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Last Updated : सोमवार, 6 अक्टूबर 2014 (19:39 IST)

मीडिया को जज करने वाली अथॉरिटी बने-रमेश भट्ट

मीडिया को जज करने वाली अथॉरिटी बने-रमेश भट्ट - Media
रमेश भट्ट का नाम देश के बड़े एंकर्स में शुमार है। वे 13 सालों से इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़े हैं। मीडिया इंडस्ट्री में उन्हें पूरी रिसर्च के साथ ख़बर दिखाने के लिये जाना जाता है। वे अपनी ख़बरों की तह तक जाते हैं और पूरी जानकारी के साथ ख़बर दिखाते हैं। फिलहाल वे न्यूज़ नेशन में एंकर हैं। उन्होंने 8 साल तक लोकसभा टीवी में भी अपनी सेवाएं दी हैं। इसके अलावा कई चैनलों में भी वे काम कर चुके हैं। हाल ही में रमेश भट्ट का आत्मीयतापूर्ण साक्षात्कार किया न्यूज़ नेशन के पत्रकार सुमित शर्मा ने। पेश है पत्रकारिता से जुड़े रोचक सवाल और उनके जवाब-  

क्या आपको लगता है कि मीडिया में मानवीय संवेदनाओं की जगह ख़बरों की अहमियत ज़्यादा रह गई है? हम रेप जैसे मुद्दों पर इतना विश्लेषण क्यों करते हैं?
जवाब- देखिए, मानवीय संवेदनाएं अपनी जगह हैं और ख़बरें अपनी जगह। अगर हम ख़बर नहीं दिखाते तो क्या रेप जैसे जघन्य अपराध के क़ानून में बदलाव मुमकिन हो पाता? शायद नहीं। लेकिन हां, मानवीय संवेदनाओं को माध्यम बनाकर TRP बटोरना ग़लत है। रेप का विश्लेषण करना ग़लत है। मीडिया को मुद्दे उठाने चाहिए लेकिन ऐसे मुद्दों के मानसिक विश्लेषण से बचना चाहिए।  
 
पत्रकारिता TRP पर फ़ोकस हो गई है। इसे पत्रकारिता की कितनी बड़ी क्षति मानते हैं?
जवाब- असल मायनों में ये पत्रकारिता का बेहद बड़ा नुक़सान है। इसके चलते पत्रकारिता का स्तर लगातार गिर रहा है। असली पत्रकारिता नफ़े-नुक़सान नहीं देखती। TRP तो बाज़ारीकरण की देन है। इसके सिस्टम में बदलाव लाना चाहिए।
 
आज मीडिया से असली मुद्दों वाली ख़बरें क्यों पीछे छूट रही हैं? 
जवाब- सवाल थोड़ा कठिन है, लेकिन ये बात सही है कि आज मीडिया अपने मूल उद्देश्यों से भटक गई है। मीडिया का जन्म लोकहित के लिए हुआ है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के लिए कहा गया है कि- 
'लोकतंत्र हितार्थाय विवेक लोकवर्धने, उद्बोधनाय लोकसत्ता प्रतिष्ठता।'
 
लेकिन मीडिया ने ख़ुद ही अपनी भूमिका बदल ली है। मीडिया से आज कृषि, ग्रामीण विकास, रोजगार जैसी कई अहम ख़बरें नदारद है। अब बाढ़-बगदादी, शंकराचार्य-साईं की ख़बरें ज़्यादा चलती हैं। कोई नहीं जानता कि इससे आम जनता को क्या फायदा होता है, लेकिन ये ख़बरें ज़्यादा चलाई जाती हैं। अब आप पूछेंगे क्यों तो मेरा जवाब है- TRP और TRP बाज़ार का दबाव है। मेरा मानना है कि ये दबाव भी हमेशा रहेगा लेकिन इसके चलते ख़बरें पीछे न छूट जाए, इसलिए इनमें संतुलन होना बहुत ज़रूरी है।
 
ये संतुलन किस तरह से लाया जा सकता है?
जवाब- देखिए सुमित, सबसे पहले तो जो रेटिंग सिस्टम है, उसे बदला जाना चाहिए। इससे बाज़ार का दबाव कम होगा। दर्शकों को वह बताएं, जो वह असल मायनों में वे जानना चाहते हैं। INB की स्टेंडिंग कमेटी को TRP सिस्टम बदलने के लिए सिफारिश करनी चाहिए। और तो और मीडिया के अग्रणी लोगों को भी ये मंथन करना चाहिए कि वास्तव में मीडिया की क्या इमेज बन रही है। लोग हम पर भरोसा करते हैं, हमें उनका विश्वास बरकरार रखना चाहिए। मेरा मानना है कि सब लोगों को इसमें अपना योगदान देना चाहिए।

