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Last Updated : शुक्रवार, 9 जून 2023 (14:01 IST)

'कैनेडी' के लिए एक ऐसी औरत चाहिए थी जो 40 साल की हो और सुंदर हो, सनी लियोनी इस पर खरी उतरीं: अनुराग कश्यप

कान फिल्म फेस्टिवल में अनुराग कश्यप से वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजित राय की खास बातचीत

कान फिल्म फेस्टिवल में अनुराग कश्यप से वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजित राय की खास बातचीत | film critic Ajit Rai in conversation with Anurag Kashyap at the Cannes Film Festival
भारतीय सिनेमा के लिए इससे बेहतर घटना कोई नहीं हो सकती कि 1994 के बाद अनुराग कश्यप की फिल्म 'कैनेडी' पिछले 29 वर्षों में पहली ऐसी फिल्म है जो कान फिल्म समारोह के ऑफिशियल सेलेक्शन के मिडनाइट स्क्रीनिंग खंड में ग्रैंड थियेटर लूमिएर में दिखाई गई। इससे पहले 1994 में शाजी एन करूण की मलयालम फिल्म 'स्वाहम' का प्रतियोगिता खंड में ग्रैंड थियेटर लूमिएर में प्रदर्शन हुआ था। इतना ही नहीं उन्हें और उनकी टीम को सचमुच में गाजे बाजे के साथ आफिशियल रेड कार्पेट दी गई।
 
करीब साढ़े तीन हजार की क्षमता वाला ग्रैंड थियेटर लूमिएर आधी रात के साढ़े बारह बजे पूरी तरह दर्शकों से भर गया था। रेड कार्पेट शुरू होने से लेकर थियेटर में पहुंचने तक दर्शक अनुराग कश्यप के लिए लगातार तालियां बजाते रहे। फिल्म के खत्म होने पर रात के तीन बजे दर्शकों ने खड़े होकर दस मिनट तक तालियां बजाकर उनका मान बढ़ाया। उसके बाद भी सुबह चार पांच बजे तक लोग ग्रैंड थियेटर लूमिएर के बाहर सड़कों पर अनुराग कश्यप, राहुल भट्ट, सनी लियोनी, मोहित टकलकर और फिल्म की टीम के साथ चर्चा करते रहें। बेशक आकर्षण का केंद्र सन्नी लियोनी भी थीं। कान फिल्म फेस्टिवल के दौरान वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजित राय ने अनुराग कश्यप संग खास बातचीत भी की। पेश हैं दोनों की बातचीत के कुछ खास अंश...
 
जिस तरह से आपकी फिल्म 'कैनेडी' का कान फिल्म फेस्टिवल में स्वागत हुआ है उसे देखकर आपको कैसा महसूस हो रहा है।
मैं एक ही बात कहूंगा कि मैं सबका हृदय से कृतज्ञ हूं। डायरेक्टर-प्रोड्यूसर के रूप में अब तक मेरी चौदह फिल्में कान फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जा चुकी है पर मुख्य सभागार ग्रैंड थियेटर लूमिएर में मेरी फिल्म का प्रदर्शन (बुधवार, 24 मई 2023) होना बहुत बड़ी घटना है। हर फिल्मकार का यह सपना होता है कि उसकी फिल्म ग्रैंड थियेटर लूमिएर में दिखाई जाए। आपने भी देखा कि साढ़े तीन हजार की क्षमता वाला ग्रैंड थियेटर लूमिएर आधी रात को साढ़े बारह बजे दर्शकों से भर गया। रात के तीन बजे फिल्म के खत्म होने के बाद भी जिस तरह से लोग सड़कों पर सुबह के चार- पांच बजे तक फिल्म के बारे में हमसे चर्चा करते रहे, यह मेरे लिए अभूतपूर्व है।
 
'कैनेडी' फिल्म का आइडिया क्या सुधीर मिश्रा ने आपको सुनाया था। फिल्म उनके नाम से शुरू होती है। आपने सबके सामने उनके पैर छुए?
जी हां। सुधीर मिश्रा से मैंने कैरेक्टर चुराया था। उन्होंने ही फिल्म के नायक मुंबई पुलिस के पूर्व अधिकारी (उदय शेट्टी) के बारे में बताया था जो अपने भूतों के साथ रहता है और भ्रष्ट सिस्टम के लिए सेक्रेटली काम करता है जो काम आम तौर पर पुलिस आफिसर नहीं करते हैं। वह कुछ-कुछ साइकोपैथ जैसा है। वह उनके लिए रोबोट की तरह हत्याएं करता है। मैंने पटकथा लिखने के बाद उन्हें बताया। उन्होंने कहा कि जाओ जो करना है करो। किसी को तो बनाना ही था, तू बनाएगा तो अच्छी फिल्म बनेगी। उन्होंने मुझे आशीर्वाद दे दिया।
 
