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मेरा ब्लॉग : वेल्थ के हवाले हेल्थ...

मेरा ब्लॉग : वेल्थ के हवाले हेल्थ... - wealth is health
- श्री जावेद अनीस (स्वतंत्र पत्रकार)
 
 
भारतीय संविधान अपने नागरिकों को 'जीवन की रक्षा का अधिकार' देता है। राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में भी 
'पोषाहार स्तर, जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य में सुधार करने को लेकर राज्य का कर्तव्य''
की बात की गई है। लेकिन जमीनी हकीकत ठीक इसके विपरीत है।

हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा भयावह रूप से लचर हैं। सरकारों ने लगातार लोक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी से अपने आप को दूर किया है। नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद तो सरकारें जनस्वास्थ्य के क्षेत्र को पूरी तरह से निजी हाथों में सौंपने के रोडमैप पर चल पड़ी हैं। हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाएं काफी खर्चीली और आम आदमी की पहुंच से काफी दूर हो गई हैं। निजी अस्पतालों को अंतिम विकल्प बना दिया गया है, जहां इलाज के नाम पर इतनी उगाही होती है कि आम आदमी उसको वहन नहीं कर पाता। भारत सरकार की पूर्व स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव का कहना है कि 'भारत में स्वास्थ्य जैसा महत्वपूर्ण विषय बिना किसी विजन और स्पष्ट नीति के चल रही है।'
 
आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर तेजी से अग्रसर भारत में स्वास्थ्य सेवाएं कितनी लचर हैं इसका अंदाजा इस
बात से लगाया जा सकता है कि विश्व स्वास्थ्य सूचकांक में शामिल कुल 188 देशों में भारत 143वें स्थान पर
खड़ा है। हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में सबसे कम खर्च करने वाले देशों की सूची में बहुत ऊपर हैं, विश्व स्वास्थ्य
संगठन की सिफारिशों के अनुसार किसी भी देश को अपने सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का कम से कम
5 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिए, लेकिन भारत में पिछले कई दशक से यह लगातार 1 प्रतिशत
के आसपास बना हुआ है।
 
इसके असर में हम देखते हैं कि देश में प्रति दस हजार की आबादी पर सरकारी और प्राइवेट मिलाकर कुल
7 डॉक्टर ही हैं जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार प्रति, एक हजार आबादी पर, एक डॉक्टर
होना चाहिए। पिछले दिनों केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने राज्यसभा में बताया था कि देश भर में चौदह लाख डॉक्टरों
की कमी है। विशेषज्ञ डॉक्टरों के मामले में तो स्थिति और भी बदतर है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की रिपोर्ट के
अनुसार सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु रोग जैसे चिकित्सा के बुनियादी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत डॉक्टरों की कमी है।
ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। स्वास्थ्य सेवाएं, मुख्य रूप से शहरी इलाकों
तक ही सीमित हैं जहां भारत की केवल 28 आबादी निवास करती है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में 75
प्रतिशत डिस्पेंसरियां, 60 प्रतिशत अस्पताल और 80 प्रतिशत डॉक्टर शहरों में हैं। 
 
भारत के नीति निर्माताओं ने स्वास्थ्य सेवाओं को मुनाफा पसंदों के  हवाले कर दिया है। आज  भारत उन अग्रणी मुल्कों में शामिल है जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य का तेजी से निजीकरण हुआ है। आजादी के बाद देश में
निजी अस्पतालों की संख्या 8 प्रतिशत से बढ़कर 93 प्रतिशत हो गई है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं के कुल निवेश
में निजी क्षेत्र का निवेश 75 प्रतिशत तक पहुंच गया है। निजी क्षेत्र का प्रमुख लक्ष्य मुनाफा बटोरना है जिसमें
दावा कम्पनियां भी शामिल हैं, जिनके लालच और दबाव में डॉक्टरों द्वारा महंगी और गैरजरूरी दवाइयां और जांच
लिखना बहुत आम हो गया है। निजी अस्पताल कितने संवेदनहीन है इसकी कहानियां हर रोज सुर्खियां बनती हैं,
इसी तरह की एक कहानी छत्तीसगढ़ के कोरबा की हैं जहां पिछले साल अपोलो अस्पताल के मैनेजमेंट ने इलाज
का 2 लाख रुपए का बिल नहीं दे पाने पर तीरंदाजी की राष्ट्रीय खिलाड़ी का शव देने से मना कर दिया था।
 
