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Written By Author शरद सिंगी

श्रीलंका में राजनीतिक परिवर्तन की सुखद बयार

श्रीलंका में राजनीतिक परिवर्तन की सुखद बयार - Sri Lanka
भारत के सामरिक और विदेश नीति के रणनीतिकारों ने अवश्य ही एक राहत की सांस ली होगी जब पिछले सप्ताह श्रीलंका के आम चुनावों में राष्ट्रपति राजपक्षे पराजित हुए। श्रीलंका के चुनाव परिणाम अप्रत्याशित थे क्योंकि राजनीतिक विशेषज्ञ, राष्ट्रपति राजपक्षे की जीत को सुनिश्चित मानकर चल रहे थे। एक दशक से राज कर रहे राजपक्षे तीसरी बार अपना भाग्य आजमा रहे थे और अपनी जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त थे।
आतंकी संगठन तमिल इलम के सफाए के बाद मिली अपार लोकप्रियता को राजपक्षे ने पूरी तरह अपने पक्ष में भुनाया और पिछले चुनावों में अच्छे बहुमत से चुनाव जीते थे। दूसरी जीत के बाद उनकी अधिनायकवादी परिवृत्तियां खुलकर सामने आईं। वे सरकार विरोधी स्वरों को कुचलने लगे जिसमें लिट्टे के विरुद्ध श्रीलंका सेना का सफल नेतृत्व करने वाले पूर्व सेनाध्यक्ष फोन्सेका को जेल भेजना भी शामिल है।
 
जनरल फोन्सेका को पहले 30 महीनों के लिए कैद की सजा सुनाई फिर 2011 में यह सजा तीन और वर्षों के लिए बढ़ा दी गई। यद्यपि उन्हें सन् 2012 में इस प्रतिबंध के साथ छोड़ दिया गया कि वे अगले सात वर्षों तक किसी भी सरकारी पद को ग्रहण नहीं कर सकेंगे और न ही चुनाव लड़ सकेंगे।
 
मंत्रियों, अधिकारियों तथा प्रभावी लोगों पर सतत नज़र रखी जाने लगी तथा उनके फ़ोन टेप किए जाने लगे। प्रमुख ओहदे अपने परिवार के ही सदस्यों में बांट लिए गए। श्रीलंका के वित्तीय बजट के 75 प्रतिशत हिस्से पर राजपक्षे परिवार का नियंत्रण हो गया।
 
न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकांश अधिकार भी स्वयं राजपक्षे ने ले लिए थे। न्यायाधीशों की नियोक्तियों का अधिकार भी उनके अपने पास ही था। इस प्रकार सत्ता का पूरी तरह केंद्रीकरण हो चुका था।

इतने अधिकारों के साथ शक्तिशाली राजपक्षे का सामना करना किसी के लिए भी आसान नहीं था। विजेता राष्ट्रपति सिरिसेना, नवम्बर 2014, यानी चुनावों के ठीक पहले तक राजपक्षे मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री थे। चुनावों की घोषणा के बाद डेढ़ माह के इस छोटे से अंतराल में राष्ट्रपति पद के लिए वे विपक्ष के साझा उम्मीदवार बने और सर्वसत्ता संपन्न राजपक्षे को पराजित कर विश्व को चौंका दिया।   
 
तमिल इलम से युद्ध की आड़ में श्रीलंका सेना द्वारा आम तमिलों की जघन्य हत्याओं को लेकर भारतीय तमिल समुदाय की नाराज़गी की वजह से भारत सरकार और श्रीलंका सरकार में पिछले कुछ वर्षों में दूरियां बढ़ीं।
 
सन् 2012 और 2013 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की मानवाधिकार समिति ने श्रीलंका के विरुद्ध मानवाधिकारों के हनन को लेकर दो बार प्रस्ताव पास किया जिसमें श्रीलंका सरकार को मानव अधिकारों के हनन की शिकायतों की तफ्तीश करने की हिदायत दी गई थी। इस तरह मानवाधिकारों को लेकर संयुक्त राष्ट्रसंघ में  श्रीलंका की भद पिटी। दोनों ही बार घरेलू राजनीतिक दबाव के चलते  भारत ने श्रीलंका के विरुद्ध मत दिया। 
 
यद्यपि प्रस्ताव के कठोर प्रारूप में भारत कुछ फेरबदल करवाने में सफल रहा था। दूसरी ओर पाकिस्तान और चीन सहित एशिया के सभी देशों ने श्रीलंका के समर्थन में मत दिया। मानव अधिकारों के हनन को लेकर विश्व की आलोचनाओं और भारत के विरोधी स्वरों को भांपकर श्रीलंका, चीन की गोद में जा बैठा। उसने चीन के साथ अनेक ऐसे समझौते किए जो भारत के हितों के विरुद्ध थे। उनमें प्रमुख है सामरिक जरूरतों के लिए चीन की नौसेना को श्रीलंकाई बंदरगाह उपलब्ध करा देना। चीन को कई बड़े प्रोजेक्ट के ठेके भी  दिए गए जिसमें एक बंदरगाह और एक एयरपोर्ट भी शामिल है। चीन के साथ राजपक्षे सरकार की बढ़ती मित्रता भारत को बेचैन करती रही। 
 
सिरिसेना के आने से संकेत हैं कि भारत श्रीलंका के रिश्तों में फिर से गरमाहट आएगी। सिरिसेना इसकी शुरुआत हो सकते हैं क्योंकि सिरिसेना की पीठ पर तमिल नरसंहार का कोई बोझ नहीं है। उन्होंने भारत के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने की बात भी कही है तथा चीन को दिए गए ठेकों का पुनः आकलन करने का चुनावी वादा भी  है। हिन्द महासागर का मोती कहा जाने वाला यह राष्ट्र आज एक परिवार के शिकंजे से बाहर निकला है।  
 
मोदीजी आरंभ से ही अपने पडोसी देशों  से अच्छे रिश्ते बनाने पर जोर दे रहे हैं किन्तु राजपक्षे के तानाशाहीपूर्ण रवैए से वे निश्चित ही नाखुश रहे  होंगे। शायद यही वजह रही हो कि अभी तक उन्होंने अपना श्रीलंका यात्रा का कोई कार्यक्रम नहीं बनाया किन्तु लेखक का मानना है कि शीघ्र ही हमें मोदीजी की श्रीलंका यात्रा देखने को मिलेगी। जब कोई नेता अपने आप को देश के लिए अपरिहार्य मान लेता है तभी से उसके पतन की शुरुआत होती है। 
 
राजपक्षे के साथ भी यही हुआ। देश किसी एक व्यक्ति या वंश के भाग्य से बंधा नहीं होता अपितु देश उसके हर नागरिक के भाग्य से बंधा होता है। देश के सारे नागरिक मिलकर देश का भाग्य बनाते हैं, अतः वे उसे किसी खूंटे से बंधा नहीं देखना चाहते।  दुर्भाग्य मानव समाज का कि कुर्सी का लोभ अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को जन्म देता है और जनता को उसका सिर बार-बार कुचलना पड़ता है, कभी मतपत्र के माध्यम से तो कभी जन विप्लव से। परिवर्तन की सुखद बयार जो पिछले चुनावों में भारत में चली थी वह श्रीलंका तक पहुंच गई। 
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