पंचतंत्र की कहानी : दुष्ट सर्प
एक जंगल में एक बहुत पुराना बरगद का पेड़ था। उस पेड़ पर घोंसला बनाकर एक कौआ-कौवी का जोड़ा रहता था। उसी पेड़ के खोखले तने में कहीं से आकर एक दुष्ट सर्प रहने लगा। हर वर्ष मौसम आने पर कौवी घोंसले में अंडे देती और दुष्ट सर्प मौका पाकर उनके घोंसले में जाकर अंडे खा जाता। एक बार जब कौआ व कौवी जल्दी भोजन पाकर शीघ्र ही लौट आए तो उन्होंने उस दुष्ट सर्प को अपने घोंसले में रखे अंडों पर झपटते देखा।अंडे खाकर सर्प चला गया तो बाद में कौए ने कौवी को ढांढस बंधाया, 'प्रिये, हिम्मत रखो, अब हमें शत्रु का पता चल गया है। कुछ उपाय भी सोच लेंगे।'
कौए ने काफी सोचा-विचारा और पहले वाले घोंसले को छोड़ उससे काफी ऊपर टहनी पर घोंसला बनाया और कौवी से कहा, 'यहां हमारे अंडे सुरक्षित रहेंगे। हमारा घोंसला पेड़ की चोटी के किनारे निकट है और ऊपर आसमान में चील मंडराती रहती हैं। चील-सांप की दुश्मनी है। दुष्ट सर्प यहां तक आने का साहस नहीं कर पाएगा।'कौए की बात मानकर कौवी ने इस बार नए घोंसले में अंडे दिए तो वो सुरक्षित रहे और उनमें से बच्चे भी निकल आए।उधर, सर्प उनका घोंसला खाली देखकर यह समझा कि उसके डर से कौआ-कौवी शायद वहां से चले गए हैं, पर दुष्ट सर्प टोह लेता रहता था। उसने देखा कि कौआ-कौवी उसी पेड़ से उड़ते हैं और लौटते भी वहीं हैं। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उन्होंने नया घोंसला उसी पेड़ पर ऊपर बना रखा है। एक दिन सर्प खोह से निकला और उसने कौओं का नया घोंसला खोज लिया।घोंसले में कौआ दंपति के तीन नवजात शिशु थे। दुष्ट सर्प उन्हें एक-एक करके तुरंत निगल गया और अपनी खोह में लौटकर डकारें लेने लगा।कौआ व कौवी लौटे तो घोंसला खाली पाकर सन्न रह गए। घोंसले में हुई टूट-फूट व नन्हे कौओं के कोमल पंख बिखरे देखकर वे सारा माजरा समझ गए। कौवी की छाती तो दुख से फटने लगी। कौवी बिलख उठी, 'तो क्या हर वर्ष मेरे बच्चे सांप का भोजन बनते रहेंगे?'