गजल : छलकते जाम
निशा माथुर
गोया वो मदहोश होकर मेरी कसमों से यूं मुकर से जाते है
जब मयकदे में उनके आगे आशिकी में जाम छलक जाते हैं
इक पल को मुस्करा जाता है चेहरा मेरा बोतल की साकी में
और प्याला हाथों से उलझ जाता है फिर यारियां निभाने में
वो फिर चुपके से मेरे वादों से अपनी नजरें भी चुरा लेते हैं
जब मयखाने के छलकते जाम उनके होठों तक आ जाते हैं
प्यालों में कायनात-सी नजर आ जाती है बेपनाह मोहब्बत मेरी
निगाहें छलक जाती है दो घूंट भर के ऐसी मदहोशियां निभाने में
अब वो मेरी झूठी-झूठी कसमों पे अपनी बेफवाई का सिला देते हैं
और जाम पे जाम वो भी उल्फत के नाम भर-भर के पी जाते हैं
कसूर है क्या, नशा मयस्सर है और इसमें ये निशा ही डूबती उतराती है
कसमों से वफा कैसे करूं, शराब में जालिम तेरी तस्वीर नजर आती है