शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
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Written By Author जयदीप कर्णिक

मीडिया खुद को भी तो कटघरे में खड़ा करे!!

मीडिया खुद को भी तो कटघरे में खड़ा करे!! -
देश के तमाम नामी-गिरामी टीवी चैनल, अखबार, वेबसाइट, तथाकथित मनोचिकित्सक और सामाजिक विचारक सदमे की स्थिति में हैं। वो अपना मुँह पलटकर अपने ही घाव को चाट रहे हैं, सहला रहे हैं। जब उनको समझ में आया कि ये घाव आसानी से भरने वाला नहीं है, तो बीच-बीच में छप्पर रखने के लिए नया सिर ढूँढ़ रहे हैं। बहु‍चर्चित आरुषि-हेमराज हत्याकांड में कल के सीबीआई के खुलासे के बाद मीडिया के पास बगलें झाँकने के अलावा चारा भी क्या है? पर बेहतर होगा कि पुलिस, सीबीआई, तलवार परिवार या किसी अन्य को अपनी गलती की सजा देने के बजाय मीडिया स्वयं को कटघरे में खड़ा करे और आत्मचिंतन करे।

BBC
टीआरपी के खेल में, सबसे अलग और सबसे तेज होने के चक्कर में मीडिया अपनी संवेदनाएँ और मूल उद्‍देश्य बहुत पीछे छोड़ आया है। खबर जैसी है उसे वैसा का वैसा प्रस्तुत कर देना तो मानो अपराध है। जब तक उसमें थोड़ा रोमांच, थोड़ी नाटकीयता, थोड़ा मिर्च-मसाला और उससे बढ़कर 'अपना पक्ष' न जोड़ लिया जाए तब तक खबर को पूरा माना ही नहीं जाता। यह जो होड़ मीडिया में मची हुई है, उसके दुष्‍परिणाम बहुत गंभीर होंगे।

आरुषि हत्याकांड में तलवार परिवार का मान-मर्दन तो इसका बस एक उदाहरण मात्र है। मीडिया ने पिछले 50 दिनों में क्या-क्या नौटंकी नहीं की। टीवी पत्रकार को काले हैट में जासूस बनाकर पेश करने से लेकर नार्को टेस्ट को नाटकीय अंदाज में पेश करने तक सब कुछ किया गया। सच्ची घटनाओं पर उपन्यास भी लिखे जाते हैं, फिल्में भी बनती हैं और धारावाहिक भी बनते हैं, लेकिन ये काम उन्हीं पर छोड़ दें तो बेहतर होगा। ये काम समाचार चैनलों का तो निश्चित तौर पर नहीं है।

डेढ़ महीने से भी अधिक समय तक जितना मूल्यवान समय और स्थान देकर, देश-विदेश की समाचारों से जुड़ी तमाम प्राथमिकताओं को ताक पर रखकर इस पूरे घटनाक्रम को पेश किया गया, क्या उसे जायज ठहराया जा सकता है? थोड़ा धैर्य से काम लेकर केवल तथ्यों को जस का तस प्रस्तुत कर देना क्या मीडिया का प्राथमिक दायित्व नहीं है? अब भी अपनी गलती मान लेने के बजाय सारे मीडिया वाले पहुँच गए साँई मंदिर डॉ. राजेश तलवार का साक्षात्कार लेने!! हद होती है किसी चीज की। क्या हम मीडिया वाले इनसान नहीं हैं?

अपना सब कुछ बेचकर भी देश का सारा मीडिया न तो डॉ. राजेश तलवार और नूपुर तलवार की खोई हुई इज्जत को वापस ला सकता है और न ही आरुषि और हेमराज को। फिर किस अधिकार से आपने उन पर कीचड़ उछाला। अब आप कह रहे हैं कि सारी गलती पुलिस की है। जो पुलिस ने बताया, उसी को 'आधार' बनाकर हमने 'खबरें' प्रस्तुत की।

बात इतनी सीधी होती तब भी ठीक था। मीडिया ने इस आधार पर खबरें नहीं, बल्कि कहानियाँ गढ़कर प्रस्तुत की और उन्हें खूब बेचा। जो पैसा मीडिया ने इन कहानियों को बेचकर बनाया, क्या वो सारा पैसा वो आज तलवार दंपति को या 'आरुषि चेरिटेबल ट्रस्ट' बनाकर उसे देने को तैयार है?

इस पूरे मामले पर वरिष्ठ सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी सुश्री किरण बेदी का बयान बहुत सटीक है। उन्होंने कहा कि 'जरूरी नहीं है कि हर मामले में कातिल पकड़ा ही जाए। आप सबूत ढूँढ़ सकते हैं, लेकिन उन्हें गढ़ नहीं सकते। मीडिया को जवाब दो तो वो उसे कहानी बना लेता है, न दो तो भी कयास लगाए जाते हैं और पुलिस पर जानकारी देने का दबाव बनाया जाता है। पुलिस को भी चाहिए था कि वो ऐसे किसी दबाव में न आकर अपना काम करती और तथ्यों को जाँच लेने के बाद ही मीडिया तक पहुँचाती।'

तथ्य तो अब यह भी है कि डॉ. राजेश तलवार अभी केवल जेल से रिहा हुए हैं और सीबीआई की जाँच में वो दोषी नहीं पाए गए हैं। ये सब अभी कोर्ट में साबित होना बाकी है। इसलिए इस न्याय प्रक्रिया के पूरा होने का इंतजार करना चाहिए और मीडिया को चाहिए कि वो अलग से अपना ट्रायल न चलाए। आरोप लगा देना तो आसान है, लेकिन तथ्य के आधार पर वो सही नहीं है तो क्या? एक बाप को अपनी बेटी का कातिल बताया गया। एक 14 साल की बच्ची जो अपना पक्ष रखने के लिए इस दुनिया में नहीं है, उसका चरित्र हनन किया गया। तलवार दंपति के अवैध संबंधों की बात की गई। कई मौकों पर ऐसा करने में मीडिया ने अपनी मर्यादा लाँघी। उसे इसका अफसोस होना चाहिए और उसे स्वयं को कटघरे में खड़ा कर आत्मचिंतन करना चाहिए।

मुझे पता है कि जवाब में मीडिया के पास कुछ उदाहरण हैं गिनाने को, जिसमें मीडिया के दबाव के कारण अपराधी को सजा तक पहुँचाने में मदद मिली है। इसमें सबसे ताजा और प्रमुखता से गिनाया जाने वाला उदाहरण जेसिका लाल हत्याकांड का है। इसके विस्तार में जाए बगैर ही कहा जा सकता है कि दोनों उदाहरणों में बहुत अंतर है। फिर आपकी एक अच्छाई आपको दस बुराइयाँ करने की छूट नहीं दे सकती। अपनी ओर से किसी का चरित्र हनन करने और फिर 50 दिनों बाद जेल से छूटने पर उसकी मन:स्थिति समझे बगैर बड़ी बेशर्मी से उससे पूछने कि 'अब आप कैसा महसूस कर रहे हैं?' की इजाजत किसी को नहीं दी जानी चाहिए।