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Written By BBC Hindi
Last Modified: शुक्रवार, 2 सितम्बर 2022 (07:53 IST)

क्या बिहार बन रहा है विपक्षी एकता की नई 'प्रयोगशाला'

क्या बिहार बन रहा है विपक्षी एकता की नई 'प्रयोगशाला' - is Bihar new test ground of opposition unity
सरोज सिंह, बीबीसी संवाददाता
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव बुधवार को बिहार की राजधानी पटना में थे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के साथ उन्होंने एक साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया। प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान थर्ड फ्रंट, मेन फ्रंट, विपक्षी एकता, पीएम मोदी के सामने विपक्ष का उम्मीदवार कौन... इन सब मुद्दों पर खूब सवाल जवाब हुआ। इन सब की चर्चा सोशल मीडिया और राजनीतिक गलियारों में भी खूब हो रही थी।
 
चर्चा तीनों नेताओं की बॉडी लैंग्वेज की भी हो रही है। नीतीश कुमार और विपक्ष के नेतृत्व को लेकर जब चंद्रशेखर राव से सवाल पूछा गया तो नीतीश कुमार खड़े थे और चंद्रशेखर राव बैठे थे। जवाब में उन्होंने कहा," मैं कौन होता हूं। मैं कहूंगा तो कोई विरोध भी करेगा। आप क्यों जल्दबाजी कर रहे हैं।"
 
इस दौरान बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उन्हें बार-बार 'चलिए' कहते दिख रहे है और चंद्रशेखर राव बार-बार नीतीश कुमार को बैठने के लिए कह रहे है।
 
वीडियो देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि के चन्द्रशेखर राव मानो तसल्ली से वक़्त लेकर इसी मुद्दे पर बोलने बिहार आए थे। सवाल जब थर्ड फ्रंट पर पूछा गया, तो नीतीश कुमार ने मेन फ्रंट का नया शगूफा छोड़ा। वीडियो में तेजस्वी थोड़े खोए खोए दिख रहे हैं। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि उन्हें कैसे रिएक्ट करना है। नीतीश जब खड़े थे तो वो भी खड़े दिख रहे हैं, नीतीश जब बैठे तो वो भी बैठ गए।
 
सोशल मीडिया पर इस प्रेस कॉन्फ्रेंस की छोटी छोटी क्लिप खूब वायरल हो रही है। बिहार से लेकर दिल्ली तक के नेता और पत्रकार - सबके लिए ये पूरा मामला चर्चा का विषय बना हुआ है।
 
इन सबके बीच ये मामला कहीं गुम हो गया है कि के चंद्रशेखर राव आखिर बिहार क्यों गए थे? वैसे सरकारी फाइलों के हिसाब से पूरा कार्यक्रम, गलवान घाटी और हाल ही में हैदराबाद में एक दुर्घटना के दौरान मारे गए लोगों के सम्मान में आयोजित किया गया था। लेकिन इसकी चर्चा कहीं नहीं हो रही है। इस वजह से के चंद्रशेखर राव के बिहार दौरे के मक़सद तलाशे जा रहे हैं।
 
आख़िर बिहार ही क्यों?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल ही में बीजेपी से नाता तोड़ कर आरजेडी के साथ नाता जोड़ लिया है। इस जोड़ घटाव के बाद राष्ट्रीय स्तर पर सीटों के समीकरण में काफ़ी बदलाव आ गया है, ऐसा कई राजनीति के जानकार मानते हैं।
 
पीटीआई के वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, "बिहार बीजेपी के कई नेता दबी ज़ुबान में कह रहे हैं कि आने वाले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को इस वजह से काफ़ी नुक़सान झेलना पड़ सकता है। नीतीश कुमार अकेले बिहार में बहुत बड़ी ताकत नहीं रह गए हों, लेकिन इतने बड़े गठबंधन में जुड़ने के बाद बिहार में एनडीए और ग़ैर एनडीए गठबंधन के बीच की खाई और बड़ गई है।"
 
"पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 सीटों से 39 सीटें एनडीए के खाते में आई थीं जिसमें 16 सीटें नीतीश कुमार की जेडीयू और 6 सीटें एलजेपी को मिली थी और बीजेपी 17 सीटें जीत पाई थी। साल 2024 में बीजेपी को इसमें से 22-25 सीटों का नुक़सान होगा तो उसकी भरपाई उनके लिए मुश्किल होगी।"
 
