मंगलवार, 19 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. मेरा ब्लॉग
  4. Supreme Court verdict on false campaign against Modi and Gujarat riots

मोदी के विरुद्ध झूठा अभियान और गुजरात दंगे पर उच्चतम न्यायालय का फैसला

मोदी के विरुद्ध झूठा अभियान और गुजरात दंगे पर उच्चतम न्यायालय का फैसला - Supreme Court verdict on false campaign against Modi and Gujarat riots
गुजरात दंगों पर उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ का फैसला इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को दंगों की साजिश रचने के आरोपों से बरी किए जाने पर मुहर लगी है और इसके विरुद्ध अभियान चलाने वाले को झूठा कहा गया है।

न्यायालय के फैसले में स्पष्ट लिखा है कि विशेष जांच दल यानी एसआईटी की अंतिम रिपोर्ट के विरुद्ध दायर याचिका आधारहीन ही नहीं, गलत बयानों और तथ्यों से भरी थी। याचिका में कहा गया था कि गोधरा घटना के बाद राज्य में हुई हिंसा के पीछे उच्चस्तरीय साजिश थी और यह पूर्व नियोजित थी।

जैसा कि हम जानते हैं लंबे समय तक नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगा का खलनायक साबित करने के लिए अनेक एनजीओ, राजनीतिक पार्टियां, नेता, एक्टिविस्ट, पत्रकार, कानूनविद, कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीश अभियान चलाए हुए थे। सबका लक्ष्य एक ही था कि किसी तरह साबित करो कि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने साजिश रच कर मुसलमानों के विरुद्ध दंगे कराए और मंत्री, नेता, कार्यकर्ता, पुलिस, प्रशासन सब उनके निर्देश पर काम कर रहे थे।
451 पृष्ठों के विस्तृत फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट कहा है इस तरह के आरोपों को प्रमाणित करने के लिए एक भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। न्यायालय ने इससे आगे बढ़कर कहा है कि मामले को गर्म बनाए रखने के लिए याचिकाकर्ताओं ने कानून का दुरुपयोग किया। इसी आधार पर न्यायालय ने मामले को सनसनीखेज बनाने वाले अधिकारियों के खिलाफ कानून सम्मत कार्रवाई की अनुशंसा की है। क्या इसके बाद अलग से कुछ कहने की आवश्यकता रह जाती है कि गुजरात दंगों को लेकर किस तरह के झूठे और एकपक्षीय अभियान चलाए गए?

तीस्ता सीतलवाड़ से लेकर गुजरात के पूर्व डीजीपी श्री कुमार आदि की गिरफ्तारी तथा आगे अन्यों की संभावित गिरफ्तारी पर भी छाती पीटने वाले लोग हैं। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने यूं ही तो नहीं उन सबके विरुद्ध कानून सम्मत कार्रवाई की बात कही है। उच्चतम न्यायालय के फैसले को इस रूप में लिया गया है कि दंगा कराने के आरोपों से वर्तमान प्रधानमंत्री एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी बेदाग और निर्दोष साबित हुए हैं।

सच यह है कि विशेष जांच दल यानी सीट ने उन्हें बरी किया था और इस पर न्यायालयों की मुहर भी लग गई थी। जिनका एजेंडा दंगों की सिहरन भरी यादों को बार-बार कुरेद कर जिंदा रखने में था, जिन्होंने देश और दुनिया में पूरा झूठ फैलाया और उसके आधार पर काफी कुछ प्राप्त किया वे कैसे इसे स्वीकार कर चुप बैठ सकते थे। तीस्ता सीतलवाड़ ने जाकिया जाफरी को हथियार बनाया और उनके माध्यम से बार-बार अपील दायर करवाई। न्यायालय ने इसका विवरण देते हुए कहा है की 8 जून, 2006 को 67 पृष्ठ की शिकायत दी गई थी। इसके बाद 15 अप्रैल, 2013 को 514 पृष्ठों की प्रोटेस्ट पिटिशन दाखिल की गई। इसमें उन सभी लोगों की निष्ठा पर सवाल उठाया गया था, सबको झूठा बेईमान बताया गया जो प्रक्रिया में शामिल थे।

