इस तरह तय हुआ साँस का यह सफर...
गोपालदास नीरज के जन्मदिवस पर विशेष
आज प्रख्यात कवि और गीतकार गोपालदास नीरज का जन्मदिन है। आज से 83 वर्ष पूर्व 4 जनवरी, 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा के नजदीक एक छोटे से गाँव पुरावली में नीरज का जन्म हुआ था। तब कौन जानता था कि एक दिन वह कविता और गीतों का सरताज होगा। आज उनके जन्म-दिवस पर उनकी दो प्रमुख कविताएँ, जो आज भी हिंदी साहित्य के अथाह आसमान में जगमगाते दो सितारों की तरह अपनी रोशनी बिखेर रही हैं।उनके जन्मदिन को लेकर कुछ अंतर्विरोध हैं। कुछ जगहों पर यह तारीख 8 फरवरी बताई गई है, लेकिन इस संबंध में वेबदुनिया से हुई निजी बातचीत में उन्होंने खुद बताया कि उनके जन्म की असल तारीख तो 4 जनवरी ही है। स्कूल के सर्टिफिकेट में भरी हुई तारीख 8 फरवरी जन्म की वास्तविक तिथि नहीं है। कारवाँ गुज़र गया स्वप्न झरे फूल से,मीत चुभे शूल से,लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे !नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,गीत अश्क बन गए,छंद हो दफन गए,साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,और हम झुके-झुके,मोड़ पर रुके-रुकेउम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,क्या सुरूप था कि देख आईना सिहर उठा,इस तरफ ज़मीं उठी तो आसमान उधर उठा,थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,एक दिन मगर यहाँ,ऐसी कुछ हवा चली,लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली,और हम लुटे-लुटेवक्त से पिटे-पिटेसाँस की शराब का खुमार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ,हो सका न कुछ मगर,शाम बन गई सहर,वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर,और हम डरे-डरे,नीर नयन में भरे,ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरन-चरन,शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,पर तभी ज़हर भरी,गाज एक वह गिरी,पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,और हम अजान से,दूर के मकान से,पालकी लिए हुए कहार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
छिप छिप अश्रु बहाने वालोंछिप छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ लुटाने वालों कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।सपना क्या है नयन सेज पर, सोया हुई आँख का पानीऔर टूटना है उसका ज्यों, जागे कच्ची नींद जवानी।गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालोंकुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है।माला बिखर गयी तो क्या है, खुद ही हल हो गयी सम्स्याआँसू गर नीलाम हुए तो, समझो पूरी हुई तपस्या।रूठे दिवस मनाने वालों, फ़टी कमीज़ सिलाने वालोंकुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है।लाखों बार गगरियाँ फ़ूटीं,शिकन न आई पर पनघट परलाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर।तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गंध फ़ूल कीतूफ़ानों तक ने छेड़ा पर,खिड़की बंद ना हुई धूल की।नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालोंकुछ मुखड़ों की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।