अतीत की मधुर स्मृतियों में सजी पतंगें
पतंग, मुक्ताकाश में उड़ती, सरसराती, लहराती, इठलाती, सुंदर ,सजीली पतंग, कई-कई रंगों की आकर्षक पतंगें किसे नहीं लुभाती? रंगीन कागज का यह नन्हा सलोना आविष्कार कुछ लोगों के लिए समय की बर्बादी हो सकता है। लेकिन आशा और विश्वास की पतंग, आकांक्षा और संकल्प की पतंग तथा प्रेम और स्वप्न की भावुक पतंग हर युग के हर मानव ने उड़ाई है, उड़ा रहा है। आज भी कितने ही लोग हमारे बीच ऐसे है जिनकी स्मृतियों के विराट समुद्र में इस एक पतंग के बहाने बहुत कुछ आलोडि़त होता है। कितनी ही दुर्बल अंजुरियों में वह पतंगमयी अतीत आज भी थरथराता है। किसी ने इसे अपनी मुट्ठी में कसकर भींच रखा है । बार-बार खुलती है मुट्ठी और एक मीठी याद शब्दों में बँधकर, कपोलों पर सजकर इसी पुराने आकाश पर ऊंचा उठने के लिए बेकल हो जाती है। जब हमने जानने के लिए हथेली पसारी तो कहाँ संभल सकी वे स्मृतियां? अँगुलियों की दरारों से फिसलने लगी। सच ही कहा है किसी ने कि स्मृतियों को समेटने के लिए दामन भी बड़ा होना चाहिए। एक जोड़ी चमकती बूढ़ी आंखें, खुशी से फैल जाती है। फिर सिकुड़ती हैं, माथे पर त्रिपुंड-तिलक बनता है और यकायक जैसे आत्मीयता से लबरेज एक खिलखिलाता मोहल्ला हमारे समक्ष आ जाता है। ये हैं पंडित सोहनलाल चतुर्वेदी - वो आकाश हमारा अपना था, वो कच्ची खपरैल फिर बाद में बनी टीन की छत। खनकती उन्मुक्त बयार और गगनभेदी अनुगूंज 'काटा है.....!!' आजकल की संक्रांति में वो बात कहां? पतंगें तो आज भी है, आवाजें भी गूंज रही है, फिर वो क्या है जो हमारी एक खास पीढ़ी को लगता है कि कहीं खो गया है। कहां? किस जगह? कैसे ? उन्हें नहीं पता, लेकिन बस शिकायत है कि 'वो' नहीं है अब जो ' तब' था। किसे फुर्सत कि ढूंढे 'उसे' ।हम कहां कहते हैं कि तुम ढूंढों। हम तो स्वयं उस कल की मिठास और भोलेपन को ढूंढकर तुम्हें भेंट देना चाहते हैं पर हमारी तो सहज स्वतंत्रता ही बाधित कर दी आज के बाशिंदों ने। यह है अनोखीलाल कर्मा बस थोड़ी देर नाराज रहते हैं फिर उनकी यादों से परत-दर-परत पतंगें उठती है और बिखरते हैं पतंगों के नाम - सिरकटी, तिरंगी, चौकड़ी, परियल, डंडियल, कानभात, आंखभात, चांदभात, गिलासिया, चुग्गी, ढग्गा, और भी ना जाने कितने अनूठे नाम !