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Written By ND

आपकी सोयाबीन बीमार तो नहीं?

आपकी सोयाबीन बीमार तो नहीं? -
- मणिशंकर उपाध्याय

मनुष्य व पशुओं के समान फसलों में भी अनेक रोग लगते हैं। ये उपज को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं। कभी-कभी तो फली या दाने बनने की अवस्था से पहले आने वाले रोगों से फसल पूरी तरह नष्ट हो जाती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा अच्छी और सामान्य से अधिक हुई है, वहाँ तापमान में कमी आने तथा वातावरण में नमी 75 प्रतिशत से अधिक होने पर सोयाबीन में गेरुआ लगने की आशंका बढ़ जाती है।

इस रोग में पत्तियों पर लाल रंग के धब्बों के झुंड बनने लगते हैं। ये पत्तियों की निचली सतह पर पहले बनते हैं, इसके बाद ऊपर की सतह पर उभरते हैं। इनके आसपास का क्षेत्र पीला हो जाता है। कुछ समय बाद इनका रंग भूरा व बाद में काला हो जाता है। पत्तियाँ पीली पड़कर सूख जाती हैं।

कृषि विभाग एवं सोपा द्वारा सुझाए गए नियंत्रण उपाय ये हैं :
रबी या गर्मी में सोयाबीन न उगाएँ। पिछली फसल के सोयाबीन के ग्रीष्म में अपने आप उगने वाले पौधों को निकालकर नष्ट करें। जिन खेतों में रोग हर साल होता हो वहाँ फसल चक्र में मक्का, जुवार, कपास आदि लगाएँ। यह रोग सहने वाली किस्में पीके 1024, पीके 1029, जेएस 80-21, अंकुर इंदिरा सोयाबीन-9 हैं। रोग लगने पर 800 मिली प्रति हैक्टेयर हेक्साकोनाझोल या प्रोपीकोनाझोल या आक्सी कार्बोक्सीन को 500 से 600 ली. पानी में मिलाकर छिड़कें। रोग नियंत्रित न होने पर दवाई बदल-बदल कर 15 दिन के अंतर पर छिड़कें।

एक बीमारी है, माइरोथिसीयम पत्ती धब्बा। इस रोग में पत्तियों पर छोटे गोल, हल्के से गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। इनके आसपास कत्थई रंग का घेरा बन जाता है। धीरे-धीरे ये धब्बे आपस में मिलकर बड़ा धब्बा बन जाते हैं और बीच का भाग पहले सफेद बाद में काला होकर खिर जाता है।

इसकी रोकथाम रोग रोधी किस्में बोकर की जा सकती है। इसके लिए सहनशील किस्में जेएस 71-05, जेएस 335, जेएस 99-05, मेक्स 124, एमएयूएस-47 बोने सिफारिश की गई है। इनके बाद भी रोग लग ही जाए तो 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डेजिम या थायोफिनेट मिथाइल या मेन्कोजेब-75 डब्ल्यूपी (0.25 प्रश) का छिड़काव 20-25 दिन के अंतर से दवा बदलकर करें।

एक और बीमारी बैक्टीरियल पश्चूल होती है। इसमें भी आलपिन के बराबर गोल हल्के हरे धब्बे पत्तियों की ऊपरी सतह पर उभर आते हैं। इस रोग के लिए सहनशील सोयाबीन किस्में पीके 564, एनआरसी 37 बोने की सिफारिश की गई है। रोग के लक्षण पहचान में आने पर 0.02 प्रतिशत कॉपर ऑक्सीक्लोराइट के साथ 0.02 प्रतिशत स्ट्रप्टोसाइक्लिन मिलाकर छिड़कें।

सोयाबीन का पीला मोजेक रोग मूँग की फसल से इस पर आता है। यह रोग सफेद मक्खी द्वारा उसी तरह फैलाया जाता है जैसा मनुष्यों में मच्छर द्वारा मलेरिया। इस रोग में पौधे की पत्तियों पर पीला रंग उनकी सतह पर या शिराओं (नसों) पर आकर पत्तियाँ हरी, पीली चितकबरी हो जाती हैं। रोग की तीव्र अवस्था में पत्तियाँ सूख जाती हैं। झुलसी हुई सी दिखाई देती हैं। इसी से मिलता-जुलता हरा मोजेक रोग माहू द्वारा फैलता है।

इसमें पत्तियाँ चितकबरी होकर सिकुड़ जाती हैं। पौधे की बढ़वार रुक जाती है। पत्तियों की नसें भूरे रंग की होकर पौधों में बीज कम, छोटे व सिकुड़े हुए बनते हैं। उपज कम होने के साथ गुणवत्ता भी नहीं रहती है। इस रोग के लिए सहनशील किस्में पीके 262, जेएस 71-05, पंजाब-1, पीके 472 आदि बोना समर्थित किया गया है। मोजेक रोगों से बचाव के लिए सफेद मक्खी व माहू के प्रकोप को रोकें।

सभी प्रकार के रोगों से ऐसे बचें
* गर्मी के मौसम में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें।
* लगातार सोयाबीन बोने के बजाए फसल क्रम अपनाएँ, जिसमें जुवार, मक्का, कपास, आदि भी लगाएँ।
* खेतों में पानी न भरने दें। जल निकास व मिट्टी में वायु संचरण बनाए रखें।
* खेतों में जीवांश व गोबर खाद प्रयोग करें।
* फसल को बहुत घनी न बोएँ। हर पौधे तक धूप व पर्याप्त हवा पहुँच सके इतनी दूरी रखें।