स्वास्थ्य सेवाओं में निजीकरण के खेल को मध्यप्रदेश के अनुभव से समझा जा सकता है जहां 2015 में राज्य
सरकार ने गुजरात के गैर सरकारी संगठन दीपक फाउंडेशन के साथ करार किया था। दीपक फाउंडेशन
आदिवासी बहुल जिला अलीराजपुर में कार्य करते हुए, शिशु व मातृ मृत्यु दर में कमी लाने के लिए काम करेगा।
बाद में इस मॉडल को प्रदेश के अन्य जिलों में भी लागू करने की योजना थी। यह करार करते समय राज्य
सरकार द्वारा उन सभी दिशा-निर्देशों की अवहेलना की गई, करार करने के पहले न तो कोई विज्ञापन जारी
किया और न ही टेंडर निकाले गए। बाद में सरकार के इस फैसले को लेकर जन स्वास्थ्य अभियान द्वारा
हाइकोर्ट में याचिका दायर करते हुए चुनौती दी गई थी जिसमें कहा गया था कि प्रदेश सरकार द्वारा
जनभागीदारी योजना के तहत 27 जिलों की स्वास्थ्य सेवाएं, ठेके पर देने की तैयारी की जा रही है और यह
निजी संस्था को फायदा पहुंचाने का प्रयास है।
 
जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. इमराना कदीर कहती हैं कि 'जन स्वास्थ्य लोगों की आजीविका से जुड़ा़ मुद्दा है।
भारत की बड़ी आबादी गरीबी और सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़ेपन का शिकार है। ऊपर से स्वास्थ्य
सुविधाओं का लगातार निजी हाथों की तरफ खिसकते जाने से उनकी पहले से ही खराब स्थिति और खराब होती
जा रही है। कई अध्ययन बताते हैं कि इलाज में होने वाले खर्चों के चलते भारत में हर साल लगभग चार करोड़
लोग गरीबी की रेखा के नीचे चले जाते हैं। रिसर्च एजेंसी अर्ने‌स्ट एंड यंग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक
देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक
हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देती है। इस वजह से हर साल चार फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे
आ जाती है।
 
पिछले दिनों केंद्रीय कैबिनेट ने 15 मार्च 2017 को नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को मंजूरी दे दी है जिसे एक
क्रांतिकारी पहल बताया जा रहा है। लेकिन नीति भले ही नई हो परन्तु ट्रेक वही पुराना है। नई नीति में स्वास्थ्य
को नागरिकों का अधिकार नहीं बताया है और इसमें कहा गया है कि विशेषज्ञ और शीर्षस्तरीय इलाज में निजी
क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाया जाएगा। नीति में सरकारी अस्पताल में इसकी सुविधा न होने पर लोगों को विशेषज्ञ
इलाज के लिए, निजी अस्पताल जाने की भी बात कही गई है और इसमें राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत
निजी अस्पतालों को इसके लिए तय रकम देने का प्रावधान शामिल है।
 
भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र हद दर्जे तक उपेक्षित है जहां से इसे बाहर निकलने के लिए बहुत ही बुनियादी
नीतिगत बदलावों की जरूरत पड़ेगी, जिसमें स्वास्थ्य क्षेत्र में सावर्जनिक निवेश में जबरदस्त बढ़ोतरी चिकित्सा
शिक्षा में निजीकरण पर पूरी तरह से रोक और निजी अस्पतालों पर लगाम लगाने के लिए, कठोर कानून बनाने
जैसे क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। लेकिन ऐसा होना आसान नहीं है इसके लिए जबरदस्त जनदबाव की जरूरत
पड़ेगी। (सप्रेस)
 
साभार - सर्वोदय प्रेस समिति