शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
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मेरा पहला रोज़ा

मेरा पहला रोज़ा - webdunia blog
याद नहीं उम्र कितनी थी, पांचवी का इम्तेहान दिया था और अब तक रमज़ान में इफ्तारी खाने का ही लुत्फ उठाया था कि रमज़ान के छट्वें रोज़े के दिन अम्मा दादी अम्मा के साथ लोगों की फेहरिस्त बनाती बरामद हुईं। अप्रैल का महीना, ऐन मेरी सालगिरह के एक दिन पहले। स्कूल अभी खुले नहीं थे, लिहाज़ा मदरसा और पेटिंग की क्लास के बाद चंग-अष्ट की महफिलें और चम्पक, नंदन के साथ बीतती ख़ाली ख़ाली दुपहरें।


बुज़ुर्गों के काम में ज़्यादा दख़लअंदाज़ी की इजाज़त तो थी नहीं सो पता भी नहीं था कि क्या होने जा रहा है। पड़ोस की रफ़ीक़ा ख़ालाजान के साथ दादी अम्मा जो जो मश्विरे कह सुन रहीं थी उससे तो यही अंदाज़ लगाया जा सकता था कि दूर दराज़ की किसी कुआंरी फूफीजान या ख़ालाजान की मंगनी ही होनेवाली है। तभी बडी अम्मी ने घुडका: “ज़्यादा इतराओ नही! कल तुम्हारा ही काम होगा” या अल्लाह! मेरी मंगनी!!! ख़ौफ के मारे कलेजा मुंह को आ गया! दूर-दूर तक मोहब्बत  लुटाते भाइयों के बीच कहीं भी दुल्हे की ख़ौफनाक तस्वीर का तस्व्वुर भी नहीं था, फिर ये मंगनी!!!! अंदर के बाग़ी तेवर कोई जवाब तलब करते इंसाफ की ज़ंजीर हिलाते इससे क़ल्ब ही अम्मा ने आकर बताया, “कल तुम्हारी सालगिरह भी है और पहिला रोज़ा भी।” जान में जान आयी मेरी।  बक़ौल दादीअम्मा, “दिन भर भूखे भिनभिनाना तो मेरा ख़ास शगल था”, सो मुझे कोई ऐतराज़ नही था, फिर यहां तो पब्लिसिटी भी पूरी मिल रही थी, सो फख़्र से उड़ी उड़ी अड़ोस पड़ोस में भी गा आयी मैं! “ मेरा पहिला रोज़ा है, फ़लानी तुम भी आइयो और ढमाकी तुम भी आइयो”
 
अगले दिन पूरे जोश से सेहरी में जगाया मुझे। नहला धुला अम्मा ने नीली अम्ब्रेला फ्रॉक के साथ पड़ोस की पिंकी बाजी की छोटी हुई पीली शल्वार पह्ना दी। (अस्ल में भाइयों के कपड़ों पर डाका डालने वाली उम्र की वजह से अभी ज़िंदगी में शल्वारों की घुसपैट शामिल नहीं हुई थी) जल्द-जल्द सेहरी खिला कर रोज़े की नियत करवाई गई। बड़ी  अम्मी ने ख़त्म-वक़्ते-सेहरी नाक दबा कर बड़ा सा ग्लास पानी का भी हलक़ में उडैल दिया और सेहरी का वक़्त खत्म हुआ। फज्र की अज़ान हुई, अम्मा ने नमाज़ के बाद क़ुरान हाथों में थमा दिया। यासीन पढ़ते-पढ़ते जम्हाइयों को दबा कर जल्द ही फारिग़ हो बिस्तर में लुढ़क गई। 
 
