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Written By ND

बहु उपयोगी औद्योगिक तिलहन : अंडी

बहु उपयोगी औद्योगिक तिलहन : अंडी -
- मणिशंकर उपाध्याय

तिलहनों में अंडी एक ऐसी फसल है जिसका तेल सामान्य तापमान पर अधिक समय तक रखा रहने पर भी बदबू नहीं देता या खराब नहीं होता या तेल अखाद्य होने से अनेक व्यापारिक उत्पाद जैसे साबुन, छपाई की स्याही (प्रेस की स्याही), नकली मोम, अनेक औषधीय मलहम (ऑइंटमेंट), केश, तेल, सौंदर्य प्रसाधन, कृत्रिम राल आदि के निर्माण में उपयोग में लाया जाता है।

कपड़ा उद्योग में कपड़ों पर विभिन्न किस्म की छपाई के लिए भी अप्रत्यक्ष रूप से इसके तेल को काम में लाया जाता है। निर्जलीय अंडी के तेल का उपयोग रंग और वार्निश निर्माण में किया जाता है। इसके अलावा प्लास्टिक उद्योग में भी इसे काम में लाया जाता है। अंडी का तना सेल्यूलोसयुक्त होता है। इससे पुष्ठा, वॉल पेपर (दीवारों पर लगाने का मोटा कागज), अखबारी कागज आदि बनाए जाते हैं। इसकी फली (बीज) निकालने के बाद तने को ईंधन की तरह भी काम में लाते हैं।

जैविक खाद में उपयोग : बीजों से तेल निकालने के बाद बची हुई खली का उपयोग पशु आहार के रूप में नहीं किया जाता, क्योंकि इसमें एक जहरीला रसायन 'रिसीन' पाया जाता है, जो पशुओं के लिए अत्यंत हानिकारक है। इसका उपयोग जैविक खाद के रूप में किया जाता है। पौध पोषक तत्वों की दृष्टि से इसमें लगभग 5.5 प्रश नत्रजन, 1.8 प्रश स्फुर व 1.0 प्रतिशत पोटाश होता है।

गहरी जाती हैं जड़ें : अंडी की जड़ें सीधी गहरी जाती हैं। पौधे किस्म के अनुसार अधिक समय तक खेत में रहते हैं। इसलिए खेत की गहरी जुताई की जाती है। खेत को दो बार मिट्टी पलटने वाले हल से आड़ी व खड़ी दिशा में जोतें। इसके बाद कल्टीवेटर व पाटा चलाकर ढेले तोड़ें व खेत समतल करें। अंडी यद्यपि प्राकृतिक रूप से बहुवर्षीय फसल है, परंतु इसे एक मौसम (रबी या खरीफ) की फसल के रूप में ही उगाया जाता है। रबी फसल के रूप में इसे सितंबर के दूसरे से अक्टूबर के दूसरे सप्ताह तक बोया जा सकता है। गुजरात में इसे अगस्त से सितंबर में बोया जाता है।

इसकी कम अवधि में पकने वाली किस्मों को 35 से 45 सेमी दूर कतारों में बोया जाता है। देरी से पकने वाली किस्में 60 से 75 सेमी दूर कतारों में बोई जाती हैं। पौधे से पौधे की दूरी अल्पावधि किस्मों में 25-30 तथा दीर्घावधि किस्मों में 35 से 45 सेमी रखना उपयुक्त होगा।

बीज की मात्रा : बीज की मात्रा बीजों के आकार, फसल की किस्म के पकने की अवधि, मिट्टी की किस्म आदि पर निर्भर होती है। जल्दी पकने वाली किस्मों, हल्की मिट्टियों एवं बड़े बीज वाली किस्मों में बीज दर अधिक रखी जाती है, क्योंकि इनमें प्रति इकाई क्षेत्र में पौध संख्या अधिक रखना होती है। इनके विपरीत परिस्थितियों में जहाँ किस्मों को बढ़ने व पकने के लिए अधिक समय मिलता है, पौधों का वानस्पतिक बढ़वार का समय अधिक होने से पौधों का फैलाव अधिक होता है, बीज की मात्रा कम रखी जाती है। बीज की मात्रा उपरोक्त स्थितियों के अनुसार 15 से 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर हो सकती है।

बीज के ऊपर कड़ी परत होने से अंकुरण में अधिक समय लगता है। इसके लिए बोने के पहले बीज को 24 घंटे तक पानी में भिगोकर रखा जाता है। इसके बाद हवा में छाया में सुखाकर बोया जाता है। बोने के पहले बीज को थायरम, कार्बेंडेजिम आदि रासायनिक फफूँदनाशकों की अपेक्षा जैविक फफूँदनाशक ट्राइकोडर्मा विरिडि (प्रोटेक्ट) से पाँच ग्राम प्रति एक किलोग्राम बीज की दर से उपचारित किया जाता है।

अंडी की फसल में किसान भाई सामान्यतः खाद का उपयोग नहीं करते हैं, परंतु अच्छी व अधिक उपज के लिए पर्याप्त मात्रा में पौध पोषण किया जाना आवश्यक है। इसके लिए हल्की मिट्टियों में 50-60 क्विंटल और मध्यम से भारी मिट्टियों में 100 से 120 क्विंटल गोबर खाद या गोबर गैस स्लरी दी जाना चाहिए। इसके अलावा 50 किलोग्राम नत्रजन, 25 किलोग्राम स्फुर, 25 किग्रा पोटाश व 30 किलोग्राम गंधक प्रति हैक्टेयर दिया जाना चाहिए। स्फुर, पोटाश व गंधक की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बोवनी के समय दी जाती है। नत्रजन की बची हुई आधी मात्रा 45 दिन के बाद खड़ी फसल की कतारों के बीच यूरिया द्वारा दी जाना चाहिए।