आपने कैनेडी के लिए कास्टिंग कैसे की। इसमें तीन मुख्य किरदार हैं, राहुल भट्ट, मोहित टकलकर और सनी लियोनी। सनी लियोनी को क्यों कास्ट किया?
मुझे एक ऐसी औरत चाहिए थी जो चालीस साल की हो और अभी भी सुंदर हो। सनी लियोनी इस पर खरी उतरीं। मुझे बस इतना ही संदेह था कि वे एक्टिंग करेंगी कि नहीं, आडिशन देंगी कि नहीं। वे आई और उन्होंने आडिशन दिया और चुन ली गईं। सनी लियोनीं अभी भी सुंदर है। उन्हें सारी जिंदगी भेड़ियों और गिद्धों से डील करना पड़ा है। और उन्होंने सरवाइव किया। वह लोगों की ऐसी नज़रों से गुजरी है जिससे सबको नहीं गुजरना पड़ता। उन्हें पता है कि कैसे डील करना है। लोगों का क्या, उनकी एक्सपेक्टेशन वहीं है। वे सनी लियोनी को सेक्स से उपर देखते नहीं है। फिल्म की कैटलिस्ट वहीं है। जो कुछ हो रहा वह उसी की वजह से हो रहा है। मेरे लिए उसका किरदार बहुत जरूरी था।
 
आपने नायक के रूप में राहुल भट्ट को क्यों लिया। रमन राघव की तरह नवाजुद्दीन सिद्दीकी को भी तो ले सकते थे?
नहीं नहीं। मुझे एक ऐसा आदमी चाहिए था जो दैत्य दिखे। नवाजुद्दीन सिद्दीकी दैत्य नही बन सकता। उसको मैं अलग तरह से देखता हूं। उसे मैंने रमन राघव में एक साइकोपैथ का रोल दिया था, पर वह अलग तरह का था। उदय शेट्टी के रोल के लिए मुझे ऐसा आदमी चाहिए था जो दैत्य दिखे, मुझे राहुल भट्ट की आंखों में वह दिखा। फिर नवाज बहुत व्यस्त हैं। वह उतना समय नहीं निकाल सकता था। मुझे ऐसा अभिनेता चाहिए था जो फिल्म की शूटिंग से पहले आठ महीने दे। 
 
लोगों के लिए यह सब छोटी चीज है पर मेरे लिए एक एक चीज बहुत महत्वपूर्ण है। मेरे चरित्र के लिए हथियार बहुत महत्वपूर्ण है और मेरा अभिनेता उससे कितना परिचित हैं। आपको फिल्म का ओपनिंग सीन याद है जिसमें राहुल चाकू से सेब छील रहा है और सेब कहीं से टूटता नहीं है। राहुल ने  पांच सौ सेब काटे होंगे। इसके लिए उसने चार महीने प्रैक्टिस की। क्यों क्योंकि चाकू उसका हथियार है वह कब आता है उसके हाथ में और कब चला जाता है कोई नही जानता। या फिर उस सीन को याद कीजिए जिसमें वह आंखों पर पट्टी बांध कर गन खोल और बंद कर रहा है। उसने पांच महीने आंखों पर पट्टी बांध कर गन खोलने और बंद करने की प्रैक्टिस की। राहुल ने आठ महीने छोटी छोटी चीजों की रोज प्रैक्टिस की। उसने इस रोल के लिए बहुत मेहनत की है।
 
आपकी फिल्म अंग्रेजी के मशहूर कवि विलियम वर्ड्सवर्थ की एक लाइन से शुरू होती है कि हम कवि नौजवानों के पास खुशी के साथ जाते हैं पर जल्दी ही यह खुशी निराशा और पागलपन में बदल जाती है। इसकी क्या वजह है?
हमारी फिल्म का कैरेक्टर ही वहीं है कि हमारी शुरूआत कहां होती है और हम खत्म कहां होते हैं। हम जब शुरू होते हैं तो पैशनेट होते हैं, आदर्शवादी होते हैं, ये होते हैं वो होते हैं सबकुछ होते हैं। हमारे अंदर आश्चर्य होता है उत्सुकता होती हैं। पर जब खत्म होते हैं तो मर चुके होते हैं। चीजें हमे प्रभावित नहीं करती। हम समझ जाते हैं कि दुनिया से कैसे डील करना है। हमारे भीतर का दैत्य बाहर आ जाता है। हम इस दैत्य को ह्यूमनाइज करके बाहर ले आते हैं। हमारे पास जस्टिफिकेशन होता है। यहीं तो फिल्म की कहानी है।
 