जरा सोचिए,  2002 के फरवरी-मार्च में दंगे हुए और हफ्ते भर के अंदर शांत भी हो गए। जिनका एजेंडा हर हाल में मुसलमानों के अंदर भय पैदा करना, हिंदू मुसलमानों के बीच विभाजन की खाई पैदा कर नरेंद्र मोदी, भाजपा, संघ आदि को मुसलमानों का खलनायक साबित कर अपना स्वार्थ साधना था वे हर प्रकार के सनसनी के झूठे तथ्य सामने लाकर अभियान चलाते रहे। उस समय की कानूनी स्थितियों पर को याद करिए। मानवाधिकार आयोग, उच्चतम न्यायालय, निचले न्यायालय, उच्च न्यायालय और अंततः दंगों से जुड़े मामलों को गुजरात से बाहर महाराष्ट्र में स्थानांतरित करवाना…. क्या क्या नहीं हुआ। प्रचारित यही होता था कि चुके मोदी ने दंगे करवाए इसलिए वह हर प्रकार की कानूनी कार्रवाई व न्यायिक प्रक्रिया को बाधित  कर रहे हैं।

एसआईटी ने क्लीन चिट दे दी तो उस पर भी प्रश्न इन लोगों ने उठाना शुरू कर दिया। न्यायालय ने सीट के रिपोर्ट के बारे में जो कहा है उस पर नजर डालिए— एसआईटी की फाइनल रिपोर्ट जैसी है वैसी ही स्वीकार होनी चाहिए। न्यायालय ने इसकी रिपोर्ट को तथ्यों और ठोस तर्को पर आधारित कहा है,जिसमें और कुछ करने की जरूरत नहीं है।

दंगे हुए यह सच है और उसमें दिल दहलाने वाली घटनाएं हुई। समस्या यह है कि विरोधियों ने दंगों की एकपक्षीय ऐसी तस्वीर बनाई जिससे लगता था कि 27 फरवरी, 2002 को अयोध्या से साबरमती एक्सप्रेस से लौट रहे 59 कारसेवकों को गोधरा स्टेशन पर दो कोच में आग लगा कर जिंदा जलाने की घटना से इनका कोई लेना-देना नहीं हो। ये ऐसे वक्तव्य देते थे मानो ट्रेन में जिंदा जलाए जाने वाले लोग मनुष्य थे ही नहीं। गोधरा कांड को अलग कर देंगे तो गुजरात दंगा समझ ही नहीं आएगा। रेल दहन के विरुद्ध आक्रोश पैदा हुआ और लोगों ने मुसलमानों पर हमला शुरू कर दिया। 26 मार्च, 2018 को उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई के पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता में विशेष जांच दल का गठन किया था। 8 मार्च, 2012 को क्लोज रिपोर्ट में मोदी और 63 लोगों को बरी किया गया।

इसे न्यायालय में चुनौती दी गई।  उच्चतम न्यायालय की मॉनिटरिंग में दंगों से संबंधित सारे मामलों की छानबीन करने वाले विशेष जांच दल यानी सीट को पूरी बुद्धि लगाकर भी मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी तथा अन्य लोगों द्वारा मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा कराने की साजिश नजर नहीं आई, मजिस्ट्रेट न्यायालय और फिर उच्च न्यायालय ने भी इसे सही माना लेकिन तीस्ता सीतलवाड को ये सब दोषी नजर आते रहे। इसका मतलब जानबूझकर गलत उद्देश्य से अभी तक मामले को खींचा गया था। ऐसा नहीं है कि उस दंगे के लिए कोई दोषी नहीं हो। अब तक कई नेताओं सहित अधिकारियों और पुलिस के लोगों को सजा मिल चुकी है। उच्चतम न्यायालय ने यही कहा है कि कुछ अधिकारियों की निष्क्रियता या विफलता को राज्य प्रशासन की पूर्व नियोजित आपराधिक साजिश नहीं कहना चाहिए। अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति इसे राज्य प्रायोजित अपराध भी नहीं कहा जा सकता है।

उच्चतम न्यायालय के फैसले का एक महत्वपूर्ण पक्ष गुजरात सरकार के कुछ अधिकारियों के खिलाफ कड़ी टिप्पणियां तथा कानूनी कार्रवाई की मुखर अनुशंसा है। पीठ ने लिखा है कि इनमें गलत उद्देश्य के लिए मामले को जारी रखने की बुरी मंशा नजर आती है। इसमें लिखा है कि जो प्रक्रिया का इस तरह से गलत इस्तेमाल करते हैं उन्हें कटघरे में खड़ा करके उनके खिलाफ कानून के दायरे में कार्रवाई की जानी चाहिए।  अगर ये नहीं होते तो गुजरात दंगों के घाव कब भर जाते। लेकिन कुछ राजनीतिक इरादे वाले एनजीओ, एक्टिविस्टों, पत्रकारों और नेताओं के लिए वह इस कारण भी मुख्य एजेंडा था क्योंकि इसके कारण उनको सम्मान के साथ धन भी प्राप्त हो रहा था। जाहिर है ,इनके खिलाफ व्यापक जांच की आवश्यकता है ताकि यह तलाश किया जा सके कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया और कहीं भारत विरोधी शक्तियां भी तो इनके साथ नहीं लगी हुई थी।

इसमें कुछ अधिकारियों का नाम लिखा गया है जिसमें संजीव भट्ट, हरेन पांड्या, आरबी श्रीकुमार आदि शामिल है। इसमें लिखा है कि राज्य सरकार के इस तर्क में दम नजर आता है कि भारतीय पुलिस सेवा के तत्कालीन अधिकारी संजीव भट्ट, गुजरात के पूर्व गृह मंत्री हरेन पांड्या और भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी आरबी श्रीकुमार की गवाही केवल मुद्दे को सनसनीखेज और राजनीतिक बनाने के लिए थी। तो न्यायालय ने अपना जो निष्कर्ष दिया है वह महत्वपूर्ण है। उसने लिखा है कि अंत में हमें ऐसा लगता है कि गुजरात के असंतुष्ट अधिकारियों के साथ-साथ अन्य लोगों का प्रयास गलत बयान देकर सनसनी पैदा करना था। विरोधी इसे राज्य प्रायोजित मुस्लिम हत्या की ही संज्ञा देते रहे हैं। दुनिया भर में इसे राज्य द्वारा मुस्लिम नरसंहार के रूप में प्रचारित किया गया और इस अभियान का कितना नकारात्मक असर हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं।

लंबे समय तक विदेश यात्रा करने वाले भारत के नेताओं से इस पर प्रायोजित प्रश्न पूछे जाते रहे। कई देशों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने इसे उठाया। अमेरिका ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में घोषणा कर दी कि उन्हें वहां आने का वीजा नहीं दिया जाएगा। पूरी दुनिया में केवल नरेंद्र मोदी की बदनामी नहीं नहीं हुई बल्कि भारत की छवि कलंकित हुई। 2002 के बाद से भारत में पकड़े गए कई आतंकवादियों ने कहा कि गुजरात दंगों के बारे में जो बताया गया उससे वह आतंकवादी बना। कल्पना किया जा सकता है कि झूठे प्रचार से देश को कितनी हानि हुई होगी। तो इसके लिए किसे जिम्मेदार ,दोषी या अपराधी माना जाए ? कानूनी एजेंसियों की छानबीन से ही इस साजिश का पूरा सच सामने आएगा और हो सकता है ऐसे तथ्य भी हाथ लगे जिनसे हम आप वाकिफ नहीं है। इनको सजा मिलने के बाद ही गुजरात दंगों से संबंधित कानूनी कार्रवाई और प्रक्रियाएं पूर्ण होंगी। अभी तक यह अधूरी है। उच्चतम न्यायालय ने इसका रास्ता प्रशस्त कर दिया है।

नोट :  आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्‍यक्‍त विचारों से सरोकार नहीं है।
ये भी पढ़ें
ऑफिस के लिए कैजुअल आउटफिट- जाने कैसा हो आपका ऑफिस लुक