शनिवार, 27 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. »
  3. धर्म-दर्शन
  4. »
  5. जैन धर्म
Written By WD

गोपाचल के गुहा मंदिर

गोपाचल के गुहा मंदिर -
WDWD
मध्य भारत में गुहा मंदिर केवल दो ही स्थानों में हैं और दोनों ही स्थान पूर्व ग्वालियर रियासत में हैं। एक तो विदिशा के पास उदयगिरि पहाड़ी पर और दूसरा ग्वालियर का दुर्ग।

विदिशा के करीब 4-5 मील दूर उदयगिरि पहाड़ी में बीस गुहा मंदिर हैं और वे सबके सब गुप्तकाल के हैं। पाषाण की दृष्टि से यह पहाड़ी गुफाएँ खोदने के लिए उपयुक्त न थीं फिर भी यहाँ ऐसी अनेक मूर्तियों का निर्माण किया गया, जो अद्वितीय है।

इन गुफाओं में से पहली और बीसवीं गुफा में जैन मूर्तियाँ हैं। बीसवीं गुफा पहाड़ी के ऊपर भाग में है। इसमें खुदे हुए लेख से ज्ञात होता है कि यहाँ पार्श्वनाथ मूर्ति का निर्माण किया गया था, जो कुमार गुप्तप्रथम के राज्यकाल में गुप्त संवत्‌ 106 में खोदा गया था।

गोपाचल दुर्ग गुहा मंदि
ग्वालियर किले में गुफा मंदिर संख्या, विस्तार तथा मूर्तियों की ऊँचाई के कारण विशेष आकर्षक हैं। उक्त किला एक स्वतंत्र पहाड़ी पर है। वास्तव में किला और पहाड़ी अलग-अलग नहीं, बल्कि एक ही हैं। यह उत्तर-दक्षिण करीब 2 मील लंबा, पूर्व-पश्चिम करीब आधा मील चौड़ा एवं 300 फुट ऊँचा है।

15वीं शताब्दी में तोमर राजाओं के राज्यकाल में जैन धर्मावलंबियों के प्रभाव के कारण समूची पहाड़ी पर ऊपर-नीचे चारों ओर गुफा मंदिर खोद दिए गए और उनमें विशाल मूर्तियों का निर्माण किया गया। ये गुफा मंदिर और मूर्तियाँ संख्या और विस्तार में सर्वाधिक हैं। अर्वाचीन होने के कारण एलोरा की गुफाओं के समान उनका स्थान नहीं है। इन गुफाओं में अनेक लेख मिले हैं, जिनसे विदित होता है कि ये 33 वर्षों (1441 से 1474 के बीच) में खोदी जा सकी थीं।

गुफा मंदिरों का इतिहास जैनों से ही प्रारंभ होता है और उन्हीं पर आकर समाप्त हो जाता है। ग्वालियर किले के गुफा मंदिरों के उत्तर-काल में शायद अन्यत्र कहीं कोई गुफा-मंदिर खोदा नहीं गया। जहाँ तक शिल्प का क्षेत्र है, जैन गुफाओं का अपना विशेष स्थान है।

अजंता की गुफाओं का महत्व उनके चित्रों के कारण है, उदयगिरि और खंडगिरि की गुफाओं को शिल्प कला के इतिहास में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है और इन्हीं से दो मंजिली गुफाओं का इतिहास प्रारंभ होता है।

इस गढ़ में जितनी मूर्तियाँ बनी हैं, उनका निर्माण डूंगरसिंह और कीर्तिसिंह के शासनकाल में 55 वर्षों में हो पाया। महाराजा डूंगरसिंह के काल में पहाड़ की ऊबड़-खाबड़, आड़ी-तिरछी शिलाओं और चट्टानों को छैनी हथौड़ों की सहायता से साफ और चिकना बनाने का उपक्रम चलता रहा।

इसके बाद कलाकारों ने चट्टानों के कठोर हृदय को भेदकर (उनके भीतर से) सौम्यता, शांति और वीतरागता को प्रतिमाओं के मुख पर अंकित करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने संपूर्ण दुर्ग को जैन प्रतिमाओं का भव्य मंदिर बना दिया। प्रतिमाओं के विशाल स्वरूप में भी कलाकार की छैनी और हथौड़ा दिव्य भावनाओं को अभिव्यंजित करने में चूके नहीं हैं। यह कलाकारों के नैपुण्य का द्योतक है।

भगवान अजितनाथ की सफेद संगमरमर की पद्मासन मूर्ति, जिसको महाराजा डूंगरसिंह ने ग्वालियर दुर्ग में प्रस्थापित किया था, उसे सेठ लखमीचंद ने ग्वालियर से ले जाकर श्री दि. जैन तीर्थ क्षेत्र चौरासी, मथुरा में पधराई।

ऐसा प्रतीत होता है कि महाराजा डूंगरसिंह तोमर ने किसी विशाल मंदिर का निर्माण ग्वालियर दुर्ग में कराकर यह मूर्ति प्रतिस्थापित की थी, परन्तु आगे चलकर इसी समय मुगलों द्वारा नष्ट किए जाने के भय से भक्तों द्वारा यह मूर्ति दुर्ग से हटा दी गई। इस मूर्ति पर डूंगरसिंह महाराजा द्वारा स्थापित किए जाने का लेख है।

तोमर राज्य में जैन धर्मावलंबियों का प्रभाव था। इस कारण समस्त ग्वालियर किले के चारों ओर गुफाएँ खुदवा दी गईं एवं इनके भीतर जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ निर्माण की गईं। ये गुफाएँ विशाल मनोबल, अद्भुत धैर्य एवं आश्चर्यजनक कौशल का प्रमाण हैं और ऐसा सामंजस्य बहुत कम मिलता है।

इन गुहा मंदिरों का निर्माण ग्वालियर में जैनियों ने प्रारंभ किया और यहीं समाप्त हो गया। इसका कारण उस समय की परिस्थितियाँ थीं, जिन्होंने ऐसे गुहा मंदिरों के लिए प्रेरणा दी। यह कार्य सन्‌ 1441 से 1474 के बीच 33 वर्षों के अनवरत कुशल कारीगरों की तपस्या का फल है।