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Written By WD

यूँ हुई 'भारत छोड़ो आंदोलन' की शुरूआत

यूँ हुई ''भारत छोड़ो आंदोलन'' की शुरूआत -
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आठ अगस्त 1942 को बंबई के गोवालिया टैंक मैदान पर अखिल भारतीय काँग्रेस महासमिति ने वह प्रस्ताव पारित किया था, जिसे 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव कहा गया। सन् 1885 से राष्ट्रीय काँग्रेस अनेक प्रस्ताव स्वीकार करती रही थी और ऐसा भी नहीं था कि इन प्रस्तावों के कोई परिणाम नहीं निकलते थे। लेकिन 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव एक ऐसा प्रस्ताव था जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक विशिष्‍ट मोड़ दिया, इस प्रस्ताव ने तो जैसे सारा राजनीतिक माहौल ही बदल डाला। सारे देश में एक अभूतपूर्व उत्साह की लहर दौड़ गई। लेकिन उस उत्साह को राष्‍ट्रीय विस्फोट में बदल दिया उस रात राष्‍ट्र के प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी ने। तत्कालीन गोरी सरकार के इस कदम की जो तीव्र प्रतिक्रियाएँ हुई, वह सचमुच अभूतपूर्व थी।

सारा देश मानो हिल गया। यदि सरकार उक्त कदम न उठाती तो क्या हाल होता, यह एक अन्तहीन बहस का विषय हो सकता है। लेकिन दमन के आधार पर यहाँ जमी हुई विदेशी सरकार और कोई तरीका जानती भी तो नहीं थी। तर्कसंगत अनुमान तो यही हो सकता है कि उक्त प्रस्ताव के फलस्वरूप एक विराट जन-आंदोलन उठ खड़ा होता और सरकार को देर-सबेर दमन-चक्र चलाना ही पड़ता। 8 अगस्त, 1942 को जिस क्रांति का सूत्रपात हुआ, उसने असंदिग्ध रूप से यह जाहिर कर दिया कि अँग्रेजी हुकूमत टिक नहीं सकती।

अगस्त, 1942 की क्रांति से क्या-क्या हुआ, कहाँ-कहाँ हुआ इसे दोहराना अनावश्‍यक है। लेकिन समूचे देश ने करवट बदली थी। और उसका प्रमाण चाहिए ही हो तो, स्वयं सरकार द्वारा प्रकाशित एक रपट है। यह रपट बयालीस के संघर्ष के बारे में है, जिसे टॉटेन हॅम रपट भी कहते है। यह रपट, जैसी कि सहज ही अपेक्षा की जा सकती है, सरासर एकतरफा है और तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश कर‍ती है। क्योंकि इसका मकसद वास्तविकता को जाहिर करना नहीं था। मकसद था काँग्रेस को बदनाम करना। फिर भी यदि हमने इसका जिक्र किया है तो इस मकसद से कि इस रपट से यह प्रकट होता है कि देश के हर भाग में 'भारत छोड़ो' की भावना थी।

दरअसल सन् 1942 की क्रांति पिछले सत्तावन वर्ष से राष्‍ट्रीय काँग्रेस जो आंदोलन चला रही थी, उसका उफान था। इस उफान ने अँग्रेजों की आँखें खोल दी। इस उफान की पृष्ठभूमि में लोकमान्य तिलक और उनके बाद महात्मा गाँधी ने जो व्यापक जन-जागृति उत्पन्न की थी, जो राष्ट्रीय चेतना जगाई थी, वह थी। लिहाजा, सन बयालीस के सिर्फ पाँच साल बाद ही भारत स्वतंत्र हो गया। निश्चय ही इसके साथ विभाजन की ह्रदय विदारक त्रासदी भी जुड़ी थी, फिर भी यह तथ्य तो स्पष्ट है ही कि 'भारत छोड़ो' आंदोलन ने अँग्रेजों के समक्ष स्पष्ट कर दिया था कि उनकी हुकूमत चल नहीं सकती।

पचास वर्ष पूर्व के उस तेजस्वी आंदोलन में जाने कितनों ने अपना सर्वस्व होम दिया था। तरह-तरह की यातनाएँ झेली थीं। उन सबके प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करना हम सबका कर्तव्य है। साथ ही यह भी कि उन तमाम ज्ञात-अज्ञात शहीदों की आँखों में जिस स्वतंत्र भारत के सपने थे उनकी याद कर उन्हें साकार बनाने के प्रति स्वयं को पुन: प्रतिबद्ध करने का भी यह अवसर है। तभी हमारा देश, हमारा जनतंत्र और हमारी स्वतंत्रता अक्षुण्ण रह सकती है।