जीवन की आपाधापी एवं विस्तारित होती जीवन शैली में कई बार हम ऐसे विषयों से रुबरु होते हैं या कि उसी की प्रक्रिया के सहभागी होते हैं जिसके चलते हम अपने से जुड़े लोगों के स्वभाव से नाखुश हो जाते हैं।
इसके चलते हम कई बार पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर उनके प्रति अपनी एक अलग धारणा बना लेते हैं। यह जीवन है जो बहुआयामी है तथा ऐसा होना तय सा होता है कि कभी-कभार सबकुछ हमारी सोच या हमारे तरीके से न हो पाए। क्योंकि चीजे सदैव हमारे अनुकूल रहें इस बात की हमेशा गारंटी नहीं दी जा सकती है। जीवन तो वैसे भी वक्त के थपेड़ों और अनेकानेक झंझावातों से जूझता रहता हैं।
कई बार हम लोगों से जिन चीजों की अपेक्षा करते हैं, बदले में वे चीजें प्राप्त होने के बजाय इसके ठीक उलट हम उपेक्षा के शिकार हो जाते हैं। तब हम एक प्रकार से अपने अन्दर उपेक्षित होने का भाव महसूस करने लगते हैं इससे हमारे अन्दर ही अन्दर भावनाओं के उद्वेग के चलते बहुत कुछ परिवर्तित सा होने लगता है।
इसके पीछे हमारा अब तक का जीवन क्रम ही होता है जिसमें हमें हमेशा प्राथमिकता या वरीयता प्राप्त होना, प्रशंसा, मांगों का स्वीकार किया जाना, इच्छापूर्ति एवं सभी जगह अपनी स्वीकार्यता की आदत सी हो जाती है। लेकिन जब कभी भी इसके इतर हमारे जीवन में ऐसा कुछ घटता है जिसकी हमने कल्पना या अपेक्षा नहीं की होती है कि हमारे साथ भी प्रतिकूल व्यवहार हो सकता तो स्वाभाविक तौर पर हम खुद को असहाय या कमजोर समझने लग जाते हैं। यहां तक कि कभी -कभी ऐसा भी होगा कि हम गहरे अपराधबोध एवं हीनभावना से भी भर जाते होंगे।
ऐसी स्थिति में हमें थोड़ा सम्हलना और संतुलित होकर इस विषय के बारे में सोचना चाहिए कि आखिर! हमारे साथ ही ऐसा बर्ताव क्यों हुआ? साथ ही उपेक्षा के पीछे हमारी कार्यशैली भी तो हो सकती है, जिसे हमने प्रारंभिक तौर पर धीरे-धीरे नजरअंदाज कर दिया। लेकिन वही बात अगले व्यक्ति के मन में धीरे-धीरे बड़ा आकार लेती चली गई और जिसकी परिणति यह हुई कि हमारे प्रति अगले व्यक्ति के मन में हमारे विपरीत धारणा बन गई जिसकी वजह से हमें उसकी उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। या कि ऐसा भी हो सकता है कि उस समय वह अपनी निजी जिन्दगी में उलझा सा रहा हो।
किन्तु होता क्या है कि- हम दूसरों के द्वारा अपने प्रति किए जाने वाले इस तरह के व्यवहार से नाखुश हो जाते हैं तथा फिर अपने मन को झूठी दिलासा देने या कि बदला लेने के दृष्टिकोण की मंशा पाल लेते हैं।
इस कारण से हम कई बार अपनी उन्हीं धारणाओं को अंतिम सत्य मानने की भूल कर बैठते हैं जो हमने अपने पूर्वाग्रहों के चलते निर्मित की है। जब एक से होती हुई यह चीजें श्रृंखलाबद्ध तरीके से हमारे जीवन में अपनी अभिन्न भूमिका निभाने लगती हैं, तो हम एक प्रकार से स्वयं को रास न आने वाली छोटी-छोटी बातों के विरोध में न्यायाधीश की भूमिका निभाने लगते हैं।
हम यह मान बैठते हैं कि अगले व्यक्ति के प्रति हमारी जो धारणा है वह ही उसका स्वभाव है। यहां यह चीज ध्यान देने योग्य है कि हम किसी भी परिस्थिति में यह सोचने या विचारने का साहस नहीं कर पाते कि कहीं न कहीं इसके पीछे की अहम कड़ी हम ही तो हैं। जो कि उन बातों या चीजों से प्रारंभ हुई जो परस्पर नासमझी और एक-दूसरे को सबक सिखाने तथा स्वयं के श्रेष्ठता बोध के चलते इतना बड़ा आकार लेकर हमारे स्वभाव की नम्रता, सहिष्णुता तथा सरसता को प्रभावित कर उसे कसैला बनाने का सबसे बड़ा कारण बनी।
इन्हीं सब चीजों के चलते ही हमारी एक प्रवृत्ति सी हो चुकी है कि हम दूसरों के स्वभाव एवं उसकी जीवन शैली की समीक्षा एवं विश्लेषण करने में अपनी ऊर्जा खपाते रहते हैं। इसके साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही नजरिए के हिसाब से सभी पैमानों में देखना चाहते हैं। हम दूसरों के स्वभाव में अपने प्रति व्यवहार में आए परिवर्तन को तो महसूस करते हैं, लेकिन दूसरी ओर अक्सर हम यह भूल जाते हैं कि अचानक से व्यवहार में आए इस परिवर्तन के पीछे कारण क्या हैं? ऐसा भी तो हो सकता है कि इसके पीछे के जिम्मेदार हम ही हों? किन्तु हमें तो इस चीज की बिल्कुल ही चिन्ता नहीं रहती। क्योंकि हम यह मान चुके होते हैं कि दूसरे व्यक्ति के प्रति हमारी समीक्षा, हमारे, विश्लेषण, हमारे निर्णय ही असलियत एवं सर्वोत्तम व्याख्या या विश्लेषण हैं।
जबकि हमें यह चाहिए होता है कि जितनी गहराई एवं तन्मयता के साथ हम दूसरों के बारे में अपनी राय बनाने या समीक्षा करने में अपनी ऊर्जा एवं शक्ति को तुलनात्मक तरीके से या कि सीधे न्यायाधीश बनकर अपनी सोच को ही सही मानने की जिद या हद तक हठधर्मिता करने में लगाते हैं। काश! उसके दशांश भाग को ही अपने कार्य-व्यवहार, स्वभाव, जीवन शैली एवं स्वयं की समीक्षा एवं आत्मावलोकन में लगाएं तो सम्भवतः हम उन सवालों के जवाब स्वतः प्राप्त कर पाने में सफल होंगे जो हम दूसरों में ढूंढ़ने या उनमें परिवर्तन करने की आवश्यकता महसूस करते हैं। इसलिए सर्वप्रथम हमारी प्राथमिकता यही होनी चाहिए कि हम सीधे निर्णय देने की बजाय दूसरों को तौलने के पहले खुद को निष्पक्ष तराजू में तौलकर देखें।
इससे फायदा यह होगा कि वर्षों से स्नेह से पोषित और पल्लवित रिश्तों की दीवारों को महज कुछ चीजों /बातों की नासमझी और पूर्वाग्रहों के चलते दरकने से बचाया जा सकेगा, जिससे जीवन की खुशहाली का उपवन सदैव स्नेह, आत्मीयता, सामंजस्य के साथ हरा-भरा एवं सरसता के साथ चहचहाता रहेगा।
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नोट: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अभिव्यक्ति है। वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।