इस वजह से माना जा रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में एनडीए को चुनौती देने के लिहाज से बिहार का ये प्रयोग काफ़ी नवीन है और बड़ा भी है। किसी और राज्य में ऐसा प्रयोग फिलहाल हुआ भी नहीं है। यही कारण है कि बिहार 'विपक्ष की राजनीति' के 'केंद्र' में है।
 
जेपी आंदोलन से महागठबंधन के प्रयोग तक
आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं कि केसीआर और नीतीश कुमार का मिलना इस वजह से अहम है क्योंकि दोनों अपने अपने गढ़ में बीजेपी के ख़िलाफ़ मज़बूती से खड़े हैं।
 
"केसीआर तेलंगाना में बीजेपी के सामने जम कर लड़ रहे हैं। जिस दिन पीएम मोदी हैदराबाद पहुँचे उस दिन केसीआर विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा की सभा में मौजूद थे। नीतीश कुमार भी उसी तरह बिहार में बीजेपी को खुली चुनौती देते दिख रहे हैं। चंद्रशेखर राव इसलिए ही बिहार पहुँचे। ये एक शुरुआत है।"
 
"बुधवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस में दो तीन अहम बात कही गईं। पहला ये कि यही 'मेन फ्रंट' होगा। दूसरा विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम की अभी ज़रूरत नहीं है। अगर इस पर विपक्ष में सहमति बन जाएगी, तो ये बड़ी बात होगी। बिहार का इस लिहाज से अहम योगदान होगा।"
 
आज़ादी के आंदोलन से लेकर जेपी के आंदोलन तक बिहार में हुए राजनीतिक प्रयोगों ने भारत की राजनीति पर दूरगामी असर छोड़ा है।
 
फिर चाहे 1917 का महात्मा गांधी का चम्पारण सत्याग्रह आंदोलन हो, जिसने महात्मा गांधी को देश भर में नई पहचान दिलाई या फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन या फिर जेपी का छात्र आंदोलन या फिर मंडल आंदोलन - सभी प्रयोग आज इतिहास में दर्ज हैं।
 
नीतीश कुमार ने इस बार वाला प्रयोग सबसे पहले साल 2015 में किया था जिसे महागठबंधन करार दिया गया था।
 
साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार आरजेडी और कांग्रेस के साथ उतरे थे। तब महागठबंधन को 243 में से 178 सीटों पर जीत मिली थी जबकि बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए 58 सीटों पर ही सिमटकर रह गया था। महागठबंधन को 41।9 फ़ीसदी वोट मिला था जबकि एनडीए 34।1 फ़ीसदी वोट तक ही सीमित रह गया था।
 
साल 2022 में नीतीश ने दोबारा उसी महागठबंधन का साथ चुना। अगर ये गठबंधन 2024 तक चलता है तो बीजेपी को पता है कि नीतीश कुमार का साथ ना होना, उनके लिए कितनी बड़ी मुसीबत का सबब बन जाएगा।
 
नचिकेता कहते हैं, "इस बार जेडीयू टूट की कगार पर थी। अगर नीतीश कुमार एनडीए से अलग नहीं होते तो वो अलग-थलग पड़ जाते। उनकी राजनीतिक हैसियत ख़त्म हो जाती। इसका अंदाजा नीतीश कुमार को भी था। उसी को बचाने के लिए नीतीश कुमार ने ये दांव खेला।"
 
"महागठबंधन में आकर, नीतीश कुमार ख़ुद को बिहार की राजनीति में प्रासंगिक भी रख पा रहे हैं, साथ ही बिहार के बाहर, विपक्ष की राजनीति में अपने लिए 'नए रोल' की तलाश में भी हैं।"
 
वो रोल, के चंद्रशेखर राव उन्हें दिलवाने का 'ऑफर' करते हुए बुधवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखे। नीतीश कुमार भी हंसते हुए 'ऑफर' को मौन सम्मति देते हुए दिखे।
 
