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मंदिर में गूँजती बलि की महिमा

- भाषा सिंह

मंदिर में गूँजती बलि की महिमा -
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इस मंदिर की बहुत मान्यता है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ आते हैं, गहरी आस्था से लबरेज। छोटा-सा पुराना मंदिर है और इस तक पहुँचने से पहले छोटे-छोटे कई देवी मंदिर मिलते हैं और उनके पीछे बहती ब्रह्मपुत्र की अविरल धारा दिखती है। मुख्य मंदिर से पहले जो बाजार मिलता है, वह इसे बाकी मंदिरों या धार्मिक स्थलों से बिलकुल अलग करता है।

पूरे रास्ते जितनी पूजा-प्रसाद की दुकानें नहीं नजर आतीं, उससे ज्यादा टोकरी में बंद कबूतर और अन्य पक्षी दिखाई देते हैं। पूरे बाजार में छोटी-बड़ी बकरी-बकरे मिमियाते हुए पैरों से टकराते हुए हिन्दू धर्म के अलहदा रूप पर आपको सोचने के लिए विवश करते हैं ।

गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर में घुसते ही आपको आभास हो जाएगा कि ये कुछ अलग किस्म का मंदिर है। बाहर जितने जानवर मिले थे, उसके बराबर ही मंदिर के अंदर नजर आते हैं। प्रवेश द्वार के ठीक सामने जय माता दी का चमचमाता हुआ बैनर टंगा था और वहीं नीचे अनगिनत सिंदूर से रंगे हुए कबूतर बैठे या यूँ कहें दुबके हुए नजर आते थे। उनके इर्द-गिर्द बकरे दौड़ लगाते एक-दूसरे से टकराते दिखाई देते हैं।

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पुजारी से पूछने पर पता चलता है कि ये जानवर देवी का प्रसाद पा चुके हैं और अब मंदिर को समर्पित हैं। चूँकि इन्हें चढ़ाने वाले इनकी बलि नहीं देना चाहते थे इसलिए उन्होंने इन्हें मंदिर के हवाले छोड़ दिया है। इन जानवरों की निरीह स्थिति को देखकर लगता है कि पता नहीं ये भला हुआ कि ये बलि से बच गए या बुरा हुआ।

मंदिर का पूरा चक्कर पूरा होने ही वाला था कि एक कम भीड़ वाली जगह पर एक 12-13 साल की लड़की एक बकरे को पकड़े पुजारी के पीछे-पीछे चलती नजर आई। जिज्ञासा के साथ उसके पीछे-पीछे चलते हुए जहाँ मैं पहुँची वहाँ खामोशी थी और उस लड़की, बकरे और दो पुजारी के अलावा कोई नहीं थी।

थोड़ी दूर से मैंने देखा कि लड़की ने उस बकरे को पुजारी को सौंपा और थोड़ा पीछे हटकर खड़ी हो गई। यही था बलि देने का स्थल। सामने से एक तीसरा पुजारी निकला जिसके हाथ में वाइपर (पोंछा) था। फर्श पर देखा तो वह वाइपर से खून वाइप कर रहा है।

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इसके बाद लड़की जिस बकरे को लाई थी, उसकी बारी आई और पलक झपकते बकरे का काम तमाम। सब इतनी जल्दी हुआ कि समझ नहीं आया, बस कैमरे ने किसी तरह ये सारा दृश्य रिकॉर्ड कर लिया। जितनी फुर्ती से बलि दी गई, उससे भी तेजी से मरे हुए जानवर को वहाँ लगी खूँटी में टाँग कर उसकी खाल निकाली पुजारी ने और प्रसाद को वितरण के लिए तैयार किया। तभी बलि देने वाले पुजारी की नजर मुझ पर गई और वह तेजी से खून टपकता धारदार हथियार लिए मेरी तरफ दौड़ा और कैमरा छीनने की बात करने लगा।

खैर, वहाँ से सही समय भागकर जाना कि ऐसे करीब सैकड़ों वाकये यहाँ रोज होते हैं। पुजारी को गुस्सा इस बात पर था कि मैंने फोटो ले ली है और ये बलि के विरोध में सक्रिय संगठनों के काम आएगा। मंदिर घुमा रहे पुजारी ने बताया कि यहाँ बीच-बीच में बलि के विरोध में बहुत धरना-प्रदर्शन होते हैं।

कामाख्या मंदिर बलि के लिए जितना मशहूर है उतना ही तांत्रिक केंद्र के रूप में भी। पूरे मंदिर की फर्श पर अजीब ढंग से पाँव चिपकते हैं। जितने आराम से और खुलेआम यहाँ बलि दी जाती है या बलि के लिए जानवर लाए जाते हैं वह देखकर लगता नहीं कि इसके खिलाफ कहीं कोई आवाज है, कोई कानून है।

मंदिर के अंदर भी उसके दक्षिण में कबूतरों को लेकर बैठा एक व्यक्ति नजर आया, जिससे जब मैंने पूछा कि ये टोकरी किसके लिए है तो उसने कहा कि जो भी लेना चाहे। आस्था के रंग में रंगी इस प्रथा का हर कोने में बोलबाला था।