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Written By सीमान्त सुवीर

हॉकी की दुर्दशा का एक रूप यह भी!

पद्मश्री से सम्मानित की पत्नी चला रही है दुकान

हॉकी की दुर्दशा का एक रूप यह भी! -
इंदौर से महू की दूरी 30 किलोमीटर की भी नहीं है लेकिन यहाँ के धनकुबेर यह नहीं जानते हैं कि इस फौजी छावनी के गोकुलगंज में रहकर 'स्वप्निल स्वल्पाहार' नामक छोटी-सी दुकान चला रहीं सुन्दरबाई और कोई नहीं बल्कि भारतीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान किशनलाल की पत्नी हैं।

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स्वर्गीय किशनदादा उस शख्सियत का नाम था, जिन्होंने 1947 में आजादी मिलने के बाद 1948 के ओलिंपिक खेलों में बतौर कप्तान अंग्रेजों को उन्हीं की सरजमीं पर हराकर भारत को हॉकी का 'गोल्ड मैडल' दिलाया था। हॉकी के इस महान खिलाड़ी का परिवार आज जिस आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है, वह बेहद चौंकाने वाला है।

मध्यप्रदेश सरकार की ओर से पेंशन मिलने की बात तो दूर रही, 'पद्मश्री' के सम्मान से‍ मिलने वाली पेंशन से भी महरूम है किशनदादा का यह परिवार। वजह केवल इतनी है कि किशनदादा के घर की बदहाली पर न तो कोई मध्यप्रदेश की विधानसभा में गूँज उठाने वाला है और न ही संसद तक कोई आवाज पहुँचाने वाला। परिवार की ओर से सैकड़ों चिठ्ठियाँ लिखी गईं, लेकिन सारी की सारी रद्दी की टोकरी के हवाले कर दी गईं।

  हॉकी में पहली पद्मश्री पाने वाले महू के किशनलाल की विधवा को परिवार चलाने के लिए दुकान पर बैठना पड़ रहा है ताकि रात को बच्चे भूखे नहीं सो सकें। 1948 में भारत को ओलिंपिक स्वर्ण दिलाने वाले इस शख्स की पत्नी पेंशन पाने की उम्मीद में बूढ़ी हो चुकीं      
इस परिवार ने हॉकी के ओलिंपिक मैडल और पद्मश्री को बैंक के लॉकर में इसलिए सुरक्षित रख छोड़ा है ताकि कोई उन्हें चुराकर दादा की इन अंतिम निशानियों को चंद रुपयों में न बेच दे। 68 वर्षीय सुन्दरबाई के अनुसार छोटी उम्र में मेरी दादा के साथ शादी हो गई थी। जब रेलवे में नौकरी लगी तो मैं भी उनके साथ मुंबई चली गई। बाद में हम लोग अपने महू स्थि‍त पुश्तैनी मकान में आ गए। हमारे चार बेटे और चार बेटियाँ हैं। फिलहाल मैं बेटे राजेन्द्र के साथ रहती हूँ, जो एक प्रायवेट स्कूल में नौकरी करता है। घर में कुल सात सदस्य हैं। मैं बहू के साथ मिलकर 'स्वपनिल स्वल्पाहार' की दुकान चलाती हूँ, ताकि बच्चे भूखे पेट सो न सकें। हालाँकि दुकान से नाममात्र की ही आमदनी होती है।

  अपने दिल पर हाथ रखकर पूछें कि देश में ऐसे कितने लोग हैं जो अपने बच्चों को हॉकी खिलाड़ी बनाना चाहते हैं?कई पूर्व ओलिंपियनों के परिवारों को अपने मैडल बेचने पड़े तो कोई पेट भरने के लिए दुकान पर बैठ गया      
सुन्दरबाई ने बताया कि दादा की ख्याति का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि तत्कालीन जर्मन सरकार ने उन्हें मय परिवार के अपने यहाँ बसने का न्योता दिया था ताकि वे वहाँ रहकर जर्मन खिलाड़ियों को कोचिंग दे सकें। मलेशिया ने भी उन्हें कोचिंग के लिए आमंत्रित किया था। दादा ने दोनों देशों में जाकर कोचिंग दी लेकिन देश की मिट्‍टी की खातिर वे दोबारा भारत आ गए।

