शनिवार, 27 अप्रैल 2024
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Written By WD

नौ शक्तियों का पावन महापर्व

नौ शक्तियों का पावन महापर्व -
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-महेन्द्र मोहन भट्
अनीति की असुरता का दमन देवताओं की सामूहिक शक्ति संघ शक्ति दुर्गा के अवतरण से संभव हुआ था। दुर्गा सप्तशती 10/18 के अनुसार संपूर्ण देवताओं के तेज में महिषमर्दिनी दुर्गा का अवतरण हुआ। भगवान शंकर के तेज से देवी का मुख प्रकट हुआ। यमराज के तेज से उनके सिर में बाल निकल आए।

विष्णु भगवान के तेज से उनकी भुजाएँ उत्पन्न हुईं। चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तनों का और इन्द्र के तेज से कटिप्रदेश का प्रादुर्भाव हुआ। वरुण के तेज से जंघा और पिंडली तथा पृथ्वी के तेज से नितंबभाग प्रकट हुआ।

ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण और सूर्य के तेज से उनकी उँगलियाँ प्रकट हुईं। वसुओं के तेज से हाथों की उँगलियाँ और कुबेर के तेज से नासिका प्रकट हुई। उस देवी के दाँत प्रजापति के तेज से और तीनों नेत्र अग्नि के तेज से प्रकट हुए।

उनकी भौंहें संध्या के और कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार अन्यान्य देवताओं के तेज से भी उस कल्याणमयी देवी का आविर्भाव हुआ। प्रकट हुई दुर्गाशक्ति को समर्थ और शक्तिशाली करने के लिए सभी देवताओं ने अपनी विशिष्टता, प्रतिभा का सामूहिक दान किया।

'दुर्गा सप्तशती' 2/20-32 के अनुसार पिनाकधारी भगवान शंकर ने अपने शूल से एक शूल निकालकर उन्हें प्रदान किया, फिर भगवान विष्णु ने भी अपने चक्र से चक्र उत्पन्न करके भगवती दुर्गा को अर्पण किया। वरुण ने शंख भेट किया। अग्नि ने उन्हें शक्ति दी और वायु ने धनुष तथा बाण से भरे हुए दो तरकश प्रदान किए।

यमराज ने कालदंड से दंड, वरुण ने पाश, प्रजापति ने स्फटिकाक्ष की माला तथा ब्रह्माजी ने कमंडल भेंट किया। भगवान सूर्य ने जगदंबा के समस्त रोम कूपों में अपनी किरणों का तेज भर दिया। काल ने उन्हें चमकती हुई ढाल और तलवार दी। विश्वकर्मा ने उन्हें अत्यंत निर्मल फरसा भेंट किया। जलधि ने उन्हें सुंदर कमल का फूल भेंट किया। हिमालय ने सवारी के लिए सिंह तथा सागर ने भाँति-भाँति के रत्न समर्पित किए।

नवरात्रि साधना भगवती दुर्गा की हो या वेद जननी गायत्री की, दोनों तत्वतः एक हैं। गायत्री महामंत्र के प्रथम चरण तत्सवितुर्वरेण्यं का अर्थ है कि हम सविता देव का वरण करते हैं। इस वरण के साथ ही साधक के अंतस्‌ में सक्रिय होती है- महाकाली की प्रचंड शक्ति और शुरू हो जाता है विकार मुक्ति का महासंग्राम। इसमें विजय मिलते ही साधक समर्थ होता है।

भर्गोदेवस्य धीमहि अर्थात 'प्रभु के परम तेज को धारण करने के लिए' और तब सक्रिय होती हैं माता महालक्ष्मी की शक्तियाँ, जो साधक को योग, ऐश्वर्य से भर देती हैं। इसके बाद साधक के अंतस्‌ में प्रस्फुटित होता है- धियो यो नः प्रचोदयात्‌ अर्थात सद्ज्ञान, आत्मज्ञान का विकास, माता महासरस्वती की कृपा उपलब्धि।'

गायत्री महामंत्र में नवार्ण मंत्र स्वयमेव समाहित है और इसी का विस्तार श्री दुर्गा सप्तशती के तीन चरित्रों में है। ये तीनों चरित्र माता गायत्री के तीन चरणों का ही विस्तार हैं।