनों पर भयंकर आक्रमण करना भारतीय सैनिकों की एक पारंपरिक खासियत थी और हो सकता है कि इस प्राणघाती कार्रवाई ने आदिवासी सैन्य अभ्यास का परिचय पश्चिमी सैनिकों से कराया हो।"
 
भारतीय सैनिकों में साहस और काबिलियत की कोई कमी नहीं रही है। इतिहासकार मैक्स हेस्टिंग्स ने 'कैटेस्ट्रॉफ़े: यूरोप गोज़ टू वार 1914' नामक अपनी किताब में लिखा है कि भारतीय सैनिकों ने ब्रितानी सैनिकों को गश्त करने की कला सिखाई।
फ्रांस की ख़ंदकों में इतने सारे भारतीय सैनिक थे कि ब्रितानी विदेश विभाग से उनकी खाने पीने की जरूरतों को पूरा करने के लिए हर महीने दस हजार ज़िंदा बकरे भेजने के लिए कहा गया।
 
मुगल साम्राज्य के पतन पर इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने चार कड़ियों वाली अपनी किताब में तीन प्रमुख राजपूत कुलों (सिसोदिया, कछवाहा और राठौर) की लड़ाई की शैली का ज़िक्र किया है।
 
यहां तक कि जब वे हार रहे होते थे, तो भी राठौड़ अपने घोड़ों को दुश्मन की तोपों के इर्द-गिर्द दौड़ा कर उन पर हमला कर रहे होते थे। यदुनाथ लिखते हैं कि वह ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि वह इतनी बड़ी संख्या में नहीं मारे गए हैं कि युद्ध के मैदान से सम्मान के साथ लौट सकें।
 
यकीनन राजपूतों की समस्या यह थी कि वह आपस में ही लड़ते रहते थे। एक लड़ाई के बारे में पढ़कर मैं हैरान रह गया, कि कुछ दर्जन राठौड़ों ने अपने एक लाख प्रतिद्वंदी राठौड़ लड़ाकों को छितरा दिया था। यह ऐसे राष्ट्र के लड़ाकों की विरासत या संकेत नहीं है जो अरब लड़ाकों से कमतर हों।
 
करीब 15 साल पहले एक अखबार में मैंने एक घटना के बारे में पढ़ा था। एक बार में दो ब्रितानी यूनिटों के बीच तब लड़ाई शुरू हो गई जब एक समूह ने बहुत अधिक शराब पी ली और वे आक्रामक हो गए।
 
ये उनका दुर्भाग्य था कि दूसरा समूह गोरखाओं का था जो ब्रितानी सैनिकों की तुलना में आकार में बहुत छोटे थे लेकिन ब्रितानियों से बेहतर लड़ाके थे। मुझे याद है कि उनके बारे में क्या लाइन लिखी गई थी- 'उन्होंने विरोधियों का सफाया कर दिया।'
 
भारतीय सैनिकों को हमेशा एक अच्छे नेतृत्व की जरूरत होती है। मुझे संदेह है कि आईएस के अरब उन्हें ऐसा नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं, और ऊपर वाले का शुक्र है कि वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं।
 
(ये लेखक के निजी विचार हैं)