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Written By समय ताम्रकर

गब्बर इज बैक : फिल्म समीक्षा

गब्बर इज बैक : फिल्म समीक्षा - Gabbar Is Back Film Review
सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार से परेशान आम आदमी द्वारा कानून अपने हाथ में लेकर भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाने वाले आइडिए पर इतनी फिल्में बनी हैं कि अब इनमें नया दिखाने के लिए कुछ बाकी नहीं रह गया है। गब्बर इज बैक का भी यही विषय है। यह तमिल फिल्म रामना का रीमेक है जो आज से 13 वर्ष पहले बनी थी। 
 
गब्बर, फिल्म 'शोले' में विलेन था जिसका नाम सुनकर बच्चे सो जाते थे। 'गब्बर इज बैक' में नाम विलेन का है, पर काम हीरो वाला है। इस गब्बर से रिश्वत लेने वालों के हाथ कांपने लगते हैं और वे बिना पैसा खाए काम करने लगते हैं। हकीकत में ये संभव नहीं है, लेकिन जिस तरह सुनने या पढ़ने में ये बातें अच्छी लगती हैं, इसी तरह स्क्रीन पर देखते समय भी अच्छी लगती हैं। आम आदमी जो काम कर नहीं पाता है वह हीरो को करते देख खुश हो जाता है। गब्बर इज बैक दर्शकों में यह भावना जगाने में सफल रही है। 
 
फिल्म महाराष्ट्र में सेट है। प्रदेश में भ्रष्ट लोगों का बोलबाला है। पुलिस को समोसे खाने से फुरसत नहीं है। डॉक्टर्स मुर्दे का इलाज कर पैसा कमाने में लगे हुए हैं। नेता जन-सेवा का मतलब भूल गए हैं। अचानक गब्बर का नाम चारों ओर सुनाई देने लगता है। वह भ्रष्ट कर्मचारियों का किडनैप कर उन्हें अपने मुताबिक सजा देता है। जरूरत पड़े तो वह उनकी हत्या करने में भी नहीं हिचकता। 
 
फिल्म अपने पहले सीन से ही दर्शकों तैयार कर देती है कि वे किस तरह की फिल्म देखने वाले हैं जब महाराष्ट्र के विभिन्न शहरों से दस तहसीलदारों का एक साथ अपहरण हो जाता है। गब्बर और उसके जैसी सोच रखने वाले लोग इस काम को अंजाम देते हैं। अफरा-तफरी मच जाती है। 
फिल्म की कहानी एआर मुरुगदास ने लिखी है। मूल कहानी के समानांतर कुछ ट्रेक चलते रहते हैं। जैसे आदित्य क्यों गब्बर बना? फिल्म में धीरे-धीरे इस राज को खोला गया। पुलिेस के आला ऑफिसर निकम्मे हैं, लेकिन पुलिस में ड्रायवर की नौकरी करने वाले साधु (सुनील ग्रोवर) अपनी बुद्धिमत्ता से गब्बर को ढूंढने की कोशिश करता है और बहुत नजदीक पहुंच जाता है। इस ट्रेक को मूल कहानी के साथ खूबसूरती से लपेटा गया है। 
 
फिल्म में दो दमदार किरदार दिग्विजय पाटिल (सुमन तलवार) और सीबीआई ऑफिसर कुलदीप पाहवा (जयदीप अहलावत) की एंट्री से नए उतार-चढ़ाव आते हैं। दिग्विजय से गब्बर को पुराना हिसाब चुकता करना है तो गब्बर को पकड़ने के लिए कुलदीप जाल बिछाता है।  
 
फिल्म अच्छाई बनाम बुराई के सरल ट्रेक पर चलती है। आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना जरा भी मुश्किल नहीं है, लेकिन निर्देशक कृष का प्रस्तुतिकरण फिल्म को बचा ले जाता है। उन्होंने फिल्म की गति तेज रखी है ताकि दर्शकों को सोचने का वक्त ‍कम मिले। साथ ही बीच-बीच में ताली पीटने और सीटी बजाने वाले सीन उन्होंने रखे हैं जिससे फिल्म न केवल फिल्म में रूचि बनी रहती है बल्कि मनोरंजन का डोज भी लगातार मिलता रहता है। 

 
अस्पताल में मुर्दे का इलाज कर पैसे लूटने का सीन गजब का है। रियल लाइफ में ऐसे कई किस्से हो चुके हैं इसलिए इसे फिल्मी कहकर टालना उचित नहीं रहेगा। थोड़ा नमक-मिर्च लगाकर इसे पेश किया गया है बावजूद इसके इस प्रसंग को दर्शकों की तालियां मिलती हैं। अस्पताल और डॉक्टर्स की मिलीभगत की पोल यह प्रसंग खोलता है। इसी तरह दिग्विजय पाटिल को उसके घर से किडनैप करने वाला सीन भी बेहतरीन बन पड़ा है।
 
