प्रवासी कहानी : ग्रैंड मां
शिव के पिता मुझसे यह कहकर स्वर्ग सिधारे थे कि मैं बेटे-बहुओं से मित्रवत व्यवहार करूं और जहां तक हो सके, उनकी बातों और कामों में दखल न दूं इसलिए मैं चुप ही रहती हूं।मेरे कुछ न बोलने की वजह से बात यहां तक आ पहुंची कि उन्होंने दीवारों पर लगे महंगे तैलचित्रों के स्थान पर आधुनिक और सस्ते चित्र टांग दिए, क्रिस्टल की क्रॉकरी कोलकी में चढ़ा दी और उसकी जगह रसोई में भारी-भरकम रंग-बिरंगे मग्स, प्लेटें और डोंगे रख सजा दिए जिन्हें उठाने-धरने में मेरे हाथ दुखते हैं। घर न हो गया, आईकिया हो गया; कुछ कहूंगी तो कलह होगी इसलिए मैं चुप ही रहती हूं।मैं जानती हूं कि मेरा जमाना बीत चुका, विशेषत: शिव के पिता की मौत के बाद, पर किसी बात की कोई हद भी तो होती होगी? लगता है कि जैसे आशिमा तुल गई है कि मेरा किया-धरा सब उलट-पलट दे। जब तक मैं जिंदा हूं, यह घर मेरा है, पर वह इसे अपने हिसाब से चलाना चाहती है। वैसे, मुझमें अब इतनी शक्ति भी नहीं बची कि इनकी आगे से आगे करती रहूं, घर और बाग की देखभाल करूं या करवाऊं, रसोई संभालूं और इनके बच्चों की रखवाली करती फिरूं।
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