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Written By WD

10 जनवरी : ताशकंद समझौता दिवस

10 जनवरी : ताशकंद समझौता दिवस - Tashkand Samjhauta
ताशकंद समझौता भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अयूब खां की लंबी बातचीत के बाद ही 10 जनवरी 1966 को ताशकंद (रूस) में हुआ।

शांति की स्थापना के लिए ही उन्होंने 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में पाकिस्तानी राष्ट्रपति अय्यूब खां के साथ 'ताशकंद समझौते' पर हस्ताक्षर किए। 
 
 
ताशकंद समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच 11 जनवरी 1966 को हुआ एक शांति समझौता था। इस समझौते में यह तय हुआ कि भारत और पाकिस्तान अपनी-अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने झगड़ों को शांतिपूर्ण ढंग से तय करेंगे। 25 फरवरी 1966 तक दोनों देश अपनी सेनाएं सीमा रेखा से पीछे हटा लेंगे। दोनों देशों के बीच आपसी हितों के मामलों में शिखर वार्ताएं तथा अन्य स्तरों पर वार्ताएं जारी रहेंगी। भारत-पाक के बीच संबंध एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर आधारित होंगे। दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध फिर से स्थापित किए जाएंगे। 
 
भारत की जनता के लिए यह दुर्भाग्य ही रहा कि ताशकंद समझौते के बाद भारतीय महान पुरुष लालबहादुर शास्त्री के नेतृत्व से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो गई। 11 जनवरी सन्‌ 1966 को इस महान पुरुष का ताशकंद में ही हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया। 
 
लालबहादुर शास्त्रीजी को कभी किसी पद या सम्मान की लालसा नहीं रही। उनके राजनीतिक जीवन में अनेक ऐसे अवसर आए, जब शास्त्रीजी ने इस बात का सबूत दिया। इसीलिए उनके बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वे अपना त्यागपत्र सदैव अपनी जेब में रखते थे। ऐसे बिरले व्यक्तित्व के धनी शास्त्रीजी भारतमाता के सच्चे सपूत थे।
 
शास्त्रीजी का समस्त जीवन देश की सेवा में बीता। देश के स्वतंत्रता संग्राम और नवभारत के निर्माण में शास्त्रीजी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वे 7 बार जेल गए। अपने जीवन में कुल मिलाकर 9 वर्ष उन्हें कारावास की यातनाएं सहनी पड़ीं।
 
सन्‌ 1926 में शास्त्रीजी ने लोक सेवा समाज की आजीवन सदस्यता ग्रहण की और इलाहाबाद को अपना कार्यक्षेत्र चुना। बाद में वे इलाहाबाद नगर पालिका, तदुपरांत इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट के भी सदस्य रहे।
 
सन्‌ 1947 में शास्त्रीजी उत्तरप्रदेश के गृह और परिवहन मंत्री बने। इसी पद पर कार्य करते समय शास्त्रीजी की प्रतिभा पहचानकर 1952 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी के चुनाव आंदोलन को संगठित करने का भार नेहरूजी ने उन्हें सौंपा। चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमतों से विजयी हुई जिसका बहुत कुछ श्रेय शास्त्रीजी की संगठन कुशलता को दिया गया।
 
1952 में ही शास्त्रीजी राज्यसभा के लिए चुने गए। उन्हें परिवहन और रेलमंत्री का कार्यभार सौंपा गया। 4 वर्ष पश्चात 1956 में अडियालूर रेल दुर्घटना के लिए, जिसमें कोई 150 से अधिक लोग मारे गए थे, अपने को नैतिक रूप से उत्तरदायी ठहराकर उन्होंने रेलमंत्री का पद त्याग दिया। शास्त्रीजी के इस निर्णय का देशभर में स्वागत किया गया।
 
अपने सद्गुणों व जनप्रिय होने के कारण 1957 के द्वितीय आम चुनाव में वे विजयी हुए और पुनः केंद्रीय मंत्रिमंडल में परिवहन व संचार मंत्री के रूप में सम्मिलित किए गए। सन्‌ 1958 में वे वाणिज्य व उद्योग मंत्री बनाए गए। 
 
पं. गोविंद वल्लभ पंत के निधन के पश्चात सन्‌ 1961 में वे गृहमंत्री बने, किंतु सन्‌ 1963 में जब कामराज योजना के अंतर्गत पद छोड़कर संस्था का कार्य करने का प्रश्न उपस्थित हुआ तो उन्होंने सबसे आगे बढ़कर बेहिचक पद त्याग दिया।
 
पंडित जवाहरलाल नेहरू जब अस्वस्थ रहने लगे तो उन्हें शास्त्रीजी की बहुत आवश्यकता महसूस हुई। जनवरी 1964 में वे पुनः सरकार में अविभागीय मंत्री के रूप में सम्मिलित किए गए। तत्पश्चात पंडित नेहरू के निधन के बाद चीन के हाथों युद्ध में पराजय की ग्लानि के समय 9 जून 1964 को उन्हें प्रधानमंत्री का पद सौंपा गया। 
 
सन्‌ 1965 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने विजयश्री का सेहरा पहनाकर देश को ग्लानि और कलंक से मुक्त करा दिया। शास्त्रीजी को प्रधानमंत्रित्व के 18 माह की अल्पावधि में अनेक समस्याओं व चुनौतियों का सामना करना पड़ा किंतु वे उनसे तनिक भी विचलित नहीं हुए और अपने शांत स्वभाव व अनुपम सूझ-बूझ से उनका समाधान ढूंढने में कामयाब होते रहे। 
 
विराट हृदय वाले शास्त्रीजी अपने अंतिम समय तक शांति की स्थापना के लिए प्रयत्नशील रहे। सन्‌ 1965 के भारत-पाक युद्ध विराम के बाद उन्होंने कहा था कि 'हमने पूरी ताकत से लड़ाई लड़ी, अब हमें शांति के लिए पूरी ताकत लगानी है।' 
 
मरणोपरांत सन्‌ 1966 में उन्हें भारत के सर्वोच्च अलंकरण 'भारत रत्न' से विभूषित किया गया। राष्ट्र के विजयी प्रधानमंत्री होने के नाते उनकी समाधि का नाम भी 'विजय घाट' रखा गया।
 
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