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Last Modified: मंगलवार, 20 नवंबर 2018 (12:15 IST)

जर्मनी में खबरियों से ऐसे जानकारी निकालती है पुलिस

जर्मनी में खबरियों से ऐसे जानकारी निकालती है पुलिस | German police
सांकेतिक चित्र
फिल्मों में हमने देखा है कि कैसे पुलिस और खुफिया एजेंसियों के खबरी हर जगह मौजूद होते हैं। शायद आपके आसपास भी कोई ऐसा ही हो। आपका कोई दोस्त, जिससे आप हर रोज मिलते हों। जानिए पुलिस इनसे कैसे काम लेती है।
 
 
19 दिसंबर 2016। बर्लिन के क्रिसमस बाजार में एक ट्रक घुस आता है और लोगों को रौंदता हुआ आगे बढ़ता है। 12 लोगों की जान जाती है और 70 से ज्यादा घायल होते हैं। ट्रक चलाने वाले का नाम था अनीस अमरी। यह नाम आज जर्मनी में इस्लामी आतंकवाद की पहचान बन गया है। लेकिन ये हुआ कैसे? क्या बर्लिन की पुलिस को और जर्मनी की खुफिया एजेंसी को अनीस अमरी की हरकतों का कोई इल्म नहीं था?
 
 
रिपोर्टें बताती हैं कि अनीस पुलिस के रडार पर था। इतना ही नहीं, वह अकसर जिस मस्जिद में जाया करता था, वहां पुलिस के खबरी भी मौजूद हुआ करते थे। बावजूद इसके पुलिस को जरा भी भनक नहीं लग सकी कि वह हमला करने वाला है। यही वजह है कि जर्मनी में अब सवाल उठने लगे हैं कि जब खबरियों से फायदा ही नहीं मिल रहा, तो उनकी जरूरत ही क्या है।
 
 
बर्लिन पुलिस के प्रमुख क्रिस्टियान श्टाइओफ से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने खबरियों के बारे में कुछ भी बताने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि ऐसा संभव है कि मस्जिद में पुलिस और खुफिया एजेंसी के खबरी रहे हों लेकिन पुलिस खबरियों के बारे में कुछ बता नहीं सकती। इस बीच इस मस्जिद को बंद करा दिया गया है क्योंकि इसे सलाफियों के ठिकाने के रूप देखा जाने लगा था।
 
 
जर्मनी में आतंकवाद मामलों के जानकार होलगर श्मिट पुलिस की रणनीति को सही बताते हैं। उनके अनुसार चरमपंथियों के बारे में जानकारी खोज निकालने में इससे काफी फायदा मिलता है। श्मिट बताते हैं कि पुलिस के खबरी और खुफिया एजेंट में फर्क होता है। एजेंट सूचना निकालने के लिए कानून तोड़ सकता है लेकिन खबरी के मामले में कानून के उल्लंघन को बर्दाश्त नहीं किया जाता।
 
 
खबरी तीन तरीकों से काम करते हैं:
- खबरी कभी कभार पुलिस से संपर्क कर कोई जानकारी पहुंचा देता है।
- पुलिस को जिस जगह के बारे में की जानकारी की जरूरत होती है, वह वहां के किसी व्यक्ति को अपना खबरी बना लेती है और लगातार उसके संपर्क में रहती है।
- पुलिस अपने ही किसी व्यक्ति को प्रशिक्षण दे कर अंडरकवर रूप से वहां भेज देती है, जहां की छानबीन करनी है।
 
 
इस तरह के खबरियों का इस्तेमाल ड्रग्स वाली गैंग का पता लगाने में, रेड लाइट एरिया में, धुर दक्षिणपंथी और धुर वामपंथी विचारधारा वाले इलाकों में किया जाता है। हर खबरी का किसी एक पुलिस अधिकारी से संपर्क होता है और पुलिस अधिकारी के पास खबरी की पहचान गुप्त रखने की जिम्मेदारी होती है। जर्मनी के खुफिया मामलों के जानकार मिषाएल मुलर बताते हैं, "इन खबरियों को कोड नाम या फिर संख्या से पुकारा जाता है।"
 
