हाल ही में "द हिंदू" में प्रकाशित एक लेख में टोनी जोसेफ़ ने नई जेनेटिक शोध के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे। लेख ने एक बार फिर तीखी बहस को जन्म दे दिया है। कई तर्क-प्रतितर्क दिए जा रहे हैं। लेकिन टोनी ने अपने लेख में क्या कहा है, इस पर बात करने से पहले प्रचलित "आर्य-विमर्श" पर एक बार संक्षेप में दृष्टिपात करना आवश्यक है।
भारत में 2600 से 1900 ईसा पूर्व तक "सिंधु घाटी सभ्यता" का अस्तित्व बताया जाता है। यह एक अत्यंत कुशाग्र, कल्पनाशील, व्यवहार बुद्धि से परिपूर्ण और सुसंगठित सभ्यता थी, जिसने दुनिया की पहली "प्लान्ड सिटी" मोहनजोदड़ो बसाई थी। यह सभ्यता 1900 ईसा पूर्व में नाटकीय तरीक़े से लुप्त हो जाती है और उसके स्थान पर एक "वैदिक सभ्यता" उभरती दिखाई देती है। फ़ारस से लेकर गंगा के दोआब तक हज़ारों किलोमीटर के दायरे में फैली यह सभ्यता अचानक कैसे समाप्त हो गई? इस बारे में दो थ्योरियां प्रचलित हैं। एक यह कि किसी प्राकृतिक आपदा या जलवायु परिवर्तन संबंधी संकट के कारण उनका नाश हो गया। दूसरी यह कि आर्यों ने उन पर चढ़ाई कर उन्हें दक्षिण में खदेड़ दिया। और यह कि हड़प्पा संस्कृति के मूल निवासी अश्वेत थे, जैसे कि आज द्रविड़ लोग पाए जाते हैं और आर्य गौरांग थे, जैसे कि उत्तर भारतीय सवर्ण होते हैं।
भारत में आर्यों के आगमन या उनके यहां के मूल निवासी होने के संबंध में भी तीन तरह की थ्योरियां प्रचलित हैं। पहली है "एआईटी" यानी "आर्य इन्वेशन थ्योरी", जो कहती है कि आर्य यूरोपीय नोर्डिक थे, जिन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता पर धावा बोला था। ये लोग अपने साथ संस्कृत भाषा और वर्ण-व्यवस्था की प्रणाली लेकर आए थे। इस थ्योरी का आधार "भारोपीय" भाषाएं हैं, जिसमें संस्कृत और लैटिन से उत्पन्न होने वाली भाषाओं में कई समानताएं पाई जाती हैं। दूसरी थ्योरी "एएमटी" यानी "आर्य माइग्रेशन थ्योरी" कहलाती है, जिसके मुताबिक़ आर्य भारत आए ज़रूर थे, लेकिन वे यहां आकर मूल निवासियों से घुल-मिल गए थे और उत्तर से दक्षिण तक फैल गए थे। एक अन्य थ्योरी "ओआई" यानी "आउट ऑफ़ इंडिया" थ्योरी कहलाती है, जिसके मुताबिक़ आर्य भारत के ही मूल निवासी थे और कालांतर में मध्येशिया और यूरोप तक फैल गए थे।
पहली थ्योरी का समर्थन पश्चिमी और मार्क्सवादी चिंतक करते हैं। पश्चिमी चिंतक इसलिए क्योंकि इससे यूरोपियन नस्ल की श्रेष्ठता सिद्ध होती है और साम्राज्यवादी लिप्साओं को एक ऐतिहासिक तर्क प्राप्त होता है। मार्क्सवादी इसलिए, क्योंकि वे इससे सवर्ण बनाम अवर्ण का अपना विमर्श चला पाते हैं और यह सिद्ध कर पाते हैं कि दलित और द्रविड़ ही भारत के मूल निवासी हैं, जिन्हें सवर्ण आर्यों द्वारा हाशिये पर खदेड़ दिया गया था। तीसरी थ्योरी का समर्थन करने वाले हिंदू राष्ट्रवादी हैं, जो मानते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक सभ्यता एक ही थी।
टोनी जोसेफ़ ने अपने लेख में महज़ तीन ही माह पूर्व "बीएमसी इवोल्यूशनरी बायोलॉजी" में प्रकाशित एक शोधपत्र की स्थापनाओं के आधार पर बताया है कि दुनिया के कोई एक अरब लोगों में जो "हैप्लोग्रुप आर1ए" डीएनए पूल पाया जाता है, उसके "वाई क्रोमोसोम" यानी पैतृक गुणसूत्रों से पता चला है कि भारत में 17।5 प्रतिशत पुरुषों में वही गुणसूत्र हैं, जो समूचे मध्येशिया, यूरेशिया और दक्षिणेशिया के पुरुषों में पाए जाते हैं, और जिसे आर्यों का प्रसार क्षेत्र माना जाता है। अभी तक केवल "एक्स क्रोमोसोम" या मातृक गुणसूत्रों के बारे में ही मालूमात थी, जो पिछले 12500 सालों में भारतीयों में किसी नए डीएनए पूल का सम्मिलन नहीं बताता था। लेकिन इसकी वजह यह थी कि कांस्य युग में स्त्रियां माइग्रेशन नहीं करती थीं। मातृक गुणसूत्र मां से बेटी में ही स्थानांतरित हो सकते हैं और पैतृक गुणसूत्र पिता से पुत्र में ही स्थानांतरित होते हैं।
