वो दिन कब आएगा कोई बताएगा जरा
? 'जिस दिन औरत अपने श्रमका हिसाब मांगेगी उस दिन मानव इतिहास की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी चोरी पकड़ी जाएगी! सदियां बीत गईं। बिना बात के जुमले उछालें और फिर उसको रिंग रिंग करके घिसते रहो।
पहली बात तो औरत को इंसान मानने के ही लाले पड़े हुए हैं। श्रम तो बहुत दूर की बात है। फिर भी श्रम और औरत पर्याय है। पैदाइशी श्रमिक। ज्यादातर बंधुआ। आज भी परिवारों में पुरुष बैठे रहते हैं औरतें कमातीं हैं। घरों में आने वाली हमारी महिला सहायकों की ही जिंदगी देख लें।
मुझे याद आतीं हैं अपने बचपन की वो ढोल वाली दादी
, जो अपने गले में बड़ा सा ढोल बांधे शुभोत्सवों में हमेशा हाजिर होतीं थीं। हाथों में ढ़ोलक बजाने की ताडियां होतीं थीं। शगुन और ठहराए हुए पैसों के आलावा वारे हुए पैसों से अपने घर चलातीं थीं।
वो नावन अम्मा
, जो सुबह से जच्चा-बच्चा की सेवा में घरों घर भागा करतीं थीं। बुलावा देने से ले कर शादी
, सूरज पूजन और कई मौकों में पूजा की थाली लिए और हल्दी लेपन का काम बखूबी निभातीं। यहां एक बात और बताती चलूं कि ये और इनके जैसी सभी महिलाएं घर के सदस्य के सामान ही होतीं और सारे काम इतने अपनत्व और प्यार से करतीं जैसे इनके ही घर का काम हो।
वो सब्जियों
, पीली मिट्टी
, राखोड़ी
, कंडे
, जलाऊ लकड़ियों के ठेले ढकेलती रंग-बिरंगे लुगड़े पहने
, घेरदार घाघरे और टूटी चप्पलें या मोजड़ियों को पैरों से दबाये
, जो ज्यादातर अंगूठे और एड़ियों से फटे रहते। आंगन लीपने वाली सन्तु ताई
, कैसे एक जैसी लिपाई करतीं। सुनहरा उठ आता आंगन। परकोटे के कंगूरे इतनी कुशलता से छाबती जैसे मशीन से बने हों।
उन्हें कैसे भूल सकते हैं जो छाबड़ी में फलों और दूध
, घी
, माखन
, शहद लिए गली गली घूमतीं। और वे भी तो जो रंग-बिरंगी चूड़ियों के साथ बनाव-सिंगर का सामान भी लिए सभी औरतों को ललचाये फिरतीं। वो दर्जिन मामी जो बरसों से सभी घरों की कांचली
, ब्लाउज
, पेटीकोट
, फ्रॉक
, स्कर्ट
, सलवार कुरता और भी सभी मनमाफिक कपड़े झालरदार
, लेसदार
, जेब वाले जैसे चाहो वो बना देती। बुनने
, कढ़ाई-क्रोशिये तक बनवा लें। पर खुद हमेशा साधारण कपड़ों में ही दिखतीं।
कमर में तमाखू-चूने और सरोता-सुपारी का बटुआ खोंसे उन दाई मां की तो बात ही अलग है। कहते थे उसके हाथो से हुई जचकी कभी नहीं बिगड़ी। हमारे बाबूजी से लेकर भतीजे तक तीन पीढ़ी की डिलीवरी उन्हीं के हाथों हुईं। डॉक्टर से ज्यादा उन पर भरोसा था सभी को।
झक्क सफेद साड़ी में नही-धोईं साफ़ सुथरी रसोइयन महराजिन मौसी। कैसी मुलायम रोती होती थी उनके हाथों की। जैसी मलाई वो दिखतीं थीं न वैसी ही उनके हाथों के बनाए खाने का जादू भी होता। उनकी रसोई की खुशबू सबकी भूख जगा देती। मिठाइयों में तो उनका कोई जवाब नहीं। याद नहीं कितनों के घर की अन्नपूर्णा थीं।
पहले तो स्कूल ले जाने वाली भी आया मां आया करती थीं। ढेर सारे एक ही गली के रहने वाले बच्चों को अपनी जिम्मेदारी से सम्हाल कर स्कूल ले जातीं
, छूटने पर घर छोड़ आतीं। पढ़ने के लिए भी मास्टरनी अपनी भूमिका निभातीं। पुरुषों के साथ
, पुरुषों के बाद
, केवल काम ही तो करतीं आईं है ये सभी कभी ख़ुशी से कभी मजबूरी में। गली में झाडू लगातीं
, माथे पर तगारी ढोतीं
, खदानों में कोयला निकालती
, खेतों में बोतीं-काटतीं. उससे भी बदतर मेला ढोतीं भाभियां भी
, महल्ले में पखाना साफ करतीं पानी डाल दो की आवाज लगाती वो झमकू भाभी भी याद आ रही है मुझे
, जिनका घूंघट ठोड़ी तक खिंचा हुआ होता जिसमें से उनका गोरा मुंह देखने की जिज्ञासा बनी रहती। उनकी चाय हमारे घर पर रोज बनाई जाती। बाहर के आलिये में उनका चीनी का कप रखा रहता जिसमें चाय कूड़ दी जाती
, दूर से। उन्हें छूने की सख्त मनाही जो थी। चाय पीने के बाद वो लोहे की गाड़ी
, जिसमें मैले की कोठियां रखीं होतीं वो झमकू भाभी खींच कर ले जातीं।
ऐसा ही कुछ तो हुआ करता था जीवन में। आज यदि थोड़ा बदला है तो श्रम का स्वरूप भी बदल गया। औरतों की बातें औरताने में रह जातीं थीं आज मर्दों के समकक्ष की बराबरी में आन पड़ीं है। हम किसी से कम नहीं की दौड़ में कोई जीत रहा कोई हार रहा। घर बाहर को सम्हालती लड़खड़ाती महिलाएं भी तो श्रमिक हैं। बस कहीं कहीं उन्हें पुरुषों और परिवार का साथ मिल जाये तो बोझ कम या हल्का हो जाता है।
पर चाहे जितना जोर लगा लो आज भी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के श्रम की कोई कीमत नहीं। और विकास का दम भरतीं सरकारें आरक्षण के बिस्कुट भले ही फेंक रहीं
, पर अमल और न्याय है कहां
? आंकड़े उठा कर तुलना कीजिये। आज भी हम उसी जुमले की जुगाली करते जा रहें हैं-
'जिस दिन औरत अपने श्रम का हिसाब मांगेगी उस दिन मानव इतिहास की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी चोरी पकड़ी जाएगी!
क्या चुइंगम की तरह इसे चबाये जा रहे हैं... थूकें इसे और मांगिये न श्रम का हिसाब
, पकड़िये न चोरी रोका किसने है
?
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)