1995 में गोविंदा और करिश्मा कपूर को लेकर डेविड धवन ने कुली नं. 1 फिल्म बनाई थी। यह कोई महान फिल्म नहीं थी जो इसका 25 वर्ष बाद रीमेक बनाया जाए। हां, सफल जरूर थी। 25 वर्ष बाद यदि रीमेक बनाया जा रहा है तो समय अनुसार बदलाव जरूरी है। 25 वर्षों में न केवल गंगा में पानी बहुत बह गया है, बल्कि फिल्म मेकिंग, प्रस्तुतिकरण और यहां तक कि दर्शकों की पसंद में काफी परिवर्तन आ गया है, लेकिन कुली नं 1 से जुड़े लोगों को यह परिवर्तन नजर नहीं आए और उन्होंने 2020 में भी 1995 वाला माल परोस दिया है जो बासी और आउटडेटेट लगता है।
जेफरी रोजारियो (परेश रावल) उसकी बेटी सारा (सारा अली खान) के लिए रिश्ता लाए पंडित जयकिशन (जावेद जाफरी) का अपमान कर देता है। बौखलाया पंडित इसका बदला लेता है। वह कुली का काम करने वाले राजू (वरुण धवन) को अरबपति बता कर उसकी शादी सारा से करवा देता है। राजू की असलियत सामने न आए इसलिए वह झूठ पर झूठ बोलता है। यहां तक की वह अपना काल्पनिक जुड़वां भाई की कहानी भी गढ़ लेता है। किस तरह से असलियत सामने आती है और उसके बाद क्या होता है यह फिल्म का सार है और इसे हास्य के सहारे दर्शाया गया है।
यह कहानी हूबहू वैसी ही है, 1995 की फिल्म जैसी। 2020 के हिसाब से कोई बदलाव नहीं किया गया है। 1995 में गूगल नहीं था, इंटरनेट का नाम ही अधिकांश ने नहीं सुना था इसलिए किसी को झूठ बोलकर बनाना आसान था, लेकिन आज के दौर में यह कठिन है। कुली राजू को झूठ बोल कर पंडित अरबपति बताता है, लेकिन अपने आपको होशियार समझने वाला जेफ्री और उसकी बेटी सारा कभी राजू की असलियत जानने की कोशिश नहीं करते। स्मार्टफोन चलाते हैं लेकिन गूगल का इस्तेमाल नहीं करते।
पंडित का अपमान भी जेफरी इतने बुरे तरीके से नहीं करता कि वह बदला लेने पर उतारू हो जाए। कम से कम इस सीन को बेहतर तरीके से लिखा जाना था क्योंकि पूरी कहानी का आधार ही यह प्रसंग है।
फिल्म में राजू को छोड़ सारे पात्र मूर्ख हैं, वे राजू की हर बात पर विश्वास कर लेते हैं, कभी प्रश्न नहीं करते, ऐसे में पूरा ड्रामा प्रभावहीन बन गया है।
माना कि यह फिल्म मनोरंजन के लिए बनाई गई है, लेकिन कॉमेडी सीन बेअसर साबित होते हैं। संवादों के नाम पर तुकबंदी पेश कर दी गई है, आखिर इनसे कैसे मनोरंजन हो सकता है।
राजू को अपने किए पर कोई पछतावा नहीं होता। न ही सारा के प्रति कोई सहानुभूति जताने वाले दृश्य हैं, जिससे फिल्म भावना विहीन हो गई है।
फिल्म का शुरुआती घंटा उबाऊ है और समझ में आता है कि फिजूल ही हंसाने की कोशिश की जा रही है। दूसरे घंटा थोड़ा बेहतर है, लेकिन मनोरंजक दृश्य कम ही हैं।
डेविड धवन ने फिल्म को तेजी से भगाया है, लेकिन लेखकों का उन्हें साथ नहीं मिला। साथ ही उनका निर्देशन आज के दौर में बनने वाली फिल्मों के अनुरूप नहीं है। फाइटिंग सीन, गाने इस तरह डाले गए हैं मानो तयशुदा फॉर्मूलों पर फिल्म बनाई जा रही हो।
वरुण धवन ने जम कर ओवर एक्टिंग की है और कुछ दृश्यों में वे कोई असर नहीं छोड़ पाए हैं। मिथुन चक्रवर्ती की मिकिक्री को इतना लंबा खींचा गया है कि कोफ्त होने लगती है। डांस में वे बेहतर रहे हैं।
सारा अली खान का रोल महत्वहीन है और उनका अभिनय औसत से भी कम रहा है। वे शायद हैरान थीं कि वे इस फिल्म का हिस्सा क्यों हैं? परेश रावल बेहतरीन कॉमेडी करते हैं, लेकिन उनके लिए ऐसे दृश्य लिखे ही नहीं गए हैं जो उनकी प्रतिभा के साथ न्याय कर सकें। राजपाल यादव और जावेद जाफरी थके हुए लगे।
गानों में पुराने (मैं तो रस्ते से जा रहा था और हुस्न है दीवाना) ही बेहतर रहे, नए ब्रेक के काम आते हैं। कुछ गानों का फिल्मांकन बढ़िया है। रवि के. चन्द्रन की सिनेमाटोग्राफी बढ़िया है।
कुल मिला कर कुली नं. 1 अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती।
बैनर: पूजा एंटरटेनमेंट
निर्माता : जैकी भगनानी, वासु भगनानी
निर्देशक : डेविड धवन
कलाकार : वरुण धवन, सारा अली खान, परेश रावल, जावेद जाफरी, राजपाल यादव
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