इन नई शोधों के आधार पर टोनी जोसेफ़ ने कहा है कि जहां "आर1ए" डीएनए पूल समूचे यूरोप, मध्येशिया और दक्षिणेशिया में है, वहीं भारत, पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में केवल उसका उपसमूह "ज़ेड93" ही पाया गया है। डीएनए पूल्स का स्पष्ट वर्गीकरण इस तथ्य को निरस्त करता है कि "हैप्लोग्रुप" का उद्गम भारत में हुआ था, जहां से वह यूरोप और मध्येशिया में फैला था।
मैं टोनी जोसेफ़ के साथ काम कर चुका हूं और उनके विचारधारागत रुझानों से परिचित हूं। टोनी की रुचि यह सिद्ध करने में है कि आर्य विदेशी थे और दलित भारत के मूल निवासी हैं। या और बेहतर शब्दों का प्रयोग करें तो वे आर्यों के आगमन से पूर्व ही यहां रह रहे थे और बहुत संभव है कि "आउट ऑफ़ अफ्रीका" थ्योरी के प्रतिपादकों के अनुसार अफ्रीका से यहां आए थे। टोनी को अंदाज़ा नहीं है कि "हम सभी विदेशी हैं" कहकर "स्थानीय जाति" के तर्कों को निरस्त करने का मतलब केवल "सांस्कृतिक वैविध्य" की स्वीकृति ही नहीं होता, यह प्रकारांतर से अतिक्रमण, औपनिवेशिकता, जातीय वर्चस्व, साम्राज्यवाद, श्रेष्ठ नस्ल के तर्कों की स्वीकृति भी होती है, जिसके ख़तरनाक निहितार्थ हो सकते हैं।
टोनी की सबसे बड़ी भूल यह है कि अतीव उत्साह में जिस शोधपत्र के निष्कर्षों को उन्होंने अंतिम स्वीकार कर लिया है, वह तो अभी गुणसूत्रों के संबंध में भी अंतिम सूचना नहीं है, फिर भाषाई, सांस्कृतिक, धार्मिक परंपराओं की तो बात ही रहने दें, क्योंकि कोई भी "रेशियल लीनिएज" केवल गुणसूत्रों तक ही तो सीमित नहीं रहता है। "आर1ए हैप्लोग्रुप" डीएनए पूल के भारत में उद्गम की जो अभी तक की मान्य सैद्धांतिकी रही है, उनका एक महत्वपूर्ण सूत्र सरस्वती नदी का सूख जाना भी रहा है, जिसने संभवत: सैंधव-सारस्वत सभ्यता के लोगों को पूर्व और पश्चिम दिशाओं में "माइग्रेट" करने को बाध्य कर दिया था, जबकि टोनी जोसेफ़ इन बिंदुओं पर पूर्णत: मौन हैं। और, जैसा कि भौतिकविज्ञानी एएल चावड़ा ने बहुत ही उचित शब्दों में कहा है, जब तक हड़प्पा संस्कृति के ही डीएनए पूल के बारे में निश्चित रूप से कुछ पता नहीं लगा लिया जाता और सिंधु घाटी की भाषा को डिकोड नहीं कर लिया जाता, तब तक आर्यों के आगमन की थ्योरी के बारे में सुनिश्चित रूप से कुछ भी कहना पूर्वग्रहपूर्ण जल्दबाज़ी ही कही जाएगी।
जियोर्ज फ़्यूर्रश्टाइन ने अपनी किताब "इन सर्च ऑफ़ द क्रेडल ऑफ़ सिविलाइज़ेशन" में आर्यों के आक्रमण की थ्योरी को ध्वस्त करने वाले सत्रह कारण गिनाए थे, जिसमें यह अकाट्य तर्क भी शामिल है कि भारत की जातीय स्मृति में आर्यों को कभी विदेशी की तरह नहीं देखा गया। "ऋग्वेद" जैसे प्राचीनतम टेक्स्ट में भी ऐसी धारणा कहीं नहीं मिलती कि आर्य बाहर से आए हों। वैदिक सभ्यता और वर्तमान हिंदुओं के बीच एक सुस्पष्ट नैरंतर्य दिखाई देता है, उनके साझा देवता, भाषा, पर्व और रीतियां हैं। सिंधु घाटी सभ्यता तक में रुद्र और शिव के विग्रह पाए गए हैं। ऐसे में आर्यों के आक्रमण की थ्योरी को केवल इस कल्पना के आधार पर ही स्वीकार किया जा सकता है कि उन्होंने यहां पर आकर यहां की सभ्यता को जस का तस अंगीकार कर लिया हो। यह धारणा हास्यास्पद ही कही जा सकती है। और वैसे भी हड़प्पा संस्कृति में कहीं भी वैसे साक्ष्य नहीं मिले हैं, जो बताते हों कि कोई चार हज़ार पहले यहां भीषण रक्तपात हुआ था, जिसने इतनी परिष्कृत सभ्यता को विनष्ट कर दिया।
टोनी जोसेफ़ की जल्दबाज़ी समझी जा सकती है। लेकिन सच्चाई तो यही है कि आज भारत में निर्मित साभ्यतिक संघर्षों को महज़ एक अपरीक्षित शोधपत्र के आधार पर यह कहकर निरस्त करना निहायत ही बचकाना है कि चूंकि हम सभी विदेशी हैं, अत: हममें से किसी की भी इस भूमि पर कोई दावेदारी नहीं।
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