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Written By ND

मैया मोहे 'बजट' बहुत सतायो !

- पूनम सरमा

मैया मोहे ''बजट'' बहुत सतायो ! -
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महंगाई में भगवान श्रीकृष्ण को मक्खन के दर्शन तक दुर्लभ हो गए हैं। अब तो वे बस एक ही रट लगा रहे हैं कि - 'मैया मोहे 'बजटऊ' बहुत सतायो'

भगवान श्रीकृष्ण को पहले उनके दाऊ बहुत खिझाते थे परंतु भगवान अब बड़े भाई से इतने दुखी-परेशान नहीं हैं, जितना सरकार के बजट से हैं। वे आजकल माताश्री से बजट की शिकायत करते देखे जा सकते हैं। बजट के सामने माता भी लाचार है। सरकार जो कर दे, उसमें कोई अमैंडमैंट भी वह नहीं करवा सकती। सरकार है कि चाहे जिस पर टैक्स लगा दे और चाहे जिसको उबार दे। इस बार बजट आया तो भगवान के भक्त चारों खाने चित्त ! कमाने-खाने की चिंता में भगवान की भक्ति दिनो-दिन कम होने का क्रम संताप का कारण है।

पहले रेल बजट को ही लें। मान लीजिए यात्री किराया बढ़ गया लेकिन रेल दुर्घटना हुई तो पचास-सौ यात्री जान से हाथ धो बैठे। मरने वालों के परिजनों की कारुणिक पुकार के सामने ईश्वर किंकर्तव्यविमूढ़ ! समझ में नहीं आता किसकी सहायता की जाए और किसकी नहीं ? क्योंकि भगवान की भक्ति आजकल दुख में ही होने लगी है। जब तक सब पटरी पर हैं, कोई उसे याद भी नहीं करता।

बढ़ा हुआ रेल किराया देते समय - 'हे भगवान यह तूने क्या कर दिया !' करे सरकार और भरे भगवान ! माल ढोने वाली गाड़ियों का भाड़ा बढ़ते ही हर चीज महंगी। महंगाई में आम आदमी या तो भगवान को कोसेगा या रोजमर्रा के लफड़े में पड़कर भगवान को भूल जाएगा।

ND
अब आइए आम बजट पर। आम बजट हमेशा गरीबी और अमीरी की खाई को चौड़ा करता है। खाद्य सामग्री महंगी, सुख-सुविधाएं महंगी, आयकर की रेंज न बढ़ाकर ऊपर से टैक्स का प्रतिशत और बढ़ा देना, दोनों ही घनघोर त्रासद। अमीर इस हालात में ज्यादा मुनाफाखोरी करता है और गरीब उपभोक्ता की शामत।

भगवान फिर 'त्रिशंकु' होकर रह गए। दो चीजें हो रही हैं - आदमी भगवान को भूल रहा है, मंदिरों में भक्तों (दुखीजनों) की भीड़ बढ़ रही है। भगवान आखिर किस-किस की सुने। पहले साधु-संन्यासी होते थे, निर्जन जंगलों में जाकर भगवान के लिए भक्ति करते थे और दिव्य शक्तियां प्राप्त कर अपना जीवन बाद में जनसेवा में लगा देते थे। अब तो जंगल रहे ही कहां ? जंगलों में सरकारों ने आवासीय कॉलोनियां काट दी हैं। प्रॉपर्टी व्यवसाय में वारे-न्यारे हो रहे हैं। भगवान की साधना का पैमाना एकदम नीचे आ गया।

आदमी की सांस बजट आने के एक सप्ताह पहले ही फूलने लगती है। पता नहीं बजट का और उसकी आय का तालमेल बैठेगा या नहीं। आयकर की रेंज बढ़ा भी दी गई तो दूसरे मदों पर करों के का़ेडे लगाकर सारी वसूली कर ली जाती है। वास्तविकता का धरातल बहुत कठोर है। तो यह वजह भी भगवान को सताने वाली हुई न ? गरीब को और बीपीएल को दाल-रोटी ही नहीं तो आदमी बिलबिलाएगा, न कि भक्ति-उपासना करेगा।

दाऊजी श्री कृष्ण को अब यों चिढ़ाते हैं - 'ठीक रहा न भैया, मैं तो अब तुम्हें नहीं सता रहा। सताने वाली तो यह सरकार है, जो तुम्हारे भक्तों को दुखी करके तुमसे दूर कर रही है ! अब बोलो अम्मा से कि अम्मा इस कठोर बजट ने तुम्हें बहुत सताया है। दूध-घी की नदियां बहने वाले भारतवर्ष में शराब की नदियां भर गई हैं, क्योंकि उससे तो राजस्व ज्यादा मिल रहा है !'

भगवान दाऊ की इन बातों का जवाब नहीं खोज पाते और आजकल दुखी रहते हैं। मैया बेचारी बुढ़ापे में करे भी तो क्या ? वह भगवान से बचती फिरती है। वह यही तो कह पाती है कि यह बजट की माया मेरी समझ से परे है। एक हाथ से दिया और दूसरे हाथ से लिया। भगवान से बड़ी हो गई सरकार! भगवान को मक्खन के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। अब तो इस रट के अलावा उनके पास और रह भी क्या गया है कि - 'मैया मोहे 'बजटऊ' बहुत सतायो'।