बिहार के नुक़सान की भरपाई कहां से?
हालांकि पिछले दिनों बीजेपी ने कई राज्यों की सत्ता में वापसी भी की है जिसमें से महाराष्ट्र सबसे अहम है। वहां लोकसभा की 48 सीटें हैं। साल 2019 में बीजेपी- शिवसेना के साथ चुनाव लड़ी थी और गठबंधन ने 41 सीटों पर जीत हासिल की थी, जिसमें शिवसेना ने 18 सीटें जीती थी।
 
अब जब शिवसेना में फूट पड़ गई है, राज्य की सत्ता पर बीजेपी शिवसेना के शिंदे गुट के साथ काबिज हो गई है।
लेकिन इससे शिवेसना का उद्धव गुट, एनसीपी और कांग्रेस और ज़्यादा करीब आ गए हैं। ऐसा चुनाव विशेषज्ञ योगेन्द्र यादव का मानना है।
 
योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं, पर अपने चुनावी विश्लेषणों के लिए भी जाने जाते हैं।
 
बिहार में नीतीश के पाला बदलने और 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की मुश्किलों के बारे में वो कहते हैं कि बिहार की टूट की भरपाई, बीजेपी महाराष्ट्र में सत्ता हासिल करके नहीं कर सकती।
 
वो इसके पीछे तर्क भी गिनाते हैं। उनका कहना है कि राज्य की सत्ता भले ही बीजेपी ने हासिल कर ली हो, लेकिन लोकसभा का गणित थोड़ा गड़बड़ हो गया है।
 
"महाराष्ट्र में एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना चुनाव बाद सरकार बनाने के लिए साथ आए थे। तब ये नहीं पता था कि साल 2024 में वो साथ लड़ेंगे या नहीं। लेकिन सत्ता से बाहर होने के बाद तीनों पार्टियों के पास साथ आने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है। दूसरी तरफ़ अब ऐसा लगता है कि बीजेपी और शिवसेना का शिंदे गुट 2024 के लिए एक साथ ही रहेगा।"
 
योगेन्द्र यादव साल 2024 के लोकसभा चुनाव के बारे में अपना आंकलन बताते हुए कहते हैं, " सत्ता पर काबिज़ होना एक बात है, लेकिन जनता को ये जाकर बताना कि शिंदे गुट ही असली शिवसेना है ये और बात है। मेरा मानना है कि जनता के सामने उद्धव ठाकरे ही ये कह पाएंगे कि मेरे साथ कितना अन्याय हुआ है।
 
साल 2019 के लोकसभा चुनाव के आधार पर देखें तो शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का वोट शेयर बीजेपी के मुकाबले ज़्यादा है। मेरा अनुमान है कि शिवसेना का दो तिहाई से तीन चौथाई वोट उद्धव ठाकरे के पास ही रहेगा। ऐसे में बिहार की भरपाई महाराष्ट्र से नहीं की जा सकती।"
 
हालांकि योगेन्द्र यादव ये भी मानते हैं कि थोड़ी भरपाई तेलंगाना में बीजेपी कर सकती है। लेकिन साथ ही ये भी कहते हैं कि बीजेपी ओडिशा में पिछली बार जितनी सीटें जीत नहीं पाएगी। ऐसे में बिहार का नुक़सान जस का तस ही रहेगा। राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बीजेपी वैसे भी अपने शीर्ष पर है।
 
इस वजह से बिहार में सीटों क उम्मीद उन्हीं राज्यों से की जा सकती है जहाँ वो अब तक कमज़ोर है या जहाँ गठबंधन के साथियों के साथ थोड़ा बेहतर कर रही थी। ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका 2024 के लोकसभा चुनाव में अहम होने वाला है।
 
नचिकेता कहते हैं, "बीजेपी की जीत और हार के लिए अभी से कोई भविष्यवाणी करना थोड़ा मुश्किल है। हो सकता है अलग अलग राज्यों की छोटी राजनीतिक पार्टियां बाद में बीजेपी को सपोर्ट कर दें। लेकिन साल 2024 में केंद्र में ग़ैर बीजेपी सरकार बनने की सूरत में बिहार का ये प्रयोग महत्वपूर्ण होगा, जिसमें क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका भी अहम होगी और कांग्रेस की भी।"
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