पंख
- महाराज कृष्ण संतोषी
दुख रखता हूं कलेजे मेंइंतजार सुख का करता हूंइतना जीवन है मेरे आसपासकि मैं कभी निराश नहीं होतासफल लोगों के बीचअपनी असफलतानहीं मापा फिरताकड़कती धूप मेंवे मुझे देखते हैंपैदल चलते हुएऔर हंसते हैं मेरी दरिद्रता परमैं भी हंसता हूं उन परयह सोचते हुएकार नहीं मेरे पासतो क्याकवि हूं मैंपंख हैं मेरे पासजो उन्हें दिखाई नहीं देते।