 
जिस अधिकारी से खबरी का संपर्क रहता है, उसे खबरी का ख्याल भी रखना होता है, मसलन अगर वह कभी किसी समस्या में फंस जाए, तो उसे वहां से निकालने की जिम्मेदारी अधिकारी की होती है। एक अधिकारी के पास लगभग आठ खबरी हो सकते हैं और उन्हें इस बात का भी पूरा ख्याल रखना होता है कि ये खबरी कभी एक दूसरे से संपर्क ना करें।
 
 
श्मिट बताते हैं कि खबरियों से काम निकलवाने के लिए पुलिस कई हथकंडे आजमाती है। कई बार उन्हें धमकाया जाता है कि काम नहीं किया तो उनके खिलाफ किसी तरह की शिकायत दर्ज करा दी जाएगी, तो कभी लालच भी दिया जाता कि काम होने पर बच्चों का दाखिला फलां स्कूल में करा दिया जाएगा। श्मिट के अनुसार खबरियों की दुनिया वैसी ही होती है, जैसी हमें फिल्मों में देखने को मिलती है।
 
 
अधिकतर मामलों में जेल के कैदियों को खबरी बनने की ट्रेनिंग दी जाती है। जेल में इनसे बात करना आसान होता है। इन्हें लालच दिया जा सकता है कि पुलिस का साथ दोगे, तो फौरन रिहा कर दिए जाओगे। ऐसा कम ही होता है कि कोई शख्स खुद चल कर पुलिस के पास आए और कहे कि उसे खबरी बनना है।
 
 
इन्हें कितने पैसे दिए जाते हैं, ये भी तय नहीं है। श्मिट बताते हैं, "हो सकता है किसी को एक दिन के 300 यूरो दिए जाएं, तो किसी को जानकारी देने के लिए 100 यूरो। ऐसा भी हो सकता है कि उन्हें कुछ भी ना दिया जाए। लेकिन बच्चों के लिए उपहार आम हैं।" लेकिन क्या खबरियों से फायदा भी मिलता है? ड्रेसडेन की टेक्नीकल यूनिवर्सिटी के श्टेफान काइलिट्स कहते हैं, "हम सिर्फ अटकलें लगा सकते हैं क्योंकि हम कभी खबरियों के कारण मिली सफलता वाली कहानी तो सुनते ही नहीं हैं। हमें तो सिर्फ किसी कांड या फिर विफलता के बारे में ही पता चलता है।"
 
 
जर्मनी ने नव नाजी पार्टी एनपीडी पर प्रतिबंध लगाने के लिए खबरियों का इस्तेमाल किया लेकिन अपनी इस कोशिश के लिए सरकार को मुंह की खानी पड़ी। 2003 में खुफिया एजेंसी को एनपीडी के खिलाफ अपना ऑपरेशन रोक देना पड़ा। सरकार ने माना कि तीस साल तक पार्टी के एक सदस्य को 600 से 800 डॉयच मार्क दिए जाते रहे ताकि वह अंदर की खबरें देता रहे। इसके लिए सरकार की कड़ी निंदा हुई क्योंकि बाद में पता चला कि यह शख्स सरकार से पैसा ले कर उसे पार्टी को और मजबूत बनाने पर खर्च करता रहा। पार्टी के अंदर ऐसे और भी खबरी मौजूद थे।
 
 
काइलिट्स का कहना है कि यह सरकार के लिए एक सबक था कि दोबारा ऐसा कुछ ना किया जाए, खास कर अब जब सरकार धुर दक्षिणपंथी एएफडी पार्टी पर नकेल कसने की कोशिश कर रही है।
 
 
रिपोर्ट: नोटकर ओबरहाउजर/आईबी
 
 
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