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Written By ND

खोटी चवन्नियों के पीछे अंधी दौड़

खोटी चवन्नियों के पीछे अंधी दौड़ -
- उमेश त्रिवेदी

मौजूदा दौर में, जबकि मीडिया के अधिकांश बंदे पागलों की तरह खोटी चवन्नियों के पीछे भाग रहे हैं, उन खबरनवीसों के लिए मुश्किलें बढ़ रही हैं, जो समाज के लिए खरे सिक्कों जैसी खबरें तलाश रहे हैं अथवा लोगों में यह सोच बनाए रखने के लिए काम कर रहे हैं कि व्यवस्था में ऐसे दीपक भी टिमटिमा रहे हैं, जो अँधेरे को रोशन करने में समर्थ हैं।

हालाँकि खबरों के बाजार में खोटी चवन्नियों की अंधी दौड़ ने हालात इतने मुश्किल बना दिए हैं कि किसी एक या कतिपय मीडियाकर्मियों के लिए सड़क के किनारे खड़ा रह पाना भी मुश्किल है। फिर भी यह जज्बा जगह बना रहा है कि मीडिया की इस अपरिहार्य बुराई को हर हाल में पीछे ढकेलना होगा। एक कहावत है कि खोटी मुद्रा खरी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। यह बात समाजशास्त्र के साथ-साथ अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी लागू होती है।

कमोबेश मीडिया-बाजार में भी अब यही सब घट रहा है। नए चलन में अच्छी और सच्ची खबरें खोटी खबरों से पीछे छूटती जा रही हैं। उन पर ध्यान देना या मेहनत करना लगभग खत्म हो चला है। मसला सिर्फ सच्ची और सकारात्मक खबरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उन मुद्दों से भी जुड़ा है, जो वैचारिक रूप से समाज को उद्वेलित करते रहते हैं। बंद, दंगे-फसाद, आतंक, विभाजनकारी गतिविधियों जैसे प्रश्नों पर भी मीडिया की भूमिका ने कई मर्तबा शर्मसार स्थितियाँ पैदा की हैं। ये स्थितियाँ अब मीडिया को, स्वयं को कुरेदने लगी हैं। इन्हें अच्छे संकेत माना जाना चाहिए।

पिछले दिनों घटित दो मामले या घटनाक्रम ऐसे सवाल खड़े करते हैं, जिनका जवाब ढूँढने के लिए गंभीर प्रयास जरूरी है। एक, आरुषि हत्याकांड है, जिस पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अतिरंजित खेल इस बात पर वैचारिक बहस आमंत्रित करता है कि जो हुआ, क्या वह ठीक था? दूसरा, अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित जमीन को निरस्त करने के खिलाफ विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और भारतीय जनता पार्टी द्वारा भारत-बंद के आह्वान से जुड़ी घटनाएँ, जो इंदौर में दंगे की आग में तब्दील हो गईं? ये घटनाक्रम ताजा हैं, इसलिए बतौर उदाहरण सामने हैं, वस्तुस्थिति में ऐसी घटनाएँ आए दिन समाज में घटती हैं और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इनको लेकर समाज, व्यक्ति और उनकी भावनाओं से जमकर खिलवाड़ करता रहता है।

आरुषि हत्याकांड में सीबीआई ने आरुषि के पिता डॉक्टर राजेश तलवार को बेकसूर माना। पचास दिन बाद वे कोर्ट से जमानत पर रिहा हुए। उनकी रिहाई हत्याकांड का दूसरा सिरा है, जो अनेक घुमावदार घटनाक्रमों के बाद पहले सिरे तक पहुँचता है। एक परिवार के लिए ये पचास दिन दर्दनाक और यातना भरे थे। डॉ. तलवार का दर्द उनके इस कथन में झलकता है कि 'मैं गहरे दुःख में था।

मेरा परिवार मेरे निर्दोष होने की बात लगातार कहता आ रहा था। शुक्र है कि यह सही साबित हुआ।' डॉ. तलवार की बात को अब वजन दिया जा रहा है, लेकिन मीडिया में यही बात उभरकर सामने नहीं आई। क्यों...? जाहिर है, ये बातें उस सनसनी को कमजोर करती हैं, जिसकी चमकदार पन्नियों में लपेटकर खबरें बेचने का सिलसिला तेज हुआ है। इस परिप्रेक्ष्य में मीडिया को केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्री रेणुका चौधरी का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने डॉ. राजेश तलवार को सिर्फ यही सलाह दी कि उन्हें 'नोएडा' पुलिस के खिलाफ केस करना चाहिए।

न जाने क्यों रेणुका चौधरी ने मीडिया को इसमें भागीदार नहीं माना। रेणुका चौधरी शासकीय तौर पर इस बात पर नाराजी व्यक्त कर चुकी हैं कि पुलिस की जाँच-पड़ताल के तरीकों से आरुषि की चरित्र हत्या हुई थी, जो अन्यायपूर्ण और अमानवीय है?

