प्रभाष जोशी : पत्रकारिता के शिखर पुरुष
निर्भीक पत्रकारिता के विनम्र हस्ताक्षर
बेबाक लेखनी और बेलाग टिप्पणी जिनकी पहचान थी। जो निर्भीक पत्रकारिता के विनम्र हस्ताक्षर थे। हर बात में चुटकियाँ और मुहावरे जिनकी वाणी से सहज ही झरते थे। आज वो प्रभाष जी नहीं रहे। प्रभाष जोशी का जाना हमें शून्य कर देता है, क्योंकि आज समूची भारतीय पत्रकारिता में वे ऐसा शून्य परोस गए हैं जिसमें कोई नाम, कोई शब्द, किसी शख्सियत को नहीं रखा जा सकता। उनके आत्मीय ठहाकों में एक मर्यादित ठसक होती थी। वे जब बोलते थे तो ध्यान से सुनना पड़ता था। कब, कहाँ, कौन-सी ऐसी चुटीली क्षणिका कह बैठेंगे जो बरबस ही खिलखिलाने को बाध्य कर देगी, कोई नहीं जानता। उनका सौम्य स्वभाव कई बार सोचने को बाध्य कर देता कि 'जनसत्ता' के तीखे संपादकीय लिखने वाले यही प्रभाषजी है? राजनीति, धर्म, खेल, समाज, खोजी पत्रकारिता, सिनेमा, ग्राम्य जीवन, अर्थव्यवस्था, भ्रष्टाचार, अपराध में से कौन सा ऐसा विषय होगा जिसे उनकी चमत्कारिक लेखनी ने स्पर्श नहीं किया। बिलकुल सरल, सहज और सुबोध भाषा-शैली में पत्रकारिता का नया आयाम रचने वाले प्रभाषजी का स्थान आमजन के दिलों में है। अभिमान से कोसों दूर, राष्ट्रीयता के प्रबल समर्थक और साहस के साथ अपनी बात को रखने का विलक्षण अंदाज। कितनी ही उपमाएँ, उनको, उनकी लेखनी और उनकी पत्रकारिता को सहजता से दी जा सकती है।अचानक उनसे जुड़ी ऐसी खबर हम तक दस्तक देगी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। 'मसि कागद', 'कागद कारे' और 'हिन्दू होने का धर्म' उनकी रचना-संसार के अहम पड़ाव हैं जिनमें उनका व्यक्तित्व और कृतित्व निखर कर सामने आया है। उनकी कलकल- छलछल बहती वेगमयी लेखनी में कितने ही नवागत पत्रकारों ने स्नान कर पुण्य लाभ लिया। इंदौर की सरजमीं पर अंकुरित-पुष्पित-पल्लवित हुए इस पौधे ने समूची भारतीय पत्रकारिता को शीतल छाँव दीं है। आज जब पत्रकारिता में राजनीति की तीखी धूप पैर पसार रही है तो वह ठंडी मीठी छाँव हमसे दूर हो गई, जो हमारी अपनी थी। कितना मुश्किल है इस बात पर विश्वास करना कि मौन रहना जिनका स्वभाव नहीं था ऐसे प्रभाष जी 5 नवंबर 2009 को रात्रि 11.30 पर मौन हो गए। शब्दों के फूल अर्पित करते हुए हिन्दी पत्रकारिता आज मौन है।