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जन्माष्टमी : श्रीकृष्ण का अवतरण दिवस...

जन्माष्टमी : श्रीकृष्ण का अवतरण दिवस... - Krishna Janmashtami Special
कृष्ण पर क्या लिखूं? कितना लिखूं? क्योंकि कृष्ण तो जगत का विस्तार हैं, चेतना के सागर हैं, जगद्गुरु हैं, योगेश्वर हैं। उन्हें शब्दों में बांधना उतना ही कठिन है जितना कि सागर की लहरों को बाजुओं में समेटना। 


 
 
ग्वालों एवं बालाओं के साथ खेलने वाला सरल-सा कृष्ण इतना अगम्य है कि उसे जानने के लिए ज्ञानियों को कई जन्म लेने पड़ते हैं, तब भी उसे नहीं जान पाते। कृष्ण कई ग्रंथों के पात्र हैं। आज उन पर सैकड़ों ग्रंथ लिखे जा चुके हैं और तब भी लगता कि उन्हें तो किसी ने छुआ भी नहीं है। उन पर सैकड़ों वर्षों तक लिखने के बाद भी उनकी एक मुस्कान को ही परिभाषित नहीं किया जा सकता।
 
पौराणिक मान्यताओं के आधार पर विष्णु भगवान ने 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर में 8वें अवतार के रूप में देवकी के गर्भ से भाद्रपद कृष्ण अष्टमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में रात के ठीक 12 बजे जन्म लिया। ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर कृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व में हुआ था। हिन्दू कालगणना के अनुसार 5126 वर्ष पूर्व कृष्ण का जन्म हुआ था।
 
कृष्ण क्या हैं? मनुष्य हैं, देवता हैं, योगी हैं, संत हैं, योद्धा हैं, चिंतक हैं, संन्यासी हैं, लिप्त हैं, निर्लिप्त हैं? क्या कोई परिभाषित कर सकता है? इतना बहुआयामी व्यक्तित्व, जो जन्म से ही मृत्यु के साये में जीता है।
 
कृष्ण का जन्म जेल में हुआ। घनघोर बारिश में नंदगांव पहुंचे व जन्म से ही जिसकी हत्या की बिसात बिछाई गई हो, जिसे जन्म से ही अपने माता-पिता से अलग कर दिया हो, जिसने अपना संपूर्ण जीवन तलवार की धार पर जिया हो, वो ही इतने विराट व्यक्तित्व का धनी हो सकता है। कृष्ण जीवनभर यताति रहे, भटकते रहे, लेकिन दूसरों का सहारा बने रहे। बाल लीलाएं करके गांव वालों को बहुत-सी व्याधियों से बचाया, दिखावे से दूर कर्मयोगी बनाया, बुरी परंपराओं से आजाद कराया।
 
कृष्ण चरित्र सबको लुभाता है। कृष्ण संपूर्ण जिंदगी के पर्याय हैं। उनका जीवन संदेश देता है कि जो भी पाना है, संघर्ष से पाना है। कृष्ण आत्मतत्व के मूर्तिमान स्वरूप हैं। कृष्ण की लीलाएं बताती हैं कि व्यक्ति और समाज आसुरी शक्तियों का हनन तभी कर सकता है, जब कृष्णरूपी आत्म-तत्व चेतन में विराजमान हो। ज्ञान और भक्ति के अभाव में कर्म का परिणाम कर्तापन के अहंकार में संचय होने लगता है। सर्वात्म रूप कृष्णभाव का उदय इस अहंकार से हमारी रक्षा करता है।
 
कंस गोहत्या का प्रवर्तक था। उसके राज्य में नरबलि होती थी। जरासंध 100 राजाओं का सिर काटकर शिवजी पर बलि चढ़ाने वाला था। कृष्ण ने इन दोनों आसुरी शक्तियों का संहार किया। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उन्होंने ब्राह्मणों की जूठी पत्तल उठाने का कार्य अपने हाथ में लिया था।
 
 

कृष्ण का चरित्र व्यक्ति के सुखों एवं दुखों में आबद्ध है। राम का शैशव किसी को याद नहीं है, सिर्फ बालकांड तक सीमित है, लेकिन कृष्ण का बाल्यकाल हर घर की शोभा है। हर मां अपने बालक के बचपन की तुलना कृष्ण के बचपन से करती है। उनका घुटनों के बल चलना, पालने से नीचे गिरना, माखन के लिए जिद करना, माता को प्रति पल सताना हर घर का आदर्श है। 


 
'राधामकृष्णस्वरूपम वै, कृष्णम राधास्वरुपिनम; कलात्मानाम निकुंजस्थं गुरुरूपम सदा भजे।'
 
राधा-कृष्ण का प्रेम तो त्याग-तपस्या की पराकाष्ठा है। अगर 'प्रेम' शब्द का कोई समानार्थी है तो वो राधा-कृष्ण है। प्रेम शब्द की व्याख्या राधा-कृष्ण से शुरू होकर उसी पर समाप्त हो जाती है। राधा-कृष्ण की प्रीति से समाज में प्रेम की नई व्याख्या, एक नवीन कोमलता का आविर्भाव हुआ। समाज ने वो भाव पाया, जो गृहस्थी के भार से कभी भी बासा नहीं होता। राधा-कृष्ण के प्रेम में कभी भी शरीर बीच में नहीं था। जब प्रेम देह से परे होता है तो उत्कृष्ट बन जाता है और प्रेम में देह शामिल होती है तो निकृष्ट बन जाता है। 
 
