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घर की नेमप्लेट पर चमकता औरत की आज़ादी का नया सूरज

women empowerment
- स्वाति शैवाल 
 
अगर अब तक आपने मामूली बात समझकर घर के बाहर लगी नेमप्लेट पर गौर न किया हो तो अब करने लगिए। क्या आपको इसमें कोई नई बात दिखाई दे रही है? स्त्री की क्षमताओं और आर्थिक-सामाजिक आत्मनिर्भरता की क्रांति का एक बिगुल यहाँ भी बजने लगा है। सबसे ख़ास बात यह है कि इस बदलाव में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका उसके सहयोगी पुरुषों की भी है। जहाँ पहले सिर्फ घर के पुरुषों के नाम हुआ करते थे, अब घर की महिलाओं के नाम भी नेमप्लेट पर चमकने लगे हैं। राज्य सरकारें भी इसके लिए बकायदा अभियान चला रही हैं। पढ़िए इस बदलाव की एक रिपोर्ट।  
 
बड़े शहर हों या छोटे, कस्बे हों या गाँव, घरों के बाहर लगी नेमप्लेट एक आम चीज है। नेमप्लेट खासतौर पर किसी घर में रहने वाले का नन्हा सा इंट्रोडक्शन होती है। चिट्ठियों से लेकर ऑनलाइन डिलीवरी तक इस नेमप्लेट को देखकर सही जगह पहुंचने की तसल्ली कर लेती हैं लेकिन क्या इस नेमप्लेट का मतलब इसके आगे भी है? बिलकुल है और बहुत गहरा है। पिछले मात्र 5-6 सालों में इस नेमप्लेट में एक बहुत महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन आया है। इसे आप सामाजिक और आर्थिक विकास से भी जोड़ सकते हैं और स्त्री स्वातंत्र्य से भी।  
 
कई राज्यों में चल रहे हैं अभियान 
पिछले 3-4 सालों में कई राज्यों में अलग अलग योजनाओं के अंतर्गत एक अभियान चलाया गया है। जैसे कि पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड) में घौर की पछ्याण, नौनी कु नौ (घर की पहचान, बेटी का नाम), सासेवाड़ी गांव, पुणे (महाराष्ट्र) जिला परिषद का मिशन गृहस्वामिनी, उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर, हरियाणा नूह और पंजाब के होशियारपुर आदि में चलाया गया विशेष अभियान। इन सभी में घर के बाहर बेटी या घर की अन्य महिला के नाम की नेमप्लेट लगाने के लिए लोगों को प्रेरित किया गया। यह अभियान महिला व बाल विकास विभाग द्वारा शुरू किया गया और  सबसे ख़ास बात यह कि पिछड़े माने और समझे जाने वाले गाँवों में सैकड़ों-लोगों ने इसे ख़ुशी ख़ुशी अपना लिया। इसके लिए निशुल्क नेमप्लेट भी बांटी गईं। इस अभियान का मकसद लोगों के मन में इस विचार को जगाने का था कि घर की महत्वपूर्ण कड़ी यानी घर की महिला, बेटियों से भी घर की पहचान है और इस पहचान को समाज में पूरा सम्मान मिलना चाहिए।  
 
इस तरह के अभियान समाज में महिलाओं की स्थिति को मजबूत बनाते हैं 
संयुक्त संचालक, महिला व बाल विकास विभाग, इंदौर संभाग डॉ. संध्या व्यास के अनुसार- मध्यप्रदेश में वर्तमान में महिलाओं व बालिकाओं से जुडी कई योजनाओं का क्रियान्वयन जारी है। हालाँकि नेमप्लेट को लेकर कोई तय अभियान फिलहाल नहीं चलाया जा रहा है लेकिन निश्चित ही यह एक महत्वपूर्ण अभियान साबित हो सकता है। सम्भव हुआ तो यहां भी इसके बारे में विचार किया जा सकता है। इससे परिवार के साथ साथ समाज में भी महिलाओं की स्थिति को मजबूत बनाने में मदद मिल सकती है।  
 
