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Written By WD

मेरा ब्लॉग : कहानी - कौन सा फूल सबसे अच्छा है....

मेरा ब्लॉग : कहानी - कौन सा फूल सबसे अच्छा है.... - webdunia blog
सीनसीनाटी, ओहायो यु.एस.ए. से लावण्या शाह  का ब्लॉग 
 
 
यह कथा भारत के एक गांव की है। गांव कोई भी नाम सोच लीजिए। है बात बहुत दिनों पहले की जब गांव में एक बारात आई थी। शादी ब्याह के अवसर पर सदा की तरह सारा गांव बरात के स्वागत में सज रहा था। दरवाजे पर बंदनवार झूल रहे थे। गेंदे के पीले फूलों के साथ अशोक के हरे चीकने पान हारों में गूंथ कर हवा में उमंगें बिखेर रहे थे।

गांव के छोटे-बड़े सभी स्वच्छ धुले या नये वस्त्र पहने लडक़ी वाले के आंगन के पास मंडरा रहे थे। दालान के सामने क्यारी में तुलसी मोगरों के खिले गुच्छों के बीच शोभायमान थी। सफेदी से पुता घर सूर्य की प्रखर किरणों के मध्य चमक-दमक रहा था। भीतर काफी भीड ज़मा थी। पुरुषों ने लाल और गुलाबी रंग के साफे बांध रखे थे। उनकी प्रसन्न मुद्रा पर कभी रौब तो कभी मुस्कान तैर जाती थी।
 
स्त्रियां रंगबिरंगी रेशमी साड़ी ओढ़े मुस्करा रही थीं। उनकी बातें कभी चूडियों की खनक और कभी पायलों की छनछनाहट के बीच ज्वार-भाटे की तरह उतार-चढ़ाव लेती हर दिशा में फैली जा रही थी।
 
 कन्याएं घाघरा चोली चुनरी या लहंगा पहने चिडियों की तरह चहक रही थीं।
 
बारात आ पहुंची। अपनी दो सहेलियों के मध्य लाल चुनरी से ढंकी गुडिया सी नववधू वरमाला हाथों में जकडे हुए आ खडी हुई। उसकी महीन ओढनी पर सुंदर सलमें सितारे और सुनहरी गोटों का काम दमक रहा था। माथे पर बिंदिया दमक रही थी। कन्या ने अपने हाथों को ऊंचा कर के लाल गुलाब और सफेद नरगिस के फूलों से महकती वरमाला वर के गले में पहना दी। कन्या और वर के साथ खड़ी बारात ने तालियां बजा कर अपनी खुशी प्रकट की। इसके बाद दोनों पक्षों के रिश्तेदारों में मिलनी की रस्म अदा की गई। विवाह मंडप में ब्याह की सारी गतिविधियां विधिपूर्वक पूरी होने लगी। 
 
ब्याह के बाद दावत शुरू हो गई। 
 
ब्याह के भोजन के क्या कहने! मठरी-कचोरी, पूडी-घेवर-लड्डू-इमरती-जलेबी-गुलाब-जामुन, सब्जियां-दाल-चावल-रायता ये सभी बारी बारी से परोसा जा रहा था। सभी ने छक कर भोजन किया।
 
अब तो पान सुपारी लौंग इलायची भी आ गई और लोग स्वादिष्ट खाने के बाद सुस्ताने लगे। मेहमान और मेजबान सभी सन्तुष्ट थे। कई अतिथि भोजन समाप्त कर एक बार फिर बधाई कह कर ब्याह के मंडप से दूर अपने घरों की ओर जाने लगे। जो घर के थे, रिश्तेदार और संबंधी घर के भीतर खुले चौक में पहुंचे।
 
चौक में फर्श पर कालीन व चादरें बिछी थीं। बडे बडे गोलाकार तकिये भी रखे थे। कई सारे लोग वहां पसर कर आराम करने लगे। गपशप शुरू हो गई। औरतें भी एक ओर हंसने-बोलने लगीं। चर्चाएं छिड गई। सारा चौक चहक उठा। दूल्हा भी बारातियों के साथ अपने मित्रों के साथ बैठा था। दुल्हनिया अपनी हम उम्र सहेलियों से घिरी कुछ शरमाती हुई बैठी थी। ब्याह की विधि सकुशल पूरी हो गई थी। 
 
