सलमान रावी, बीबीसी संवाददाता, जम्मू
पहली नज़र में ऐसा लगता है जैसे ये कोई युद्धग्रस्त इलाक़ा हो। यहाँ के कई मकान अब खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। जो मकान ठीक भी हैं वो इतनी बुरी हालत में हैं कि किसी भी दिन गिर सकते हैं।
ये है पुरखु में कश्मीरी पंडितों का राहत कैंप। 1989 और 1990 के दौरान कश्मीर घाटी में हिंसक वारदातों के बाद यहां रहने वालों के बुज़ुर्ग पलायन कर जम्मू आ गए थे। पहले वो यहां टेंट लगाकर रहते थे। फिर कुछ सालों के अंतराल में इनके लिए टीन के छप्पर की छत वाले कमरे बनाए गए जो मुर्गियों के दड़बेनुमा हैं।
जो अधेड़ उम्र में आए थे उनमें से बस चंद लोग ही ज़िंदा हैं। जो युवा अवस्था में आए थे, वो बूढ़े हो चुके हैं। जो बच्चे थे वो अब 30 साल की उम्र से ज़्यादा हो गए हैं। मगर इन कश्मीरी पंडितों के हालात बद से बदतर होते चले गए। नौबत यहां ता आ गई है कि पुरखु कैंप में रहने वाले युवक अपने वजूद के संकट से जूझ रहे हैं।
ग़रीबी, बेरोज़गारी और नशाखोरी इनकी नियति बन गई है। दोपहर का वक़्त हो चला है। पास के ही मंदिर में जमा कश्मीरी पंडित महिलाएं अपने परिवार के लिए ख़ुशहाली की दुआएं मांग रहीं हैं।
मगर ये अपनी भाषा यानी कश्मीरी में नहीं बल्कि जम्मू की स्थानीय भाषा डोगरी में प्रार्थना कर रहीं हैं। वो इसलिए कि तीन दशक पहले ही ये अपनी संपत्ति, संस्कृति और भाषा को कश्मीर की घाटी में ही छोड़कर पलायन करने पर मजबूर हो गए थे। मौजूदा नस्ल को तो ना अपनी भाषा का पता है और ना ही संस्कृति के बारे में ही कुछ मालूम है।
अब जम्मू-कश्मीर से अनुछेद 370 निष्प्रभावी के बावजूद कश्मीरी पंडितों को वापस घाटी लौटने का रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है।
रविंदर राणा ऑल स्टेट कश्मीरी पंडित कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष हैं। उनका कहना है कि केंद्र की सरकार ने अनुछेद 370 हटाने जैसा इतना बड़ा फैसला लिया। मगर कहीं भी इसमें कश्मीरी पंडितों की कोई चर्चा नहीं हुई।
वो कहते हैं कि कश्मीर के लिए प्रशासन के जिस नए इंतज़ाम की बात कही जा रही है उसमें कश्मीरी पंडित कहाँ फिट बैठते हैं? अभी तक कुछ समझ नहीं आ रहा है।
370 का असर?
रविंदर राणा का कहना था, 'गृह मंत्री और केंद्र सरकार ने ये अभी तक नहीं बताया है कि घाटी से विस्थापित हुए कश्मीरी क्या अपने घर वापस लौटेंगे? उसका रोडमैप क्या होगा? किस तरह वापस लौटेंगे और फिर लौटने के बाद उनका क्या होगा? हमें कुछ भी मालूम नहीं है। इसका मतलब ये हुआ कि अनुछेद 370 हटे या ना हटे इसका कश्मीरी पंडितों पर अभी तक तो कुछ असर पड़ता हुआ नज़र नहीं आ रहा है।'
'ऑल स्टेट कश्मीरी पंडित कॉन्फ्रेंस' कश्मीरी पंडितों की सबसे पुरानी संस्था है। इसकी स्थापना वर्ष 1931 में हुई थी। राणा कहते हैं कि जब मुस्लिम कॉन्फ्रेंस बनी थी उसी वक़्त कश्मीरी पंडितों की ये संस्था भी बनी थी जो समाज के लिए काम करती आ रही है।
वो कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों के लिए ज़िन्दगी आसान कभी नहीं रही है। "1932 में लूट हुई तब भी कश्मीरी पंडित मारे गए। वर्ष 1947 में भी विभाजन के दौरान कश्मीरी पंडित मारे गए। 1967 में भी मारे गए। फिर 1990 में कश्मीर की घाटी से सबसे बड़ा पलायन हुआ। हमें आज तक नहीं पता कि हमारा गुनाह क्या था। हम पर क्यों हमले हुए? क्यों मारा गया?"