ध्यानचंद भी खाते थे अम्मा के हाथ का बना खाना : पूरी दुनिया में 'हॉकी के जादूगर' के रूप में विख्यात महान खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद जब भी महू आते तो उनकी पहली फरमाइश अम्मा (सुन्दरबाई) के हाथ के बने खाने की होती थी। कभी भी उन्होंने महू आकर न तो आलीशान फौजी मैस में खाना खाया और न किसी होटल में। कई दफा तो यह हालत होती थी कि जब हम सब सो जाया करते थे, तभी दरवाजे पर दस्तक होती और खोलने पर हमारे सामने होते थे ध्यानचंद दादा। घर में घुसते ही खाना खाने की ख्वाहिश जुबाँ पर आ जाती थी।

राजा टीकमगढ़ का न्योता : किशनदादा की अपने जमाने में तूती बोलती थी और मेजर ध्यानचंद की तरह ही विख्यात थे। टीकमगढ़ के राजा भी उनकी कलात्मक हॉकी के कायल थे। इस कारण उन्होंने दादा को अपने यहाँ बुला लिया था ताकि वे आर्थिक रूप से सक्षम हो सकें लेकिन इसी बीच रेलवे से बुलावा आ गया।

जाम की लकड़ी से हुई हॉकी की शुरुआत : किशनदादा का बचपन काफी गुरबत में गुजरा। महू में जब उनके पास हॉकी खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे, तब वे जाम की लकड़ी को काटकर उसे हॉकी की शक्ल देते और अभ्यास करते थे। यही अभ्यास उन्हें एक दिन भारतीय हॉकी टीम का कप्तान बना गया। वे आजादी के बाद ओलिंपिक में हिस्सा लेने वाली भारतीय हॉकी टीम के पहले कप्तान थे और उन्होंने 1948 के ओलिंपिक खेलों में ब्रिटेन को उसी के घर जाकर हराते हुए स्वर्ण पदक जीता।

हॉकी के मैदान पर ही ली अंतिम साँस : किशनदादा की तमन्ना यही थी कि मौत के फरिश्ते जब उन्हें लेने आएँ तो वह जगह हॉकी का मैदान ही हो। 2 फरवरी 1902 को जन्मे किशनदादा जब मद्रास (अब चेन्नई) में कुरुअप्पा स्वर्ण कप हॉकी टूर्नामेंट में ऑफिशियल बनकर गए, तब मैदान पर ही 21 जून 1980 को उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे दुनिया से चले गए।

ज्योतिरा‍दित्य सिंधिया की उदारता : इंदौर के प्रकाश हॉकी क्लब की पहल पर उसके अध्यक्ष विधायक तुलसी सिलावट ने जब सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को किशनदादा की विधवा की बदहाली से अवगत करवाया तो उन्होंने पिछले वर्ष सुन्दरबाई को 1 लाख रुपए की सहायता दी थी।

पेंशन की आखिरी आस : किशनदादा और भारतीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान और गोलकीपर शंकर लक्ष्मण दोनों ही महू के पर्याय माने जाते थे और दोनों ही अब इस जहाँ में नहीं हैं। शंकर लक्ष्मण खुशकिस्मत रहे कि उन्हें राज्य शासन से मिलने वाली 5 हजार रुपए की पेंशन मिलने लगी थी लेकिन‍ ‍िकशनदादा की पत्नी की बूढ़ी आँखें सरकारी कागज को देखने के लिए पथरा गई हैं। वे यही चाहतीं हैं कि पेंशन शुरू हो जाए ता‍‍कि उन्हें अपनी जिन्दगी के बाकी दिन कम से कम 'स्वप्निल स्वल्पाहार' की दुकान चलाकर तो नहीं गुजारना पड़ें।

भारतीय हॉकी हुई शर्मसार