दावत भी निपट गयी थी। लग्नोत्सव में कौन-कौन आया कौन न आ पाया ऐसी बातें लोग कर रहे थे।
घर के सब से बडे बुजुर्ग गला खखार कर बोले, ''अं....हं.....सुनो तो जरा...'' और दादा जी की आवाज सुनते ही धीमे से सन्नाटा छा गया। दादा जी के प्रतिभाशाली मुख को सब आतुरता से निहारने लगे। दादाजी शान्त मुद्रा में थे। गौरवर्ण चेहरा पकी हुई केशों वाली बडी-बडी मूछों से ढका था। वे भारतीय सेना के वरिष्ठ पद से निवृत्त हुए थे। 
 
सहसा रौबीले किंतु बडे संयत स्वर में उन्होंने कहा, '' यहां मेरा कुनबा एकत्र है। 
 
मेरी पोती के ब्याह की विधियां संपूर्ण होने पर मैं अतीव प्रसन्न हूं। वर कन्या को मैं आशीष देता हूं। 
 
न न... ख़डे ना होना बच्चों बैठे रहो। चरण स्पर्श हो चुके। बैठे रहो... इत्मीनान से। '' 
 
 इतना कह कर हाथों के संकेत से उन्होंने वर कन्या को अपनी जगह पर बैठे रहने की आज्ञा दी। 
 
जिसका पालन हुआ। दादाजी की बातें जारी थीं।
 
'' हां तो मैं क्या कह रहा था...? हां याद आया सभी को खूब बधाई और आभार! आप सभी ने खूब मन लगा कर काम किया तभी तो इतना सुंदर उत्सव रहा! शाबाश!! '' सब लोग मुस्कुराने लगे। 
 
''अच्छा आज एक छोटा सा सवाल पूछूं? '' 
 
'' हां दादाजी पूछिए ना। ''  सामूहिक आवाजें हर तरफ से उठने लगीं।
 
 '' हां हां दद्दू पूछिए.... '' छोटे अतुल की महीन आवाज सुन सब हंस पड़े। दादाजी ने हाथ हिला कर सबको शान्त होने की संज्ञा दी। फिर सब शान्त हो गऐ।

दादाजी ने अपनी संयत व मधुर अवाज में पूछा, ''अच्छा बताओ तो कौन सा फूल सबसे श्रेष्ठ है ? "
 
प्रश्न सुन कर सब अश्चर्य चकित हो कर मुस्कुराने लगे। अरे! दादाजी को यह आज क्या हो गया है? यह कैसा प्रश्न इस अवसर पर? परंतु दादा जी का दबदबा ऐसा था कि स्वतः कोई कुछ बोला नहीं। सभी  प्रश्न का उत्तर सोचने लगे। स्त्रियां भी सोच में पड गई। दादाजी अब जरा मुस्कुराए। 
 
कहा, ''अरे भाई मैं कोई गूढ ग़म्भीर प्रश्न नहीं पूछ रहा। सीधा सा छोटा सा सवाल है। तुम सब अपने मन से जो उत्तर निकले कह देना। इतना सोच में पडने जैसा कुछ नहीं। "
 
 सारे लोग निःश्वस्त हो कर मुस्कुराने लगे।

छोटे चाचा जी जो बडे बातूनी थे झट से बोले, '' बाबा मैं तो गुलाब को ही सर्वश्रेष्ठ कहूंगा।

'' दादाजी बोले, ''चलो ठीक है नवीन, गुलाब ही सही.... तो तुम्हारी पसंद गुलाब का फूल है। ...और कोई  '' उन्होंने आगे पूछा। अब हर दिशा से एक फूल का नाम सुनाई देने लगा। किसी ने पुकार कर कहा, ''दद्दू सूरजमुखी.... वो तो कितना बड़ा फूल है ना और जिस-जिस दिशा में सूर्य घूमता है सूरजमुखी का फूल भी उसी ओर मुड ज़ाता है।'' दादाजी ने सिर हिलाया और मुस्कुराए।
 
 भाभी बोलीं, ''दादाजी मोगरा! जिसकी वेणी बनाकर मैं अपने जूड़े पर पहनती हूं।
 
 '' छोटी चाची बोलीं, ''अरी मोगरे से तो जुही का गजरा ज्यादा खुशबू देता है। सो मैं तो कहूंगी कि जुही का फूल सर्वश्रेष्ठ है। ''
 
बडी चाचीजी कुछ सोच कर बोलीं, ''केवडा भी तो फूल ही कहलाएगा क्यों? गणेश जी के आगे पूजा में रखती हूं तो वही श्रेष्ठ है।" 
 
