प्रवासी कविता : हम कभी न यूं तड़पते...
- विजय कुमार सिंह
आज जैसे हम अलग हैं, इससे तो अच्छा यही था,हम कभी न तुमसे मिलते, और न हमको प्यार होता।कट ही जाती जैसी कटती, इससे तो तब भी भली थी,हम कभी यूं न तड़पते, जीना न दुश्वार होता।वो तेरा मासूम चेहरा, वे तेरी मुझ पर निगाहें,वो तेरा लहराता आंचल, वे तेरी दिलकश अदाएं।हम कभी न यूं तरसते, यूं न मन लाचार होता,हम कभी न यूं तड़पते, जीना न दुश्वार होता।साथ तुम होते तो हम भी, मिल के हंसते-मुस्कराते,फूल से खिल जाते हम भी, पंछी जैसे चहचहाते।हम कभी न यूं सिसकते, यूं न जीवन ख्वार होता,हम कभी न यूं तड़पते, जीना न दुश्वार होता।हमको लगती रागिनी भी, रागिनी तब रागिनी सी,हमको लगती चांदनी भी, चांदनी तब चांदनी सी।हम कभी न यूं उचटते, यूं न दिल बेजार होताहम कभी न यूं तड़पते, जीना न दुश्वार होता।याद रख पाना कठिन है, किसी दिशा में हमको जाना,चलते-चलते भूल जाते, किस जगह अपना ठिकाना।हम कभी न यूं बहकते, अपने पे एतबार होता,हम कभी न यूं तड़पते, जीना न दुश्वार होता।