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Written By समय ताम्रकर

फिल्मों के मुकाबले टीवी के कार्यक्रम स्तरीय : राजेश दुबे

फिल्मों के मुकाबले टीवी के कार्यक्रम स्तरीय : राजेश दुबे -

राजेश दुबे छोटे परदे के लिए लेखन कार्य करते हैं और उनका कहना है कि फिल्म की तुलना में टीवी के लिए लिखना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है। साथ ही उनका मानना है कि अब टीवी पर उच्च गुणवत्ता वाले कार्यक्रम भी प्रसारित हो रहे हैं और पिछले तीन-चार वर्षों में टीवी धारवाहिक के कंटेंट में काफी बदलाव आया है। बलिका वधू, सात फेरे, ससुराल सिमर का जैसे उम्दा धारावाहिकों के लिए वे लेखन कर चुके हैं। पेश है राजेश दुबे से बातचीत के मुख्य अंश :

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टीवी के लिए लेखन में रूचि कैसे हुई?
बचपन से ही पढ़ने का शौक था। घर में उपन्यास, पत्रिकाओं और अखबारों से घिरा रहता था। राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी जैसे लेखकों के आलेखों को पढ़ कर लिखने में रूचि पैदा हुई। फिर वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने लगा। कालिदास पर बोलना था। उनके बारे में पढ़ा। समझ में आया कि लिखना है तो पढ़ना खूब पढ़ेगा और यही काम भी आया। थिएटर से जुड़ा। नाटक लिखे और फिर टीवी के लिए लिखना शुरू कर दिया।

लेखक की स्क्रिप्ट में कई बार बदलाव कर दिया जाता है, ऐसी स्थिति में लेखक पर क्या गुजरती है?
लेखक की स्क्रिप्ट में बदलाव फिल्मों में ज्यादा होता है क्योंकि फिल्म पूरी तरह निर्देशक का माध्यम होती है। वह अपने मुताबिक गाने डालता है। कहानी को पेश करने का उसका अपना तरीका होता है, लेकिन टीवी पूरी तरह से लेखक का माध्यम है। यहां लेखक द्वारा लिखी गई स्क्रिप्ट को ही शूट करना है। इसलिए टीवी के लिए लिखी गई स्क्रिप्ट में बदलाव की गुंजाइश बहुत कम होती है।

सुना है कि टीआरपी के दबाव का हवाला देते हुए कई बार चैनल वाले धारावाहिकों की कहानी, किरदारों में बदलाव लाने के लिए जोर डालते हैं?
यदि टीआरपी नहीं मिलेगी तो शो बंद हो जाएगा। चैनल वाले इस बारे में लेखक से बात करते हैं और सह‍मति से बदलाव की कोशिश की जाती है। यदि आप सहमत न भी हो तो कई बार समझौता करना ही पड़ता है।

टीवी पर इतने कमजोर कार्यक्रम क्यों आते हैं?
फिल्में भी कहां अच्छी होती हैं। साल में मुश्किल से चार-पांच फिल्में ऐसी आती हैं जो अच्छी कही जा सके। सलमान खान और शाहरुख खान जैसे सितारों की फिल्में बकवास होती हैं। उनके मुकाबले टीवी पर ज्यादा स्तरीय कार्यक्रम आते हैं। चार-पांच वर्षों से काफी बदलाव आया है, लेकिन लोगों ने अभी भी टीवी के प्रति यही राय बना रखी है कि इस पर सिर्फ सास-बहू के रोने-धोने वाले धारावाहिक ही आते हैं। आलोचना करने वाले क्या सारे कार्यक्रम देखते हैं। मैंने जो धारावाहिक लिखे हैं उनमें मनोरंजन के साथ-साथ संदेश भी है। बालिका वधू में हमने कई सामाजिक मुद्दे उठाए। विधवा विवाह, बाल विवाह जैसे मुद्दों को प्रमुखता से दिखाया गया। लड़कियों को जब मासिक धर्म शुरू होता है तो उन्हें इस बारे में जागरूक करने के बारे में सिर्फ इसी धारावाहिक में दिखाया गया है। ससुराल सिमर का में एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसकी प्रतिभा को उसके घर वाले ही नहीं पहचान रहे हैं। सात फेरे में सांवली रंग वाली लड़की कहानी है, जिसे समाज तिरस्कृत करता है, लेकिन वह सफलता हासिल कर गोरे रंग के मिथक को तोड़ती है। इनके अलावा भी कई बेहतरीन कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं और ये टिपिकल सास-बहू जैसे धारावाहिक नहीं हैं, जैसा कि आलोचक कहते हैं।

देहाती दर्शकों को ध्यान में रखकर ज्यादा धारावाहिक क्यों बनाए जाते हैं?
बड़े शहरों की तुलना में देहाती दर्शकों की संख्या बहुत ज्यादा है। इन धारावाहिकों के जरिये हम सीधे उनसे संवाद स्थापित करते हैं। साफ-सफाई जैसी छोटी-छोटी बातें मनोरंजक अंदाज में बताई जाती है।

सुना है फिल्म और टीवी इंडस्ट्री में काफी लोग घोस्ट राइटिंग करते हैं?
यह सच है। चूंकि लेखकों का कोई मजबूत संगठन नहीं था, इसलिए उनका शोषण जमकर हुआ, लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं। कॉपीराइट जैसे कानून आ गए हैं। राइटर्स एसोसिएशन में ऐसे लोग आ गए हैं जो वर्तमान में भी काम कर रहे हैं। वे लेखकों की समस्याएं जानते हैं। धीरे-धीरे स्थितियां बदल रही हैं।

जो फिल्म और टीवी की दुनिया में लेखन कार्य करना चाहते हैं, उन्हें क्या सलाह देंगे?
काम आसान नहीं है, लेकिन यदि प्रतिभा है तो सफलता जरूर मिलेगी। मेरा उनसे कहना है कि वे खूब पढ़े तो उन्हें लिखने में आसानी होगी। अब कई फिल्म इंस्टीट्यूट भी हैं जो लेखन कार्य सिखाते हैं। उन्हें ज्यादा से ज्यादा लेखन के वर्कशॉप अटेंड करना चाहिए। युवाओं को भी अब इसमें करियर नजर आ रहा है।