परेशान महिलाएं
इस त्रासदी के तीन दशक हो चले हैं मगर जम्मू के पुरखु कैंप में रहने वाले पंडितों के परिवार नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। इसमें सबसे बुरा हाल यहाँ की महिलाओं का है, जो बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम हैं।
नीरू दिन भर घर में रहतीं हैं जबकि उनके पति निजी संस्था में नौकरी करते हैं। दिन भर घर का काम और बच्चों को देखना। वो कहतीं हैं कि एक कमरे में पूरे परिवार का गुज़ारा नहीं होता है। कैंप में बुनियादी सुविधाओं की कमी की वजह से वहां ज़हरीले सांप और बिच्छू निकल आते हैं।
नीरू का कहना है कि उनके परिवार ने कई बार राहत आयुक्त के समक्ष पक्के मकान के लिए अर्जी लगाई है। मगर उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। कैंप की महिलाओं को शौच के लिए भी बाहर जाना पड़ता है।
पुरखु में रहने वाली शारदा देवी ने अपना बेटा खो दिया। वो कहती हैं कि जबसे वो कश्मीर घाटी से पलायन कर जम्मू आए, तबसे उनकी परेशानियां बढ़ गई हैं। उनका बेटा जब आठवीं क्लास में पढ़ता था तो उसे ब्लड कैंसर हो गया और कुछ ही दिनों में उसकी मौत हो गई।
शारदा देवी कहती हैं कि जो बच्चे कैंप में रह रहे हैं वो अक्सर बीमार रहते हैं क्योंकि चारों तरफ़ गंदगी फैली हुई है।
पिछले तीन दशकों में कई कश्मीरी पंडितों ने घाटी में अपने पुश्तैनी गाँव जाने की कोशिश भी की। इनमें से कइयों ने कश्मीरियों के साथ वापस सामान्य संबंध भी बनाने की कोशिश की ताकि एक दिन वो अपने गाँव लौट सकें।
पुरखु के निवासी कश्मीरी पंडित कोलिन चन्द्रपुरी कहते हैं कि घाटी के कश्मीरियों के साथ उनके संबंध बेहतर होने लगे थे। मगर अब सब कुछ वहीं आ खड़ा हुआ है जैसे 1990 में हुआ करता था।
कोलिन कहते हैं, "अब हमें नए सिरे से अपने पुश्तैनी गाँव में रहने वाले कश्मीरियों के साथ संबंध बनाने पड़ेंगे, तब कहीं जाकर हम वहां लौटने की बात सोच सकते हैं।
पुरखु कैंप के हालात अच्छे नहीं हैं। यहां पर जो शरणार्थी पहले रह रहे थे उन्हें अब पक्के मकान मिल गए हैं। कश्मीर घाटी से विस्थापित हुए चालीस हज़ार कश्मीरी पंडित जम्मू में रहते हैं।
पहले ये कैंपों में रहते थे। मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के बाद इनमें से कुछ के लिए पक्के मकान बनाए गए।
दो धारी तलवार
कैंप खाली हुआ तो कश्मीरी पंडितों का एक दूसरा संमूह यहां आकर बस गया। मगर तब तक जम्मू डिवलपमेंट अथॉरिटी ने इस कैंप में रहने वालों को अवैध क़रार कर दिया। क्यों? जम्मू-कश्मीर सरकार के राहत आयुक्त तेज किशन भट्ट से पूछा, जिनका कहना था कि जो कश्मीरी पंडित सरकारी राहत के सहारे हैं उनकी संख्या 20 हज़ार के आसपास है। यानी 15 हज़ार ऐसे कश्मीरी पंडित हैं जो अभी तक बेघर ही हैं।
पुरखु के लोगों का आरोप है कि पक्के मकान देने के बदले में सरकारी महकमे के लोग रिश्वत की मांग कर रहे हैं। इन आरोपों का राहत आयुक्त खंडन करते हैं।
सिर्फ़ जम्मू की अगर बात की जाए तो तीन दशक पहले कश्मीर घाटी में हिंसा के बाद बड़े पैमाने पर पलायन हुआ तो 40 हज़ार शरणार्थी जम्मू पहुंचे। इनमे बीस हज़ार सरकारी मुलाज़िम थे।
अब जम्मू के 15 हज़ार कश्मीरी पंडित जिन्हें पक्के मकान नहीं मिले हैं, उन्हें ख़ानाबदोश की ज़िन्दगी जीने पर मजबूर होना पड़ रहा है। कई ऐसे हैं जो वापस घाटी नहीं जाना चाहते।
अनुछेद 370 के हटने के बाद भले ही कहीं ख़ुशियों का माहौल है मगर कश्मीरी पंडितों का एक तबक़ा इसे दो धारी तलवार के रूप में देख रहा है।