भारत में हिमाचल प्रदेश में दशहरा एक दिन का नहीं, बल्कि 7 दिन का त्योहार है। कुल्लू का दशहरा देश में सबसे अलग पहचान रखता है। जब देश में लोग दशहरा मना चुके होते हैं, तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। यहां इस त्योहार को 'दशमी' कहते हैं।
हिन्दी कैलेंडर के अनुसार आश्विन महीने की 10वीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है। इसकी एक और खासियत यह है कि जहां सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर 5 जानवरों की बलि दी जाती है।
कुल्लू के दशहरे की कहानी :-
कुल्लू के दशहरे का सीधा संबंध रामायण से नहीं जुड़ा है बल्कि कहा जाता है कि इसकी कहानी एक राजा से जुड़ी है। सन् 1636 में जब जगतसिंह यहां का राजा था, तो मणिकर्ण की यात्रा के दौरान उसे ज्ञात हुआ कि एक गांव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न है।
राजा ने उस रत्न को हासिल करने के लिए अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण के पास भेजा। सैनिकों ने उसे यातनाएं दीं। डर के मारे उसने राजा को श्राप देकर परिवार समेत आत्महत्या कर ली। कुछ दिन बाद राजा की तबीयत खराब होने लगी।
तब एक साधु ने राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने की सलाह दी। अयोध्या से लाई गई इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगा और तभी से उसने अपना जीवन और पूरा साम्राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया।
यज्ञ का न्योता : कुल्लू के दशहरे में आश्विन महीने के पहले 15 दिनों में राजा सभी देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथजी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं। 100 से ज्यादा देवी-देवताओं को रंग-बिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है। इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती है। राजघराने के सब सदस्य देवी का आशीर्वाद लेने आते हैं।
रथयात्रा : रथयात्रा का आयोजन होता है। रथ में रघुनाथजी की प्रतिमा तथा सीता व हिडिंबाजी की प्रतिमाओं को रखा जाता है, रथ को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है, जहां यह रथ 6 दिन तक ठहरता है। इस दौरान छोटे-छोटे जुलूसों का सौंदर्य देखते ही बनता है।
मोहल्ला : उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आकर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं। रघुनाथजी के इस पड़ाव पर सारी रात लोगों का नाच-गाना चलता है। सातवें दिन रथ को बियास नदी के किनारे ले जाया जाता है, जहां लंकादहन का आयोजन होता है।
उत्सव की निराली छटा : इसके पश्चात रथ को पुनः उसके स्थान पर लाया जाता है और रघुनाथजी को रघुनाथपुर के मंदिर में पुनर्स्थापित किया जाता है। इस तरह विश्वविख्यात कुल्लू का दशहरा हर्षोल्लास के साथ संपूर्ण होता है।
कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं, दशमी पर उत्सव की शोभा निराली होती है। तभी से यहां दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा।