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एनआरआई अभिभावक और उनकी परेशानियां

एनआरआई अभिभावक और उनकी परेशानियां - एनआरआई अभिभावक और उनकी परेशानियां
- शोभा सरवटे
 
एक तरफ है बच्चों का करियर और उसके बाद तमाम सुख-सुविधाएं और दूसरी तरफ हैं देश में रह रहे माता-पिता एवं अन्य स्वजन। विदेशों में रहने वाले बच्चों और उनके भारत में रह रहे अभिभावक चाहे भावनाओं की मजबूत डोरियों में बंधे हों, लेकिन बढ़ती उम्र और अकेलेपन के साथ जी रहे एनआरआई बच्चों के अभिभावक कई तरह की भावनात्मक परेशानियां महसूस करते हैं। 
 
वे ऐसा भी नहीं चाहते कि उनकी देखभाल के लिए उनके बच्चे अपना नौकरी-धंधा छोड़-छाड़कर फिर भारत आ बसें, पर जब यादों के बादल छाते हैं तब... तब कोई तर्क मानने को जी नहीं चाहता उनका। कई परिवारों के बच्चे अमेरिका या अन्य देशों में उच्च पदों पर कार्यरत हैं और पैसों के साथ प्रतिष्ठा भी कमा रहे हैं। उनके अभिभावक भारत में अकेले जीवन-यापन कर रहे हैं। जिस उम्र में उन्हें लगता है कि वे अपने बच्चों, पोते-पोतियों के साथ जीवन का आनंद लूटें, वे अकेले रहने को मजबूर होते हैं। 
 
85 साल की दादी मां कहती हैं कि हमारा लड़का जब यहां से गया, तब उसकी शादी हुई थी। उसके बाद हमें पोता हुआ। हम दोनों गए थे अमेरिका। वहां की प्रदूषणरहित हवा में पिकनिक का अपना ही मजा था, लेकिन हमारी जन्मभूमि की याद वहां ज्यादा सताती है। हम ज्यादा दिन सुख-सुविधा होने के बावजूद नहीं रह सकते। बच्चा तो वहीं पर बस गया, अब बच्चे बड़े हो गए। 
 
बच्चे-पोता-पोती अमेरिका में और बच्चों के पिताजी गुजर गए। मैं अकेली यहां रहती हूं। पहले तो फोन भी नहीं था। महीनेभर में एकाध बार सोसायटी के ऑफिस में फोन से बातें होती थीं। एक महीना इंतजार में बीत जाता था। अब इंटरनेट पर खत लिखती हूं, चैटिंग करती हूं। हर 2 साल में लड़का सपरिवार आता है। हमारी पोती बड़ी हो गई, डेटिंग करती है। मन को बहुत दुःख हुआ। 
 
अब जमाना बदल गया है। इस्टेट है। बंगले की देखभाल और पैसों का हिसाब-किताब देखने वाला कोई नहीं। सब पड़ोसी के बल पर। सुलभा ताई का कहना है कि लड़का अमेरिका में है, यहां पैसा बहुत है, लेकिन दोनों अकेले। 2 साल में लड़का आता है। 2 साल में हम जाते हैं, बाकी क्या? शून्य। त्योहार मनाना किसके लिए? उधर बच्चों की कसरत चल रही है और हम यहां अकेले हैं। बच्चों की मदद के लिए कोई नहीं। 
 
पिंकी बीमार है। फोन आता है। बस चिंता करते रहो। याद आती है। कैसेट देख लेते हैं। उम्र बढ़ती है, आत्मविश्वास कम होता है। डॉक्टर के पास जाना हो या घर में शेल्फ पर से चीजें निकालना हो, कौन आएगा? दोनों में से एक की तबीयत बिगड़ी, कौन देखेगा? बच्चों से हजारों मीलों का भौगोलिक अंतर जो है। जब चाहे तब बच्चे आ नहीं सकते। इनको छुट्टी नहीं मिलती। सर्दी-खांसी जैसी बीमारी का तो हम जिक्र ही नहीं करते। 
 
शैला ताई का कहना है कि मैं जापा करने के लिए अमेरिका गई थी। 6 महीने रही। सब सामान मिलता है वहां। तब पोते को मैं ही मैं दिखती थी। जब बड़ा होगा तो भूल जाएगा। मामी की लड़की लंदन में है। मामी कहती है कि मेरी बेटी लंदन में पढ़ने के लिए गई और वहीं की हो गई। शादी भी हो गई और नौकरी भी लग गई। भारत से ज्यादा बरस उन्होंने लंदन में निकाले। अब वहां के दोस्त उन्हें अपने पास के लगते हैं। मुझे उसकी बहुत याद आती है। फोन पर आने का वादा करती है। कभी यहां आती भी है, लेकिन यहां उसे अटपटा लगता है। 
 