फिल्म के आखिर में जब गब्बर को गिरफ्तार कर जेल ले जाया जाता है तब गब्बर के प्रशंसक पुलिस वैन को चारों ओर से घेर लेते हैं। गब्बर से पुलिस ऑफिसर कहता है कि वह अपने प्रशंसकों को रास्ता छोड़ने के लिए कहे। पुलिस वैन की छत पर चढ़ने के लिए वह अपनी हथेलियों को आगे करता है ताकि गब्बर ऊपर चढ़ सके। इस सीन के जरिये दिखाया गया है कि एक काबिल अफसर भी गब्बर के विचारों से सहमत है, लेकिन कानून का सेवक होने के कारण वह भी मजबूर है। यह छोटा-सा सीन कई बातें कह जाता है।
 
खामियां भी कई हैं। गब्बर सब कुछ आसानी से कर लेता है। वह कहीं भी कभी भी पहुंच जाता है। भेष बदलना उसके लिए बाएं हाथ का खेल है। दिग्विजय पाटिल जैसे शक्तिशाली आदमी के घर वह ऐसे घुस जाता है जैसे खुद का घर हो। ताज्जुब की बात यह है कि दिग्विजय के घर एक भी आदमी नहीं रहता। गब्बर कैसे अपनी टीम खड़ी कर लेता है इस बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई जबकि इसके बारे में जानने के लिए उत्सुकता रहती है। 
 
श्रुति हासन का किरदार ठीक से नहीं लिखा गया है। श्रुति और अक्षय के बीच का रोमांस निर्देशक और लेखक ने अधूरे मन से रखा है। अक्षय की उम्र तब अचानक बढ़ जाती है जब वे श्रुति के साथ होते हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरह यह लाउड है जिसमें गाने कहीं से भी टपक पकड़ते हैं। चूंकि मनोरंजन का पलड़ा खामियों के पलड़े से भारी है इसलिए फिल्म अच्छी लगती है।
 
दाढ़ी अक्षय ने अमजद खान से उधार ली है और किरदार को अपने तरीके से निभाया है। चूंकि उनका किरदार लार्जर देन लाइफ है इसलिए लटके-झटकों के साथ दर्शकों को खुश करने वाला उन्होंने अभिनय किया है। 'सिस्टम बच्चों के डायपर जैसा हो गया है, कहीं से गीला और कहीं से ढीला' जैसे कुछ दमदार संवाद उन्होंने बोले हैं।
 
श्रुति हासन खूबसूरत लगी, लेकिन उनके किरदार को फिल्म में बिलकुल महत्व नहीं दिया गया है। उनका अभिनय ठीक-ठाक है। 'गुत्थी' के रूप में मशहूर सुनील ग्रोवर ने गंभीर भूमिका बेहद कुशलता के साथ निभाई है। उनका किरदार फिल्म में दिचलस्पी पैदा करता है। विलेन के रूप में सुमन तलवार ठीक-ठाक रहे। दरअसल उनका किरदार ठीक से स्थापित नहीं किया गया और 'ब्रैंड' वाला संवाद बार-बार बोल उन्होंने दर्शकों को पकाया। सीबीआई ऑफिसर के रूप में जयदीप अहलावत प्रभावित करते हैं। कैमियो में करीना कपूर स्क्रीन को जगमगा देती हैं। चित्रांगदा सिंह को पता नहीं क्यों इस तरह के आइटम सांग करने पड़ रहे हैं? 
 
रजत अरोरा ने फिल्म के संवाद लिखे हैं, लेकिन ये अपेक्षा के अनुरूप दमदार नहीं हैं। अक्षय-करीना पर फिल्माया गया 'तेरी मेरी कहानी' ही सुनने लायक है। सिनेमाटोग्राफी खास नहीं है। संपादन ढीला है। कम से कम 15 मिनट फिल्म को छोटा किया जा सकता है। खासतौर में क्लाइमैक्स में की गई अक्षय की भाषणबाजी को संक्षिप्त करना अति आवश्यक है। 
 
गब्बर इज बैक दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरह है जिसमें लाउड ड्रामा, धमाकेदार हीरो, भारी-भरकम डायलॉग्स, तेज बैकग्राउंड म्युजिक, धांसू फाइट सीन जैसे मसाले हैं जो दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। 
 
बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, एसएलबी फिल्म्स 
निर्माता : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, संजय लीला भंसाली, शबीना खान
निर्देशक : कृष 
संगीत : चिरंतन भट्ट, हनी सिंह
कलाकार : अक्षय कुमार, श्रुति हासन, सुनील ग्रोवर, सुमन तलवार, जयदीप अहलावत, मेहमान कलाकार - करीना कपूर, चित्रांगदा सिंह
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट
रेटिंग : 3/5