रुक्मणि व कृष्ण की अन्य रानियों ने कभी भी कृष्ण और राधा के प्रेम का बहिष्कार नहीं किया। रुक्मणि राधा को तबसे मानती थीं, जब कृष्ण के वक्षस्थल में तीव्र जलन थी। नारद ने कहा कि कोई अपने पैरों की धूल उनके वक्षस्थल पर लगा दे, तो उनका कष्ट दूर हो जाएगा। 
 
कोई तैयार नहीं हुआ, क्योंकि भगवान के वक्षस्थल पर अपने पैरों की धूल लगाकर हजारों साल कौन नरक भोगेगा? लेकिन राधा सहर्ष तैयार हो गईं। उन्हें अपने परलोक की चिंता नहीं थी, कृष्ण की एक पल की पीड़ा हरने के लिए वह हजारों साल तक नरक भोगने को तैयार थी।
 
उस समय तो रुक्मणि चमत्कृत थी, जब कृष्ण के गरम दूध पीने से राधाजी के पूरे शरीर पर छाले आ गए थे। कारण था कि राधा तो उनके पूरे शरीर में विद्यमान हैं। कृष्ण ने यौवन का पूर्ण आनंद लिया, जो संयमित था। उनकी उद्दीप्त मुरली की तान ने कभी भी मर्यादाओं की सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया। राधा के प्रति प्रेम तो अनन्य है लेकिन सभी अपनों के प्रति उनके प्रेम में कोई अलग भाव नहीं था। अपनी दोनों माताओं एवं पिताओं, अपनी रानियों, ग्वाल बालों, संगी-साथियों, ब्रज वनिताओं से भी कृष्ण उतने ही घनिष्ठ थे। 
 
उन्होंने रास रचाया, लेकिन रास है क्या? जब कोई मनोवेग इतना प्रबल हो जाए कि चुप न रह सके, चिल्ला उठे तो वह रास बन जाता है। उस महारास का मुख्य उद्देश्य था महिलाओं की जाग्रति। बेचारी महिलाएं अपने मन की बात कैसे करें। समाज का बंधन, परिवार का बंधन। उस महारास में ब्रज की महिलाओं ने अपने अस्तित्व को नई पहचान दी थी। कृष्ण की कुशलता थी कि उन्होंने सबको एक जैसा स्नेह दिया। पशु-पक्षी, शिक्षित-अशिक्षित, रूपवान-कुरूप सभी को समदृष्टि से देखा और अपने स्नेह से वश में कर लिया। 
 
कृष्ण का भारतीय जनमानस पर अद्भुत प्रभाव है। जन्म से लेकर मोक्ष तक वो भारतीय जनमानस से जुड़े रहे। उनके चरित्र को लोग इतने निकट पाते हैं कि लगता है कि ये सब उनके घर में ही घटित हुआ हो। अपने पूरे जीवनकाल में वो भारतीय जनमानस का नेतृत्व करते हुए दिखाई देते हैं। 
 
बचपन में इन्द्र के अभिमान को चूर करके प्रकृति के स्वरूप गोवर्धन की पूजा करवाते हुए ग्रामीणजनों एवं किसानों का प्रतिनिधित्व करते हुए दिखाई देते हैं। अन्यायी कंस का वध करके पूरे परिवार एवं समाज को भयमुक्त बनाते हैं। गरीब सुदामा के प्रति उनका प्रेम समाज के दलित एवं शोषित वर्ग के उत्थान का प्रतिनिधित्व करता है। गीता का संबोधन समस्त मानव जाति को बुराइयों से बचने का संदेश है।
 
राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते हैं लेकिन कृष्ण की कोई एक उपाधि नहीं है। कृष्ण कहीं योगी, कहीं प्रेमी, कहीं योद्धा, कहीं युद्धभूमि से भागे रणछोड़, कहीं कूटनीतिज्ञ, कहीं भोले-भाले ग्वाले। 
 
मनुष्य जीवन के जितने रंग, जितने सद्गुण, जीवन जीने के जितने आदर्श और व्यावहारिक दृष्टिकोण हैं, वे सब कृष्ण में समाहित हैं। आसक्ति से अनासक्ति का भाव सिर्फ कृष्ण में है। आसक्ति और विरक्ति की पराकाष्ठा कृष्ण का जीवन है। मेघ की तरह बरसकर रीता हो चल दिया इसलिए कृष्ण भारतीय जनमानस के नायक हैं।
 
कृष्ण कहते हैं- 'मद्भक्त एतद विज्ञाय मद्भावयोप पद्यते।'
 
'यदि मुझे पाना है तो मेरे सदृश्य बनो। अपने-अपने कर्म करते हुए कर्मयोगी बनकर ईश्वर की स्वकर्मणा पूजन करो। ये जीवन शयन क्षेत्र नहीं, कर्मक्षेत्र है।'
 
जन्माष्टमी, जो कि कृष्ण का अवतरण दिवस है, को मोहरात्रि कहा जाता है। यह आसुरी वृत्तिरूपी बुराइयों से दूर रहने की रात है। आज हम इस जन्माष्टमी के पर्व पर संकल्पित होकर उनके चरित्र के कुछ अंशों व कुछ आदर्शों को अपने जीवन में निहित करें।
 
'वासुदेव सुतं देवम कंस चाणूर मर्दनं, देवकी परमानंदम कृष्ण वन्दे जगद गुरुम।'