नहीं यह स्वतंत्रता नहीं, शोषण है....
'स्वतंत्रता' में निहित अर्थों को पहचानना होगा...
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वह' संभ्रांत वर्ग की है, 'वह' गंदी बस्तियों में भी रहती है। 'वह' कामयाबी का परचम फहरा रही है, 'वह' कुछ न कर पाने की घुटन और छटपटाहट को भी समेटे हुए है। 'वह' यदि शीर्ष पर है तो शून्य में भी 'वही' है। 'वह' अपने अस्तित्व को पहचान चुकी है, किंतु कहीं-कहीं 'उसे' अपने वजूद का परिचय नहीं है। 'वह' खास है, पर कभी-कभी आम में भी शामिल नहीं की जाती। 'वह' कर्मठ है, साथ ही कामकाजी, कर्मचारी और कामगार भी है। कहीं 'वह' धूलों से आपूरित है, कहीं 'वह' फूलों से आप्लावित है। 'वह' महकती खुशबुओं से सराबोर है तो उबकाती बदबुओं से भी 'वही' म्लान है। उसके स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए संबोधन के विविध रूप बिखरे हुए हैं, किंतु उनके निहितार्थ सदियों से वही हैं और सदियों तक शायद वही रहेंगे।औरत, महिला, स्त्री, नारी, खवातीन या वामा। पुकारने के लिए कई शब्द हैं, लेकिन महसूसने के लिए? कुछ भी नहीं, एक रिक्तता, जड़ता, खिन्नता, खिंचाव, खुश्की या फिर खीज। इस वक्त लेखनी की नोक पर आने को बेताब, आकुल और व्यग्र हैं। वे समस्त महिलाएं जो यूं तो कई वर्गों, उपवर्गों में विभाजित हैं, किंतु बात जब अस्तित्व और स्वतंत्रता की चलती है, तब इन सारे वर्गों, उपवर्गों के गुच्छे अनायास ही एक-दूसरे से जुड़कर एक ही विराट स्वरूप धारण कर लेते हैं जिन्हें हम राष्ट्र की आधी आबादी के नाम से जानते, समझते (?) और पुकारते हैं।आधी आबादी जो आजादी के इतने सालों उपरांत भी 33 प्रतिशत आरक्षण की मोहताज है और उसे पाने के लिए संघर्षरत है।