कोरोना वायरस के आते ही भारत में वेबसीरिज का मार्केट उफान पर आ गया और ओटीटी प्लेटफॉर्म की पहुंच बढ़ गई। वेबसीरिज को युवाओं ने हाथों-हाथ लिया क्योंकि इसमें मेकर्स को जैसा चाहे दिखाने की छूट है। सेंसर नामक फिल्टर से पास नहीं होना पड़ता है। बोल्ड सीन के साथ ऐसे विषय भी लिए गए जिनको हाथ में लेने से फिल्मकार डरते थे।
सेंसर नामक चाबुक सरकार ने हमेशा अपने हाथ में रखा और इससे फिल्मकारों को वो डराते रहे। इसके नियम-कायदे इतने स्पष्ट है कि कभी हाथी निकल जाता है तो कभी पूंछ अटक जाती है। राजकपूर की राम तेरी गंगा मैली के कुछ बोल्ड सीन पास कर दिए गए और फिल्मकार बीआर इशारा की फिल्म बोल्ड सीन के नाम पर रोक दी गई। इशारा भड़क गए कि सेंसर दोहरे मापदण्ड अपनाता है। माथा देख तिलक लगाता है। उन्होंने कहा कि राज कपूर दिखाए तो आर्ट और हम दिखाए तो अश्लीलता।
भारत में सेंसर 1920 में इंडियन सिनेमाटोग्राफ एक्ट नाम से अंग्रेजों ने गठित किया था। यह काम उन्होंने भारत की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के रिलीज होने के सात वर्षों बाद किया था। भारतीय फिल्मकारों ने चतुराईपूर्वक आजादी पाने की हवा को फिल्मों के जरिये तेज किया था। अंग्रेजों को यह चाल सात साल बाद समझ आई। फिर भी भारतीय फिल्मकारों ने उनकी आंखों में खूब धूल झोंकी। 1943 में रिलीज फिल्म 'किस्मत' का गाना है 'दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदुस्तां हमारा है' और यह गाना पास कर दिया गया। सांकेतिक दृश्यों से आजादी की लड़ाई को धार दी।
भारत आजाद हुआ तो सेंट्रल बोर्ड ऑफ सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) का गठन हुआ और सूचना और प्रसारण मंत्रालय के जरिये सरकार ने फिल्म वालों की नाक में उंगली डालने का इंतजाम कर लिया। मुंबई सहित देश के कुछ शहरों में इसके ऑफिस हैं जहां पर सरकार द्वारा चुने गए लोग फिल्म को पास और फेल करने का निर्णय लेते हैं। कई बार इनमें से कुछ सदस्यों के पास कला, तर्क और बौद्धिक ज्ञान नहीं होता।
किसी की भी सरकार हो सेंसर का इस्तेमाल सरकार ने हमेशा अपने हित के लिए किया है। कोई विरोध की बात करे तो उस फिल्म, संवाद और सीन को रोक दो। किशोर कुमार की एक बार सरकार से ठन गई तो रेडियो पर महीनों तक उनके गाने नहीं सुनाए गए। सेंसर का काम अश्लीलता रोकने के लिए भी किया गया, लेकिन इसके लिए कभी ठीक से नियम नहीं बना। देखने वाले की निगाह में अश्लीलता हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता। पतली गली से कई अश्लील फिल्में वर्षों से लगातार दिखाई गईं और इंटरनेट के आने के बाद बंदिश का यह दरवाजा बाढ़ में बह गया।
इन दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म के दरवाजे पर सरकार की कोई पकड़ नहीं है और यह बात परेशान कर रही है। इस पर बंदिश न होने के कारण कई फिल्मकारों ने बेहतरीन विषयों पर बनी अपनी वेबसीरिज पेश की है जिसमें से कुछ बातें सरकार को अपने खिलाफ लगी। कुछ विषयों, दृश्यों और संवादों से धार्मिक भावनाएं आहत हुईं। अश्लीलता की गंदगी भी सतह पर आ गई। तभी से मांग उठने लगी कि ओटीटी पर भी शिकंजा कसना जरूरी है। हाल ही में तांडव सीरिज को लेकर विवाद हो रहा है। इसमें कुछ टिप्पणियां और दृश्यों से हिंदू समाज के लोगों की धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचा है और विरोध शुरू हो गया है। सरकार ने इस पर ओटीटी प्लेटफॉर्म से जुड़े अधिकारियों को तलब किया है।
9 नवंबर 2020 को केंद्र सरकार ने नोटिफिकेशन जारी किया कि डिजीटल/ऑनलाइन मीडिया प्लेटफॉर्म्स को सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन लिया जाए और इस पर नियम-कायदे बनना शुरू हो गए हैं। कुछ दिनों में संभव है कि वेबसीरिज को भी दिखाने के पूर्व अनुमति लेना होगी। सेंसर को दिखाना होगा।
ओटीटी कंटेंट समूह में नहीं देखते : पंकज त्रिपाठी