आपने अपनी पिछली फिल्मों गुलाल या गैंग्स ऑफ वासेपुर की तरह इसमें गीत संगीत नहीं रखा है। फिल्म में एक चरित्र है जो बीच बीच में जिंदगी के बारे में कुछ दार्शनिक किस्म की कविताएं सुनाता है। एक क्राइम ड्रामा में यह कुछ अजीब नहीं लगता?
वो अमीर अजीज है जो एक प्रोटेस्ट पोएट है। उन्हें सब जानते ही हैं। मैं उनके पास गया और कहा कि मुझे कविताएं चाहिए इस फिल्म के लिए और हम जिस माहौल में रह रहें हैं उससे संबंधित खासतौर से कोविड वाले माहौल के लिए। हमें कोई पालिटिकल कमेंटरी नहीं करनी है पर पालिटिक्स से आप भाग नहीं सकते हैं। जो पालिटिक्स है वह उस समय की है, लोगों की है और समाज की है, कोई पार्टी पालिटिक्स नहीं है। 
 
हम बात कर रहे हैं कि जो आम आदमी है वह कैसे झेलता है सबकुछ। जो बड़ा आदमी है उसतक तो हम पहुंचते ही नहीं है सिर्फ उसकी बातों करते रहते हैं।कोविड में सबसे ज्यादा लाभ उनको हुआ जिनके पास पहले से ही काफी पैसा था, बाकी सब तो मर गए। उनके काम धंधे बंद हो गए। एक जानर फिल्म में हम यह सब कैसे कहें? इसलिए मुझे गीत संगीत नहीं कविताएं चाहिए थी।
 
फिल्म एक पाराडाइम शिफ्ट की ओर भी इशारा करती है कि मुंबई में अंडरवर्ल्ड के खात्मे के बाद उसके सारे काम (अपराध) भ्रष्ट सिस्टम करने लगा। यानी भ्रष्ट सिस्टम ने अंडरवर्ल्ड को रिप्लेस कर दिया।
ठीक कह रहे हैं। ऐसा ही हुआ। आज हमारे सारे गैंग्स्टर कहां है, राजनीति में हैं। आप बताओ कौन गैंग्स्टर राजनीति में नहीं है। सबसे ज्यादा अशिक्षित और गुंडा प्रवृत्ति के लोग या तो राजनीति में हैं या धर्म में हैं।
 
यह फिल्म भ्रष्ट सिस्टम के बारे में तो है पर किसी खास राजनीति के बारे में नहीं है। पटकथा अपने मूल कथ्य क्राइम ड्रामा से विलकुल नहीं भटकती। और इसमें कोई सेक्स सीन है। ऐसा क्यों?
सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिसमें कैरेक्टर खुद को रिप्रेजेंट कर रहा है, मुझे नहीं। इसलिए इस फिल्म में मेरी कोई पालिटिक्स नहीं है। उससे मैं दूर रहना चाहता हूं। क्योंकि समय बदलता है। केंद्र और राज्य की बात है। जो सरकारें जनता के द्वारा चुनकर आतीं हैं उन्हें हम कैसे रिजेक्ट कर सकते हैं। उनके बारे में हम अपने विचार दे सकते हैं। पालिटिक्स तो पीपुल्स से आती है। हम अमीर गरीब की राजनीति की बात कर रहे हैं। बाकी चीजें तो जनता जानती है।
 
इस फिल्म में एक चरित्र गुंजन का है। इसी बहाने आपने औरतों को बड़ी संजीदगी से दिखाया है।
गुंजन का चरित्र मैंने अबू सलेम और मोनिका बेदी से लिया है। हमारी दुनिया में औरते मर्दों को भुगतती है। औरतों मर्दों से ज्यादा पावरफुल होती है, फिर भी वे भुगतती है।
 
फिल्म देखकर लगता है कि साफ साफ उस घटना से प्रेरित है जब मुंबई के एक सबसे अमीर बिजनेस मैन के घर के बाहर विस्फोटक से भरी एक गाड़ी पकड़ी गई थी और इस मामले में राज्य के गृहमंत्री, पुलिस कमिश्नर और हफ्ता वसूली करने वाले एक पुलिस अधिकारी का नाम सामने आया था। क्या यह सच है?
जी हां। असली कहानी यहीं से शुरू होती है जो मैंने लिखा था। फिल्म में जो आपने देखा वह असल कहानी है ही नहीं। फिल्म में तो मैंने वही दिखाया जो मीडिया का परशेप्सन है।
 
आपने फिल्म में टेलीविजन एंकरों का कैरीकेचर क्यों दिखाया है?
महाभारत में सबसे महत्वपूर्ण चरित्र कौन है, संजय। धृतराष्ट्र अंधा है, गांधारी की आंखों पर पट्टी बंधी है। एक संजय ही था जो सच बोलता था। आज के महाभारत में संजय ने ही आंखों पर पट्टी बांध ली है, वहीं जब झूठ बोलने लगे तो हमारा क्या होगा?
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