अपने घर से किसी भी काम से निकलते हुए रास्ते में दिखाई देने वाले 80 प्रतिशत घरों में मैंने पुरुषों के नाम या परिवार के सरनेम की ही नेमप्लेट देखी है। इसी रास्ते में एक सामान्य लेकिन साफ़ सुथरे से मकान पर अक्सर मेरी नजर बरबस पड़ती है। यह कोई आलीशान घर नहीं लेकिन इसकी नेमप्लेट को देखते ही मेरे मन में अच्छी सी फीलिंग आने लगती है। बारिश के तीन दिनों बाद निकली धूप में  सूरज की कुछ किरणें उस नेमप्लेट पर पड़कर उसे और चमकदार बना रही होती हैं। यह घर है श्रीमती व श्री करंदीकर का।

पेशे से बैंकर वंदना करंदीकर का नाम इस नेमप्लेट पर ऊपर लिखा है और नीचे छोटे अक्षरों में उनके साइंटिस्ट पति का नाम है। वंदना बताती हैं, जब मेरे पति यह नेमप्लेट बनवाकर लाये थे तो मैं भी कुछ क्षण के लिए संकोच में पड़ गई थी क्योंकि मैंने अपने आस पास अधिकांश घरों में घर के पुरुषों की या परिवार के सरनेम वाली नेमप्लेट ही देखी थी लेकिन मेरे पति ने एकदम सामान्य लहजे में मुझे कहा, इसमें संकोच जैसा क्या है? घर को बनाये रखने में तुम्हारा योगदान कम है क्या! 
 
ख़ुशी की बात यह है कि इस तरह का समर्थन और पहचान पाने वाली वंदना अकेली नहीं हैं। पतियों द्वारा घर की नेमप्लेट पर पत्नी का नाम लिखवाने का चलन तो बढ़ा ही है, अब करियर के रास्ते पर आगे बढ़ती नौकरीशुदा युवतियां भी अपनी कमाई से खरीदे घर के बाहर अकेले अपने नाम की नेमप्लेट लगवा रही हैं। पिछले कुछ सालों में ही कॉलोनी में नए बन रहे घरों में अब पति-पत्नी दोनों के नाम की नेमप्लेट दिखाई देने लगी है। 
 
50-80 प्रतिशत तक बढ़ा है महिलाओं का इन्वॉल्वमेंट 
मुंबई में 2011 से नेमप्लेट मेकिंग का काम कर रहे निमिष अडानी ने 2-3 साल पहले ही अपनी एक और ब्रांच 'हाउसनामा' से नेमप्लेट के मार्केट में ख़ास पहचान प्राप्त की है।  वे कहते हैं- हमारा काम पैन इण्डिया है। बल्कि विदेशों से भी हमें कई ऑर्डर मिलते हैं जो गिफ्ट के तौर पर खूबसूरत सी नेमप्लेट बनवाकर किसी को देना चाहते हैं। नेमप्लेट केवल घर की नहीं बल्कि पूरे परिवार के विचारों की प्रतिनिधि होती है। देखने में भले ही यह आपको सामान्य सी चीज लगे लेकिन असल में यह एक बहुत महत्वपूर्ण सिम्बॉल है पहचान का। हमारे पास पहले भी कभी कभार एक-आध जोड़ा ऐसा आता था जो पति-पत्नी दोनों के नाम से नेमप्लेट बनवाना चाहता था लेकिन अब यह प्रतिशत काफी बढ़ गया है। मैं कह सकता हूँ कि आज से 5-6 साल पहले अगर 10 प्रतिशत लोग ऐसे आते थे तो अब यह प्रतिशत 50-80 का हो चुका है और इसमें कई कम उम्र लड़कियां भी होती हैं जो अपने घर के लिए नेमप्लेट पसंद करने आती हैं।  
 