एक नींद निकाली और जले पैर की बिल्ली की तरह आदतन बावर्चीख़ाने का रुख़ किया. “अरी!! ये भूत की तरह यहां क्यूं मंडरा रही हो? रोज़ा है तुम्हारा!!!” बडी अम्मी ने डपटा तो ख़याल आया कि रोज़ा है। खिसियाती हुई बाहर आयी तो बाजी ने टोका, “अरे! मेहमान आ गए हैं! ज़रा मुंह धोकर कपडे बदल लो, नानीजान, मामूजान-मुमानी जान, चचा चची सब के सब लोग ही आते होंगे, जल्द कंघा लेकर आओ तो तुम्हारी चोटियां बना दूं”. मुझे बाजी का बाल खींच खींच कर चोटी बनाना सख़्त नापसंद था मगर उन्हें ना सुनने की आदत नहीं थी, अभी रोज़े में ही धुनककर रख देतीं सो मैंने चुपचाप चोटी करवाने को ही ग़नीमत जाना। इतने में अम्मा ने आकर बताया कि आज सब लोग मेरे लिये तोहफ़े और ढेर से कपड़े भी लाने वाले हैं। मैं थोडी सी ख़ुश हो गई। आज मुझे मेरी रोज़ की झाडू बुहारने वाली ड्युटी से भी छुट्टी मिल गई थी। नानी के घर से लाए गए कपडे पहन मैं फिर आंगन से कमरे, कमरे से छज्जे डोलने लगी। दिल में खयाल आया, रोज़ा है, कोई काम तो है नहीं, क्यूं न थोडी टीवी-शीवी ही देख ली जाए। प्लग लगाया ही था कि सीआईडी की तरह फिर बडी अम्मी नाज़िल, “अ‍री कम्बख़्त! रोज़े में टीवी नहीं देखते, रोज़ा मतलब नफ्स का रोज़ा। किसी  क़िस्म का कोई एंनटरटैनमेंट नही।” उनकी घुडकियां दिल पर ली भी ना थी कि सब के सब चचा, फूफा अपनी जतन से जमा की गई बच्चों की फौज समेत हाज़िर। गुडिया-गुडिया का शोर मचाते कोई चूमचाट रहा था तो कोईं मारे ख़ुशी के गले लगा रहा था। मेरा पूरा ध्यान साथ लाए तोहफों के झोलो पर था। 
 
दिन का दूसरा पहर चालू। सूरज ऐन सर के ऊपर। ज़ुहर की नमाज़ का वक़्त। मर्द हज़रात मस्जिद में नमाज़ अदा करने गए औरतों ने घर में पढ़ी। नानी अम्मी का फरमान जारी हुआ, “ बाई! रोज़दार बच्ची को हवा में लिटा दो”. चचियां, मुमानियां और फुफियां नमाज़ के बाद बावर्चीख़ाने में अम्मा की मदद करने लगीं। नसीम आपा एक बडे से टोकरे में गर्मागरम पकौडे उतारने मे लगीं तो क़ुरैश आपा पापड तलाई को बैठ गयीं, मुहल्लेभर से झारे पल्टे मांग इफ्तारी की तैय्यारियां होने लगीं। पडोस की यास्मीन और तस्नीम बाजी पपीते और तरबूज़ काटने को मुक़र्रर हुईं और छम्मी आपा लगीं ख़्वान परातों की सफाई में। हम उम्र सहेलियां घर के वाहिद कूलर (जिसे दादीजान “भड़ भड़ कूटा” भी कहती थीं) के सामने मुझे लेकर बैठ गईं। बबलीबाजी ने फौरन मेहंदी घोली और मेरे हाथ पैरों में बेलबूटे लगा डाले। हम उम्र लड़कियों बालियों को भी मेहंदी लगा वह किचन में गई और मैं घडी की तरफ़ देख वक़्त का जायेज़ा लेने लगी। सारी सहेलियां ठंडी हवा मे सो पसर गयीं इतने में पड़ोस के बच्चे भी आ गए। भाई लोगों ने पूछा, “रोज़ा तो नही लग रहा? बस चार पांच घंटे और हैं फिर जी भर के खाना! बाहर तो सिर्फ तुम्हारे रोज़े की खुशी में ही शामियाने लगे हैं, टैरेस गार्डन की सफाई की है और जमातख़ाने से बडे बर्तन भांडे मंगवाकर गांव भर की दावत और रोज़ाकुशाई का इंतेज़ाम किया है। सुनते हैं दुल्हेभाई और बडी बाजी के ससुराल वाले तुम्हारे लिये नोटों का हार लाने वाले हैं!” मैं मारे खुशी के और फूल फैल गई। दोपहर की नमाज़ में खूब दुआ की कि ऐ अल्लाह! तू मेरा रोज़ा क़ुबूल फरमा!
 
