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Written By भाषा

एकता के प्रतीक थे अशफाक उल्ला

22 अक्टूबर को जन्मदिवस पर विशेष

एकता के प्रतीक थे अशफाक उल्ला -
भारत माँ को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए हँसते-हँसते फाँसी का फंदा चूमकर प्राणों का उत्सर्ग करने वाले क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खान हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक थे। अंग्रेजों की कोई भी चाल आजादी की तरफ बढ़ते उनके कदमों को रोक नहीं पाई।

इतिहासकार मालती मलिक के अनुसार काकोरी कांड के बाद जब अशफाक को गिरफ्तार कर लिया गया, तो अंग्रेजों ने उन्हें सरकारी गवाह बनाने के लिए कई तरह की चालें चलीं। उन्होंने आजादी के इस दीवाने को विचलित करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के तमाम रास्ते अपनाए, लेकिन अशफाक के इरादे अटल रहे।

अंग्रेज अधिकारियों ने उनसे यह तक कहा कि हिन्दुस्तान आजाद हो भी गया तो उस पर हिन्दुओं का राज होगा और मुसलमानों को कुछ नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफाक ने अंग्रेज अफसर से कहा फूट डालकर शासन करने की चाल का उन पर कोई असर नहीं होगा और हिन्दुस्तान आजाद होकर रहेगा।

अशफाक ने अंग्रेज अधिकारी से कहा तुम लोग हिन्दू-मुसलमानों में फूट डालकर आजादी की लड़ाई को अब बिलकुल नहीं दबा सकते। अपने दोस्तों के खिलाफ मैं सरकारी गवाह कभी नहीं बनूँगा।

अशफाक उल्ला खान का जन्म उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर में 22 अक्टूबर 1900 को हुआ था। अपने छह भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे। उन पर महात्मा गाँधी का काफी प्रभाव था, लेकिन जब गाँधीजी ने चौरीचौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो वे प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल से जा मिले।

रामप्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की आठ अगस्त 1925 को शाहजहाँपुर में एक बैठक हुई और हथियारों के लिए रकम हासिल करने के लिए उन्होंने सरकारी ट्रेन में ले जाए जाने वाले खजाने को लूटने की योजना बनाई।

जिस खजाने को क्रांतिकारी हासिल करना चाहते थे, दरअसल वह अंग्रेजों ने भारतीयों से ही लूटा था। नौ अगस्त 1925 को रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी, ठाकुर रोशनसिंह, सचिंद्र बख्शी, केशव चक्रवर्ती, बनवारीलाल, मुकुंदलाल और मन्मथलाल गुप्त ने लखनऊ के नजदीक काकोरी में सरकारी ट्रेन में ले जाए जा रहे खजाने को लूट लिया।

इस घटना से अंग्रेज सरकार तिलमिला उठी। क्रांतिकारियों की तलाश में जगह-जगह छापे मारे जाने लगे। एक-एक कर काकोरी की घटना में शामिल सभी क्रांतिकारी पकड़े गए, लेकिन चंद्रशेखर आजाद और अशफाक उल्ला खान अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।

अशफाक शाहजहाँपुर छोड़कर बनारस चले गए और वहाँ उन्होंने एक इंजीनियरिंग कंपनी में 10 महीने तक काम किया। इसके बाद अशफाक ने इंजीनियरिंग के लिए विदेश जाने की योजना बनाई, ताकि स्वाधीनता संग्राम को जारी रखने के लिए अपने साथियों की बाहर से मदद करते रहें।

इतिहासकार मालती मलिक ने बताया कि विदेश जाने के लिए वे दिल्ली आकर एक पठान मित्र के संपर्क में आए, लेकिन इस पठान ने अंग्रेजों द्वारा घोषित इनाम के लालच में आकर इसकी सूचना पुलिस को दे दी और वह पकड़े गए।

अशफाक को फैजाबाद जेल में रखा गया और उन पर मुकदमा चलाया गया। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यह मुकदमा काकोरी डकैती कांड के रूप में दर्ज हुआ।

अशफाक के वकील भाई रियासत उल्ला ने उनका मुकदमा बड़े तार्किक ढंग से लड़ा, लेकिन अंग्रेज उन्हें फाँसी पर चढ़ाने पर आमादा थे। आखिर में अंग्रेज जज ने डकैती जैसे मामले में अशफाक को फाँसी की सजा सुना दी।

डकैती के मामले में फाँसी की सजा दिए जाने पर उस समय के कानूनविदों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की, लेकिन अंग्रेजों ने किसी की नहीं मानी।

19 दिसंबर 1927 को उन्हें फाँसी दे दी गई। अशफाक ने हँसते हुए फाँसी का फंदा चूमा और अपने अंतिम संदेश में कहा 'देश के लिए फाँसी पर चढ़ने में मुझे बेहद गर्व है। अंग्रेजों का सूरज जरूर डूबेगा और हिन्दुस्तान आजाद होकर रहेगा'। काकोरी कांड के सिलसिले में ही 19 दिसंबर 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल को भी फाँसी दे दी गई।