चलिए ये तो हुई संतुलन की बात। अब दूसरे पहलुओं की बात करते हैं। क्या आपको लगता है कि मीडिया कई दफे सरकार के इशारों पर चलती है। राजनेताओं को मुनाफ़ा देने के लिए भी ख़बरें दिखाई जाती हैं?
जवाब- इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। न्यूज़ चैनल्स सरकार के कामों का खुलकर क्रिटिसिज्म भी तो करते हैं। न्यूज़ चैनल्स ने कई घोटालों का ख़ुलासा किया है। समय-समय पर ख़बरें आती रही हैं। अगर सरकार का दबाव होता तो ये ख़बरें पब्लिक के सामने ही नहीं आती।  
 
मीडिया ट्रायल को कहां तक उचित समझते हैं?
जवाब- मीडिया ट्रायल नहीं होना चाहिए। मीडिया का काम माध्यम बनकर ख़बरें दिखाना है। दबी हुई चीज़ों को निर्भीक होकर सबके सामने लाना है। किसी भी अंजाम की परवाह किए बग़ैर समाज के सामने सच दिखाना है। हमारा काम किसी को सज़ा देना कतई नहीं हो सकता। हम सुप्रीम कोर्ट नहीं हैं कि किसी को सज़ा दें।    
 
आपने कहा कि हम निर्भीक होकर ख़बरें दिखाएं। लेकिन कई ऐसी जगहें हैं जैसे- छत्तीसगढ़, अरुणाचल, नॉर्थ ईस्ट वगैरह जहां कई वारदातें तो होती हैं लेकिन ख़बरें नहीं बनती। क्यों?
जवाब- नहीं, ऐसी ख़बरें बननी चाहिए। हमें वहां के लोगों की, आदिवासियों की समस्याएं जाननी चाहिए। सही मायनों में हमें मंथन करने की जरूरत है। फॉरेस्ट राइट एक्ट पर कितने प्रोग्राम बने? हम सबको मिलकर सोचने की ज़रूरत है। 
 
अब ज़रा मीडिया की भाषा की बात करते हैं। क्या आपको लगता है कि मीडिया ने भाषा का नुक़सान किया है?
जवाब- ये नुक़सान नहीं, वक़्त की दरकार है। मीडिया आम बोलचाल की भाषा बोलती है। आप बताइए, क्या संसद या मंत्रालय की भाषा का इस्तेमाल करना मुमकिन है? नहीं ना। अगर आप जनसमूह को संबोधित कर रहे हैं तो भाषा ऐसी हो कि आसानी से सबको समझ में आ जाए। वैसे भी मेरा मानना है कि-
निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति के मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय के शूल।
 
न्यूज़ चैनल्स विस्मयबोधक चिन्ह (!) का बहुत इस्तेमाल करते हैं। ये चिन्ह लगाकर कोई भी बात कह देना कहां तक सही मानते हैं?
जवाब- ये ग़लत है। अक्सर न्यूज़ चैनल्स ख़बर को सनसनी बनाने के चक्कर में इसका इस्तेमाल करते रहते हैं। बेवजह और ज़्यादा इस्तेमाल से बचना चाहिए। सही जगह और सही अर्थ के लिए ज़रूर इस्तेमाल करना चाहिए।
 
कई बार न्यूज़ एंकर्स के चेहरे तो चमकते हैं, लेकिन उनके प्रजेंटेशन में वो वजन नहीं होता। वो बिना तैयारी के बुलेटिन पढ़ देते हैं। ऐसे में दर्शक को पूरी जानकारी नहीं मिल पाती। क्या आप इसे दर्शक का नुक़सान नहीं कहेंगे?
जवाब- दरअसल ये दर्शक की बजाय एंकर और उस चैनल के लिए बड़ा नुक़सान है। आजकल एंकर्स चेहरे को चमकाने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं, लेकिन आज का दर्शक बेहद तेज़ है। उसे सही और पूरी जानकारी नहीं मिलती तो वो चैनल बदल लेता है। ऐसे में ये उस एंकर और उसके चैनल का ही बड़ा नुक़सान हुआ ना। तो मेरी राय है कि एंकर्स को पढ़ने की आदत होनी चाहिए। उसे भी डिबेट वगैरह सुननी चाहिए। पूरी जानकारी के साथ ही बुलेटिन करना चाहिए।    
 
अच्छा एंकर बनने के लिए किन चीज़ों पर ध्यान देना ज़रूरी है?
जवाब- सबसे पहले तो सभी सब्जेक्ट्स की बुनियादी समझ होना बहुत ज़रूरी है। चाहे वो इंटरनेशनल न्यूज़ हो या पॉलिटिकल न्यूज। ये भी जान लेना ज़रूरी है कि आपके न्यूज़ प्रजेंटेशन का असर दर्शक पर कितना पड़ता है। सिर्फ़ टेली प्रोम्पटर पर न्यूज़ पढ़ने के जमाने अब चले गए। इसलिए प्रजेंटेशन और नॉलेज के साथ-साथ एक कंपलीट पैकेज के रुप में ख़बर दिखानी आनी चाहिए। आपको अपने दर्शक की उम्मीदों पर खरा उतारना आना चाहिए, नहीं तो आप पीछे रह जाएंगे। आने वाले वक़्त में तो चुनौतियां और भी ज़्यादा होंगी।   
 
जैसा कि रमेश भट्ट ने सुमित शर्मा को बताया।