दिन के चार बजने आए दोपहर ढलने की नमाज़ में थोडा वक़्त होगा कि पडोस के मेहनाज और गुलनवाज़ आ धमके। मुझे डाले गये हारों को बाजी ने क़रीने से एक ढेरी की शक्ल दे, चादर से ढांक दिया था। उन दोनों  शैतानो की नज़र जब हार पर गई तो गुलगेंदे की पत्तियां तोड़ वह उसके फूलों की नमकीन जड़े खाने लगे। लो तुम भी खाओ, कहने की देर थी और मैं भी खाने लगी, एक जड़ खाई ही थी कि याद आया मेरा तो रोज़ा है! हाय अ‍ल्लाह !! अब क्या होगा!!! मेरे चेहरे के रंग उड़ते देख दोनो आंखें तरेरते हुए बोले, “ होगा क्या! तुमने रोज़ा तोड़  दिया है!! हम अभी सब से कह आते हैं शामियाने निकालो, तोहफे हमें दे दो, खाना पकाना बंद करो, भटियारों घर जाओ, इफ्तारी मुहल्ले पडोस में बांट दो, नोटोंं का हार फैंक दो कि लड़की रोज़ा तोड़ चुकी है!!!”
 
मेरा दिल बैठ गया और मै ख़ुद का तस्सवुर कोर्ट मार्शल किए गए कैप्टन सा ही करने लगी। आंखों से आंसू की बूंदें छलक पड़ी और जी में आया मैं ख़ुद्कुशी कर लूं। इतने में उन दोनों का बडा भाई “शाहनवाज़”  जो उम्र में हमसे कोई साल दो साल बड़ा होगा आया और रोने का सबब पूछ्ने लगा। मै कुछ कहती उससे पहले वह दोनों उसे नमक मिर्चे लगा सब कह गये। उसने गौर से सुना और मुझे समझा के कहने लगा, “जाओ! दौड़ कर गुसलख़ाने में जा कर कुल्लियां कर लो और तौबा कर लो, भूल में तो सब माफ़ है” मैं फौरन तौबा करती हुई गुसलख़ाने की जानिब दौड़ गयी, वापस आई तो दोनों शैतान फिर बोले, “ अ‍ल्लाह मियां तो ठीक हैं, तुम दुनिया को क्या जवाब दोगी!!! हम अभी सब से बोल आते हैं!” शाहनवाज़ ने आंखें तरैरी और बेंत दिखाते हुए उन्हें धमकाया, “ ख़बीसों! आज सुबह हदीस की क्लास में  आलिम साहब ने समझाया था न कि जो किसी के एक ऐब पर पर्दा डालेगा, अ‍ॅल्लाह आख़िरत में उसके ऐबों से पर्दापोशी कर उसे ज़लील होने से बचाएगा!!!” दोनों के दोनों डर कर भाग ख़डे हुए। 

मगरिब हुई, मैंने गोटे टका नया सूट पहना। लाल हाथों में चट मेहंदी रचाई, रोज़ा इफ्तारा गया, मुझे कपड़े, खिलौने और तोहफे सभी कुछ मिले। खिलौने मैने शाहनवाज़ को दिखाए और इफ्तारी के बचे हुए पापड़ों का टोकरा मैंने और शाह्नवाज़ ने कच्ची सीढियों पर साथ बैठ कर निबटाया।