महिलाओं का नाम रखवाते हैं पहले 
इंदौर में पिछले 30 सालों से नेमप्लेट बनाने का काम कर रहे कृष्णा पाटीदार भी मानते हैं कि पिछले 5 सालों में नेमप्लेट को लेकर महिलाओं की भागीदारी में बहुत बढ़ी है। खासकर युवा जोड़े अपने घर के लिए पति-पत्नी दोनों के नाम की नेमप्लेट बनवाते हैं और करीब 60 प्रतिशत मामलों में महिला का नाम पहले रखा जाता है। कई युवतियां तो बकायदा डिजाइन करके अपने लिए नेमप्लेट बनवाती हैं। 
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आर्थिक आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास  
नेमप्लेट बनवाने के इस परिवर्तन के साथ ही बीते करीब एक दशक में अपने नाम पर लोन लेकर घर खरीदने और बनवाने वाली महिलाओं और युवतियों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। एक निजी बैंक में अधिकारी, मंथन पानसे के मुताबिक- आर्थिक आत्मनिर्भरता एक ऐसी मजबूत कड़ी है जो महिलाओं को मेन स्ट्रीम से जोड़ने में बहुत बड़ा योगदान देती है। इससे उनके आत्मसम्मान और आत्मविश्वास में भी बढोत्तरी होती है। मेरे देखते देखते ही ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत बढ़ी है जो पूरे आत्मविश्वास से फायनेंस और लोन संबंधी जानकारी लेने खुद बैंक आती हैं और सारी औपचारिकताएं पूरी करके लोन लेती हैं। एक अच्छी बात यह भी है कि स्वावलम्बी महिलाएं लोन चुकाने के मामले में भी आगे रहती हैं। और अपने खरीदे घर पर अगर वे अपने नाम की नेमप्लेट लगाती हैं तो यह सकारात्मक बदलाव ही है। 
कानूनन हक है तो नाम क्यों न मिले?
हाईकोर्ट एडवोकेट सीमा शर्मा के अनुसार- पैतृक सम्पत्ति में घर की महिलाओं को कानून अधिकार देता है लेकिन अब भी हमारे देश में लोगों की यह सोच है कि लड़की की शादी में जब खर्च कर दिया तो फिर अलग से उसे घर में हिस्सा देने की क्या जरूरत? घर के बाहर नेमप्लेट पर लड़की या पत्नी का नाम न लिखवाने के पीछे भी असल में पितृसत्तात्मक रवैया ही काम करता है। पुरुषों को शुरू से समाज ने यही सिखाया है कि महिला उसपर निर्भर है। यही कारण है कि नेमप्लेट पर नाम लिखवाते समय उसे गिना ही नहीं जाता लेकिन अब स्थिति बदल रही है। यहाँ तक कि अब कानूनी तौर पर भी अब तो हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में संशोधन करते हुए लड़के व लड़कियों को बराबरी का अधिकार प्रदान कर दिया गया है। 
 
समाज महिलाओं को समान अधिकार देने और उसे स्वीकारने के मामले में भले ही धीमी गति से आगे बढ़ रहा हो लेकिन छोटी छोटी लड़ाइयां जीत रही औरतें तेजी से अपने लिए जगह बना रही हैं। घर के बाहर दीवार या दरवाजे पर लगी नेमप्लेट इसका बहुत मजबूत उदाहरण है। 
 
प्राउड फीलिंग है यह 
'अपने घर का सपना तो सभी देखते हैं। हालांकि अभी मेरा कॉलेज का पहला ही साल है लेकिन मेरा भी सपना है कि एक छोटा सा घर होगा और उसके दरवाजे पर जब मेरे नाम की नेमप्लेट लगेगी तो बहुत प्राउड फील होगा।' कहती हैं, स्नातक स्तर की छात्रा मैत्री अग्रवाल।  
 
इंदौर से 2 घंटे की दूरी पर बसे धार से शहर में पढ़ने आई वेदिका वर्मा और रतलाम की अंशिका चौहान भी अपने नाम की नेमप्लेट को गुड फीलिंग से जोड़ती हैं। इन युवतियों का मानना है कि अपनी मेहनत की कमाई से खरीदा गया घर केवल असैट नहीं होता, इसके साथ खुद की पहचान जुडी होती है। ये एक ऐसा अचीवमेंट है जो आपको हमेशा आसमान छूने वाली फीलिंग देता है। अपने नाम की नेमप्लेट भी इसी अचीवमेंट का हिस्सा है. 
 
अभी कुछ दिनों पहले ही सीमेंट के एक बड़े और प्रतिष्ठित ब्रांड ने भी अपने एक विज्ञापन के जरिये नेमप्लेट पर घर की महिला के नाम को अंकित करने की पहल की है। उम्मीद करें कि  भारतीय समाज में भी आ रही बदलाव की यह चमक हर आम महिला के चेहरे पर भी उसकी पहचान बनकर रौशन होगी। 
(यह रिपोर्ट लाड़ली मीडिया फैलोशिप 2023 के तहत प्रकाशित की जा रही है) 

- स्वाति शैवाल