अम्मा जो दुल्हन की मां थीं बोलीं,  ''कमल! लक्ष्मी मैया जिस पर विराजे रहती है, मैं तो उस कमल के पुष्प को ही श्रेष्ठ कहूंगी... सबमें। " 
 
दादाजी अब खुल कर मुस्करा रहे थे। सभी के सुझाव भी सुनते जा रहे थे।
 
अलग-अलग फूलों के गुणों तथा उनकी महत्ता के बखान को सुनकर सब खुश हो रहे थे।
 
दादाजी ने अब भी किसी फूल को श्रेष्ठ नहीं कहा था। अब देसी फूलों से चल कर विदेशी फूलों के नाम भी आने लगे। 
 
लिली, लवंडर, टयूलिप, कारनेशन, एस्टर वगैरह वगैरह। धीर-धीरे सबके स्वर मंद पड़ने लगे। 
 
दादाजी आंखें मीचे कुछ सोचे जा रहे थे। तभी सारे चुप हो गये। वातावरण शांत हो गया।
 
'      'दादु....'' एक महीन स्वर उठा। यह मधुर स्वर था नई नवेली दुल्हन का। सारे संबंधी नववधू की ओर देखने लगे। वह लजा गयी। आंखें नीची किये वह शर्म से गठरी हो गई। 
 
दादू सतर्क थे। कहा, ''बेटी शर्माओ मत। बोलो तुम्हें कौन सा फूल पसंद है।  बोलो बेटा..."
 
    दादाजी के ममत्व से भीगे प्यार दुलार भरे आग्रह से कुछ हिम्मत जुटाकर कन्या मीठे स्वर में कहने लगी,'' दादु श्रेष्ठ फूल है रूई का। '' 
 
''क्या कहा? " कोई आश्चर्य से चौंक कर बोल उठा ! '' रूई का फूल? कपास का फूल? कर्पाशा? वह कैसे? '' 
 
कन्या ने कहा, ''रूई का फूल लेकर मैने उससे एक धागा बुना। मेरे वीरजी के हाथ पर उसकी राखी बांध दी। जो हिस्सा बचा उसे अपनी हथेली पर रख कर बटा और बट कर दीपक के लिए बाती बनाई। दीप की लौ प्रज्जवलित कर के मैने उसे ईश्वर की सेवा में रखा। प्रभु की पूजा की। रूई के फाहे को धारण किए यह पुष्प भले रंग, रूप, गंध न रखता हो मगर उसकी निर्मल स्वच्छता में कितने सारे गुण छिपे हैं।
 
 रूई का वस्त्र हम मनुष्यों की लज्जा का आवरण बनता है सो वही श्रेष्ठ है। '' 
 
दादाजी ने नवपरिणीता कन्या का सुझाव सुनकर प्रसन्नता से आगे बढ़, अपनी पौत्री को अपन सीने से लगा लिया।
 
''मेरी नन्ही बिटिया! हां तुम्हारा उत्तर भी श्रेष्ठ है और तुम्हारी पसंद भी। सच कह रही हो ! कितना उपयोगी पुष्प है रूई का। दीपक होता है पुरुष जिसका प्रकाश सारा संसार देखता है। परंतु रूई की बाती तिल-तिल कर के दीपक में लौ बन कर समाई जलती रहती है। वह बाती स्त्री है।''
 
दादु ने फिर बिटिया को प्यार से गले से लगाया। 
 
भर्राए गले से गंगा सी पवित्र अश्रुधारा से उसे आशीर्वाद सा अभिसिक्त करते दादाजी ''मेरी बिटिया, मेरी भोली बेटी '' कह कर आंखें मीचे खड़े थे।

 छलछलाते आंसुओं की भावधारा से विभोर दादु की लाड़ली क्षण भर के लिए सबकुछ भूल गई। सारी भीड़ इस परम पावन दृष्य को एकटक देख रही थी। सबकी आंखें भर आई। 


 
सभी की आंखों के आगे अपने शैशव से अबतक बिताए अपने जीवन के पल चलचित्र की तरह साकार हो रहे थे। सोच रहे थे, ''यही तो संसार की रीत है। ''
 लग्न हवेली के प्रवेश द्वार से तभी विदाई के सुर छेड़ती शहनाई गूंज उठी। विदा वेला आ पहुची थी। दादु अपनी प्यारी दुलारी बिटिया को थामे हुए हृदय पर पाषाण रखे उसे अपने वर के घर विदा करने के लिए एक-एक पग अहिस्ता आहिस्ता आगे बढाते हुए चल पडे। कन्या के विदा की मार्मिक वेला आ पहुंची थी।
 
- लावण्या दीपक शाह