रेणुका चौधरी की प्रतिक्रियाएँ साफ जाहिर करती हैं कि एक मासूम की हत्या को किस प्रकार खबरों में ढालकर बेचा गया? समूचे हत्याकांड को सनसनीखेज और बिकाऊ बनाने के चक्कर में मीडिया के लोग मानवीय व्यवहार के सामान्य पहलुओं पर गौर करना लगभग भूल गए। आरुषि जैसी मासूम लड़की के बारे में कुछ तो भी सनसनी पैदा करने या भंडाफोड़ करने की ललक में भूल गए कि जो कुछ वे कर रहे हैं, वह उस लड़की के चरित्र को लांछित करता है, जो अब सफाई देने के लिए मौजूद नहीं है। उसके परिवार को भी बदनामी झेलना पड़ेगी, खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

आरुषि संपन्न, प्रतिष्ठित परिवार की बेटी थी। उसके सपने, उसका कामकाज, उसकी सक्रियता, उसकी 'टीन-एज' सहेलियों से भिन्न नहीं थे। वह खूबसूरत थी, स्मार्ट थी और उसकी जिंदगी एक प्रतिष्ठित स्कूल के अन्य बच्चों के समान ही बिंदास खुशहाल थी। उसे अनजाने ही एक त्रासदी का शिकार होना पड़ा और चाहे-अनचाहे वह ऐसी अफवाहों, ऐसी जाँच-पड़ताल की गिरफ्त में आ गई, जिसने उसके चरित्र को जार-जार कर दिया। पुलिस के करतब अपनी जगह हैं, लेकिन मीडिया ने भी इसमें कम उस्तादी नहीं दिखाई।

वह सूचनाओं के छोटे-छोटे टुकड़ों पर बाज की तरह झपट पड़ा, जिनके सिर-पैर दोनों ही नहीं थे। मजबूरी में सीबीआई के डायरेक्टर विजयशंकर को भी मीडिया से अनुरोध करना पड़ा कि वह जाँच-पड़ताल की दिशाओं को अनुमानों या अंदाज के आधार पर नहीं पढ़े और अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करे। कई लोगों का मत है कि आरुषि हत्याकांड में मीडिया, खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता का जीता-जागता नमूना बनकर सामने आया है।

आरुषि हत्याकांड एक अपराध-कथा का सिनेमाई प्रस्तुतीकरण था, जिसने पत्रकारिता के सामान्य नियमों को ताक में रख दिया, लेकिन अपराधों से अलग मसलों पर भी मीडिया की भूमिका कम चिंताजनक नहीं है। हाल ही में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन के मामले में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने की स्थितियाँ बनीं। देश में छुटपुट घटनाओं के बीच मध्यप्रदेश, खासतौर से इंदौर में दंगे भड़क उठे।

दंगे, उन्माद और विखंडन को बढ़ावा देने के लिए बड़े सामान की जरूरत कभी नहीं होती। आग में घी डालना आसान है, बुझाना मुश्किल। समाज में फैली नफरत, आतंक की आग बुझाने या उन्माद को नियंत्रित करने के लिए कलम और सूचनाओं को साधना जरूरी है। घाव करने के लिए कुछ पल चाहिए, लेकिन घाव भरने का काम लंबा वक्त और प्रतिबद्धता माँगता है।

चाहे आरुषि हत्याकांड जैसे अपराध हों या इंदौर जैसे दंगे, मीडिया को संतुलन की लक्ष्मण रेखाएँ कदापि नहीं लाँघना चाहिए। ऐसे मौकों पर खबरों को बिकाऊ बनाने के उपक्रम से बचना चाहिए। शब्दों में व्यक्त तथ्य और विचारों की आग गहरी और मारक होती है। इसीलिए शब्दों की ताकत को पहचानकर ही शब्दों का इस्तेमाल मुनासिब है। मीडियाकर्मी के लिए जरूरी है कि जब बोले, तो जुबान सधी हुई हो और जब लिखे, तब उसकी कलम सधी हुई हो।