सुचेता दीदी के पति डॉक्टर हैं। उन्होंने 8 साल लंदन में गुजारे। एक लड़का और लड़की का जन्म वहीं पर हुआ। उनके अपार्टमेंट में सब भारतीय रहते थे। सास-ससुर भी साथ थे। उन्होंने नवरात्रि उत्सव भी वहीं मनाया। रोज एक सुवासिनी खाना खाने को आती थी। कुछ दिन बहुत मजे में कटे। 
 
विजयश्री ताई कहती हैं कि हमारा लड़का उधर से आता है तो हमारे यहां दिवाली रहती है। कितनी चीजें बनवाएं और कैसे आदर-सत्कार करें, समझ में नहीं आता। सुधा ताई कहती हैं‍ कि लोगों को लगता है एनआरआई अभिभावक यानी पैसा ही पैसा। बच्चे की सर्विस लगने के बाद अपनी गृहस्थी जमाने के लिए मकान, कार और बाकी जरूरी कीमती चीजों के लिए कर्ज लेते हैं। 
 
प्रिया ताई का कहना है कि इधर हम चिंता करते हैं, उधर वे चिंता करते हैं। मां-बाप को सहारा नहीं दे सकने की भावना उन्हें भी सताती है। 
 
विजया दीदी का लड़का बहुत मेधावी है। 12वीं से बाहर है। बहुत कुछ पढ़ लिया है। विजया दीदी को लगता है अब लड़के की शादी होनी चाहिए, लेकिन उसे पढ़ाई के बिना सब मिथ्या लगता है। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। भारतीय वातावरण में रहने के आदी अभिभावकों को वहां रहना जमता नहीं। वहां की तेजगाम जिंदगी। बदला हुआ जमाना। वे मेहमान की तरह जाते हैं। 
 
फोटो, फोन और इंटरनेट इतना ही उनसे संपर्क रह पाता है। जब पोता-पोती स्कूल में जाते हैं, उनकी बातचीत और विचारों में भी परिवर्तन होता है। व्यवहार, खान-पान सब में अंतर आता है और कभी भारत में आ गए। यहां के रिश्तेदार, परिचित, पड़ोसी जीवन की घटनाएं, उनमें वहां के रहने वाले लड़के, बहू, लड़की, जमाई को रस नहीं आता। अपनापन नहीं रहता। बच्चों की दुनिया अलग हो जाती है। 
 
लेकिन प्रेमाजी का कहना है कि एनआरआई पालक अकेले हैं। इसमें अलग क्या है? भारत में भी शादी होने के बाद लड़का-बहू अलग रहते हैं। वैसे हम सात समंदर पार अलग हैं। दुःख क्यों? पर एनआरआई पालकों की तरफ देखने का समाज का दृष्टिकोण अलग है। वे सोचते हैं कि बच्चे विदेश में हैं तो पोते-पोती को संभालना नहीं पड़ता। पर बच्चे परदेस में हैं तो खुद के साथ मकान भी दूसरे लोग देखेंगे। पालकों का दुःख वे क्या जानें? घर में बड़ा उत्सव है या त्योहार, बच्चों की याद आते ही खाना गले में अटक जाता है। 
 
जलेबी बहू को बहुत अच्छी लगती है या लड्डू-मिठाई पोते को बहुत भाते हैं। तीखी सेंव लड़के को अच्छी लगती है। यह विचार आते ही मन उदास हो जाता है। विनुनानी को तो विदेश यानी फाइव स्टार जेल लगती है। उषा ताई कहती हैं कि उमर बढ़ी तो बुढ़ापा आएगा ही। कुछ न कुछ बीमारी भी होगी इसलिए निराश नहीं होना चाहिए। 
 
1994 में रिटायर्ड जज एनएच अभ्यंकर ने पूना (महाराष्ट्र) में नॉन रेजीडेंट पैरेंट्स ऑर्गेनाइजेशन (एनआरआईपीओ) नामक संस्था स्थापित की है। इस संस्था में एनआरआई पालकों के लिए उचित व्यवस्था है। वाचनालय, क्लब, घूमना-ट्रिप सब होता है। जिन पालकों के बच्चे विदेश में हैं, उनकी उचित देखभाल करना, दवाई देना ऐसे काम संस्था द्वारा किए जाते हैं। यदि ऐसे लोगों में किसी की मृत्यु हो जाती है तो विदेश से जब तक उनके बच्चे नहीं आ जाते, तब तक शव रखने का उचित प्रबंध भी किया जाता है।