अभिनेता पंकज त्रिपाठी वेबसीरिज की दुनिया में बड़ा नाम है। क्या वेबसीरिज पर सेंसरशिप होना चाहिए? वेबदुनिया को दिए गए इंटरव्यू में उन्होंने कहा- 'यह सामुदायिक व्यूविंग का माध्यम नहीं है। सामुदायिक व्यूविंग का मतलब है समूह में देखना और हम ओटीटी कंटेंट समूह में नहीं देखते हैं। यह प्राइवेट देखने का माध्यम है। जब हम सिनेमा समूह में देखते हैं तो उसके लिए सेंसर है, सर्टिफिकेट है। सर्टिफिकेट बताता है कि यह सिनेमा उम्र के किस वर्ग के लिए है। वेबसीरिज में भी उम्र को लेकर बताया जाता है कि यह किस उम्र के दर्शकों के लिए है। दूसरी बात, बतौर अभिनेता, मैं खुद एक सेंसर रखता हूं। मेरी भी एक जिम्मेदारी है सेंसर रखने की। मैं समझदार अभिनेता हूं। सेंसर न होने का कुछ मेकर्स, स्टोरी टेलर्स नाजायज फायदा भी उठा सकते हैं। कई ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर अजीब-अजीब कहानियां हैं। तो, यह बड़ा रिस्की मामला है। मेरा मानना है कि बतौर अभिनेता और जिम्मेदार इंसान होने के नाते हम एक सेल्फ सेंसर तो खुद रखते ही हैं, लेकिन दूसरे रखे या न रखे इस बात की गारंटी नहीं ले सकता।'
बाहर से किसी को दखल देने की जरूरत नहीं है : रसिका दुग्गल
विजय आनंद, महेश भट्ट जैसे कई फिल्ममेकर सेंसरशिप का विरोध करते आए हैं। कई दर्शकों का मानना है कि वेबसीरिज को भी सेंसरशिप के दायरे में लाया गया तो इन्हें देखने का मजा ही किरकिरा हो जाएगा। निर्माता-निर्देशक डर-डर कर अपनी बात कहेंगे। खुल कर कहने का जो मजा है वो जाता रहेगा। सरकार की नीतियों के खिलाफ फिल्मकार अपना पक्ष नहीं रख पाएंगे। कैसी विडंबना है कि आप पुस्तक लिख सकते हैं, अखबार और वेबसाइट पर आलेख लिख सकते हैं, लेकिन फिल्म/टीवी सीरियल या वेबसीरिज नहीं बना सकते हैं।
अभिनेत्री रसिका दुग्गल सेंसरशिप का समर्थन नहीं करती। वे कहती हैं- 'मुझे तो कभी नहीं लगता कि किसी भी चीज में डूज़ और डोंट्स होने चाहिए। जो एक सिस्टम होता है वो अपना करेक्शन खुद ही कर लेता है और बाहर से किसी को दखल देने की जरूरत नहीं है, लेकिन ये मेरा मानना है। हालांकि बहुत सारे लोग मानते हैं कि नियम हों, उन नियमों को फॉलो किया जाए, पर मैं उनमें से नहीं हूं। हो सकता है कि वे अपनी जगह सही हो और मैं अपनी जगह सही हूं।'
भावनाओं का ध्यान रखना जरूरी
कुछ लोग वेबसीरिज पर सरकार की नजर रखने की बात का समर्थन करते हैं। वे उन वेबसीरिज का हवाला देते हैं जिनमें सिर्फ विकृत मानसिकता और सेक्स परोसा जाता है। युवाओं और बच्चों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। समाज में ऐसी घटनाएं अब होने लगी हैं जो पहले नहीं होती थी। एक खास धर्म का ही मजाक बनाया जाता है। दूसरे धर्म का मजाक बनाने की कोई हिम्मत नहीं करता है। कई बार ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ करने की भी बातें सामने आती हैं। तो, मिश्रित बातें सुनने को मिलती हैं और एक राय बनाना मुश्किल हो जाता है। सब तरह के लोग हैं और सबकी अपनी पसंद और विचारधारा है।
फिल्म पत्रकारिता के क्षेत्र में 18 वर्ष से सक्रिय रूना आशीष सेंसरशिप का समर्थन करती हैं। वे कहती हैं- यह जरूरी है। कई वेबसीरिज इतनी भौंडी और अश्लील है कि बच्चों पर बुरा प्रभाव होता है क्योंकि वेबसीरिज देखना किसी भी बच्चे के लिए बहुत आसान है। जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल है तो यह आप पर निर्भर करता है कि आप कैसे अपनी बात रखते हैं। क्या पहले फिल्मों के जरिये सरकार और नीतियों की आलोचना नहीं की गई। जाने भी दो यारो जैसी फिल्म के जरिये व्यवस्था पर प्रहार किया गया था। फिल्म या वेबसीरिज के जरिये आप करोड़ों लोगों को संबोधित करते हैं तो ध्यान रखना चाहिए कि किसी की भावनाएं आहत न हो।
आसान नहीं है जवाब ढूंढना
देखा जाए तो हर कोई फिल्म/टीवी सीरियल और वेबसीरिज के विरोध में खड़ा हो जाता है। किसी को नाम पर आपत्ति है, किसी को प्रोफेशन पर, कोई शहर को लेकर भावुक हो जाता है तो कोई धर्म को लेकर। ऐसे में मेकर्स के सामने कई परेशानी उत्पन्न हो जाती है। क्या एक वकील बदमाश नहीं हो सकता? क्या एक सैनिक गलती नहीं कर सकता? क्या किसी धर्म के सभी लोग अच्छे ही होते हैं? क्या किसी शहर में अपराध ही नहीं होते? क्या इतिहास में की गई गलतियों का बखान नहीं किया जा सकता? क्या स्टोरी टेलर अपना कोई मत नहीं रख सकता? क्या सेंसरशिप के जरिये गला घोंटने की कोशिश नहीं की जा रही है? क्या लोग स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का नाजायज फायदा उठा रहे हैं? ये तमाम सवाल बैचेन करते हैं और लगता नहीं कि जल्दी ही इनके जवाब मिलेंगे।