विक्रम संवत 1456 या कहें कि सन् 1398 में जन्मा था वह फकीर। स्वभाव से अक्खड़, तबियत से फक्खड़। कबीर, हां कबीर नाम था उसका। कबीर जिसकी वाणी ग्राम्य धरती की सौंधी माटी में आज भी उसी गमक के साथ महकती मिलेगी और शास्त्रीयता के 'गंधर्व' राग में सजी मंच पर भी विराजित दिखेगी। वह गांव-चौपाल-पनघट-धानकुटाई से उठती लोक-तरंगों में तैरती भी नजर आती है और सुर में निबद्ध मीटर-पैरामीटर पर भी खरी उतरती है। यह कबीर का ही करिश्मा है कि उन्हें लोक बोली-विभाषा-भाषा, जैसे मालवी-निमाड़ी-पंजाबी की लोक धुनों में भी उतने ही 'फोर्स' से गाया जा सकता है जितना सूफी और शास्त्रीय रागों में।
जुलाहे 'नीरू' और 'नीमा' को जैसे ईश्वर ने आशीष स्वरूप यह दिव्य बालक सौंपा था। हिन्दु और मुस्लिम धर्म से परे कबीर की वाणी से जब जैसा और जो निकला वह संतत्व की कई पुरानी परंपराओं से आगे का था। यह कबीर का ही कलेजा था जो उस वक्त के उस कट्टर दौर में यह लिख सके -
ऊंचे कुल क्या जनमियां, जे करणी ऊंची न होय
सुवर्ण कलश सुरै भरया, साधू निंद्या सोई ।।
यानी
यदि मनुष्य के कर्म जाति के अनुसार ऊंचे नहीं है तो ऊंचे कुल में जन्म लेने से क्या लाभ? अगर सोने के कलश में मदिरा भरी हुई है तो साधु उस सोने के कलश की भी निंदा करते हैं।
या फिर यह कि
पंडित और मसालची, दोनों सूझे नाहीं
औरन को कर चांदना, आप अंधेरे माहिं।।
पंडित और मशाल वाले दोनों को ही परमात्मा विषयक वास्तविक ज्ञान नहीं है। दूसरों को उपदेश देते फिरते हैं और स्वयं अज्ञान के अंधेरे में डूबे हैं।
जब भी कबीर को पढ़ा है और जब भी कबीर वाणी को सुना है। कहीं भी,कभी भी चाहे वह ग्राम चौपाल पर एकतारा लिए अनगढ़ शैली में गाते लोकगायक हो या फिर तारा सिंह डोडवे से लेकर प्रह्लाद टिपाणिया या फिर कुमार गंधर्व से लेकर मुकुल शिवपुत्रे तक....लगा कितने चमत्कारी और दिव्य पुरुष होंगे कबीर... क्या-क्या और कैसा-कैसा रच डाला है इस बंदे ने जो आज भी मन के भीतर के सुप्त तारों को सितार सा झंकृत कर देता है और मस्तिष्क की बारीक कोशिकाओं तक में तरल तृप्ति का आभास देता है।
और .. और निरंतर बस... और ..और सुनने की अभिलाषा जाग्रत होती है। तभी तो कहीं किसी कबीर गायकी के कार्यक्रम का जब समापन होने लगता है तो ठेठ ग्रामीण स्वर पीछे से उठता है ''अभी तो राम रामी बची है साब...''गायक हाथ जोड़कर कहे कि समय नहीं बचा तो तत्काल जवाब आता है ''एसो कई करो... भरी गाड़ी में सूपड़ा को कई वजन ...'' और जैसे ही यह ख्वाहिश मान ली जाती है दूसरे छोर से आवाज आ जाती है ''राम रामी तो करी ली पन गाड़ी धीरे हांकणे को भी तो बोल दो....''
अगर गायक विशुद्ध शास्त्रीय रागों पर कबीर गा रहे हैं तो वहां भी सुनता है गुरु ज्ञानी ... के बिना महफिल विराम नहीं ले सकती... यह कबीर है। कबीर का चमत्कार है, कबीर की ही कलाकारी है। गायक तो बहुत से हैं पर अगर जुबान पर कबीर है तो वह पवित्र लगने लगता है उसके चेहरे की गुलाबी आभा में कबीर साक्षात नजर आते हैं.... सुर ना हो चलेगा आवाज भली ना हो चलेगा पर कबीर वाणी की दिव्यता ऐसी है आपको मगन किए बिना नहीं रहेगी... तभी तो गांव से चलकर आई नितांत भोली बालाएं शहर के किसी सभागार के नियमों को धता बताते हुए झूम-झूम जाती है ...खुलकर थिरकती है क्योंकि वहां कबीर है हर कोने में हर रंग में, हर लिबास में... शर्म किससे और शर्म कैसी.... सूफियाना कबीर, आध्यात्मिक कबीर,लोकनायक कबीर, संत कबीर, ज्ञानमार्गी कबीर, सद्गुरु की महिमा गाते मानस के किवाड़ झकझोर कर खोलते कबीर.... और चींटीं के पैरों में घुंघरू की मीठी और दिलकश कल्पना करने वाले कबीर ..
अभी विराम कहां... काल की शक्ति से परिचय कराते कबीर, समय के महत्व को समझाते कबीर, जीवन की नश्वरता से सचेत करते कबीर, कर्म, प्रेम और भक्ति के सरल मार्ग की सीख देते कबीर, इड़ा, सुषुम्ना और पिंगला को सुलझाने की राह दिखाते कबीर, वाणी के उपयोग की कला सिखाते कबीर, पंथवाद का विरोध करते कबीर.... कितने कबीर, कितने खूबसूरत कबीर.. हर हर रूप में मोहते कबीर...
कल के कबीर जन महोत्सव में शामिल होने के बाद रात भर 'कबीर-कबीर' रहीं...