• Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. »
  3. नायिका
  4. »
  5. आलेख
Written By WD

समस्याओं में फँसी कामकाजी महिलाएँ

समस्याओं में फँसी कामकाजी महिलाएँ -
- डॉ. भारती जोशी

ND
भारत में यदि नारी मुक्ति का बिगुल बजा है तो केवल एक ही सुर में, यानी महिलाओं को घर की चहारदीवारी से बाहर ‍निकलकर कामकाज में संलग्न कर दीजिए और समझ लीजिए कि बहुत बड़ा अहसान महिलाओं के ऊपर कर दिया है, किंतु यह यक्ष प्रश्न हमेशा रहेगा कि क्या सचमुच महिलाओं के घर से निकलने तथा कामकाजी होने मात्र से उनकी समस्याओं का निदान हो जाएगा? या क्या वे वास्तव में शोषण से मुक्त हो जाएँगी?

महिलाएँ कामकाजी तो सदा से रही हैं बल्कि घरेलू जिंदगी में कोल्हू के बैल की तरह जुटी हुई हैं। हाँ इतना अवश्य है कि बाहरी कार्यक्षेत्र में आने से उनके कार्य को महत्व मिला है जो उन्हें घरेलू कार्यों में कतई नहीं मिलता बल्कि घरेलू कार्यों को उनका जन्मसिद्ध अधिकार समझा जाता है, जिन कार्यों की न तो कभी तारीफें मिलती हैं और न ही उसका कोई मूल्य समझा जाता है।

शिक्षा के क्षेत्र में जागृति आने से महिलाओं के कदम विभिन्न रोजगारों की ओर अग्रसर हुए हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1981 से 1991 के दशक में रोजगार में पुरुषों की संख्‍या 21.4 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि महिलाओं के आँकड़ों में 42.66 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस तरह के आँकड़े महिलाओं में अंकुरित हुए आत्मविश्वास को दर्शाते हैं जो अपनी योग्यता, कार्यक्षमता से राष्ट्र की उन्नति में सक्रिय भागीदारी दर्ज करा रही हैं।

लगता तो यही है कि रोजगार के क्षेत्र में कदम रखने से महिलाओं को कुछ फायदे नसीब हुए हैं किंतु वास्तव में उन्हें परंपरागत कठिनाइयों के अलावा समस्याओं का अंबार भी सौगात के रूप में मिला है। कोई भी महिला बाहरी तौर पर किसी कार्यक्षेत्र को अपनाने का निर्णय सदियों से चले आ रहे रूढ़ियों के भँवरजाल से निकलकर लेती हैं।

फिर उसका अपने कार्यक्षेत्र में बने रहना या न रहना आज भी उस पर स्वयं निर्भर न होकर विवाह पूर्व पालकों पर तथा विवाह पश्चात ससुराल पक्ष पर निर्भर करता है। वर्तमान में अधिकांश लड़के उसी लड़की को पत्नी बनाना स्वीकार करते हैं जो घरेलू कामकाज के साथ-साथ नौकरीपेशा भी हो। क्योंकि परिवार में सोने का अंडा देने वाली कामकाजी बहु आर्थिक सहारा सिद्ध होती है। इसीलिए कई बार यह भी देखने में आता है कि महिला स्वयं अपनी कमाई पर भी कोई अधिकार नहीं जता पाती उसे अपने वेतन का पूरा हिसाब घर में देना होता है। यदि घर में नौकर-चाकर हो तो उनका वेतन, राशन, बच्चों की फीस, दवाई, कपड़े आदि का खर्च पूरी तरह से उसके वेतन पर निर्भर करता है।

महिला स्वयं पर खर्च करने में भी ऊहापोह की स्थिति में रहती है। घरेलू कार्यों तथा बच्चों की देखभाल से तो कभी मुँह मोड़ नहीं सकती। सारा दिन दफ्तर में पुरुषों के साथ बराबरी का कार्य करने के बावजूद घर में पति का सहयोग अर्जित करने का उसमें कोई साहस नहीं होता है। बच्चों की परवरिश के लिए यदि समय नहीं दे सकती है तो हीनता बोध से महिला ही ग्रस्त रहेगी। बच्चों में यदि कोई गलत आदत पनप जाए या वे कुसंस्कारित हो जाएँ तो इसकी जिम्मेदार वही मानी जाएगी। दफ्तर के आवश्यक कार्यों में भी यदि नियत समय से अधिक संलग्न रही तो परिवार के सदस्यों की नजर हमेशा उसके चरित्र के इर्द-गिर्द ही मँडराती रहेगी।

अपने कार्यों को प्रगति देने से पूर्व उसे विचार करना आवश्यक हो जाता है। दफ्तर में सामूहिक मनोरंजन के कार्यक्रम पिकनिक, नाटक आदि में शरीक होना कामकाजी महिला को निरर्थक लगता है बल्कि उस समय को वह पति, बच्चों के साथ गुजारती है। कभी पति की अनुमति बिना इस तरह के आयोजनों में शामिल हो जाए तो शक्की नजरें उसे अंदर तक हिला देती हैं। कहने को तो हमारा समाज स्वतंत्रता की राह पर है किंतु विचारों का पिछड़ापन जहाँ का तहाँ है। विशेषकर महिलाओं के संदर्भ में। नौकरीपेशा महिला यदि अनजाने में भी खुलकर हँस-बोल ले तो दफ्तर में कई बेसिर-पैर वाले कहानीकार कल्पना में विचरण करने लगते हैं।

आज भी यौन शुचिता का परिवेश महिला को संपूर्ण रूप से खुलकर कार्य करने से रोकता है, उसमें निहित प्रतिभा को कुंठित करता है। कामकाजी महिलाओं को इस समस्या से निजात पाने के लिए अपने व्यक्तित्व में सुदृढ़ता लाना चाहिए। सरकारी कार्यालयों में कार्यरत महिलाएँ अपेक्षाकृत सुरक्षित रहती हैं, किंतु निजी संस्थानों में काम करने वाली महिलाएँ बहुत ही बँधी-बँधी सी महसूस करती हैं।

अपने बॉस की इच्छा के विरुद्ध कार्य करने का आशय होता है नौकरी से हाथ धो बैठना। वैसे भी प्राइवेट संस्थानों के अनेक रोजगार विज्ञापनों में नौकरी की प्रमुख शर्त स्मार्ट, सुंदर व आधुनिक महिला होना होता है, योग्यता का मापदंड गौण होता है। इस तरह के विज्ञापन दबी-छुपी जर्जर मानसिकता को प्रकट करते हैं। दुर्भाग्य से कोई महिला इस तरह के दूषित परिवेश में कार्यरत हो और अपने बॉस का व्यवहार अनुचित लगे तो तुरंत ही दृढ़ता से प्रतिक्रिया व्यक्त कर जता देना चाहिए कि उनका व्यवहार ऐसा नहीं होना चाहिए। तभी वह किसी को अपना अनुचित फायदा नहीं उठाने देगी।

नौकरीपेशा महिलाओं के लिए रात्रि ड्‍यूटी करना बहुत मुश्किल होता है। पुलिस, नर्स, होटल जैसे क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं में एक अज्ञात भय हमेशा व्याप्त रहता है। रात्रि ड्‍यूटी का उनके गृहस्थ जीवन पर भी असर पड़ता है। यदि पति-पत्नी भिन्न-भिन्न शहरों में कार्यरत रहें तब तो महिला बहुत ज्यादा असुरक्षित महसूस करती है। इसी तरह से दौरे पर कार्यवश बाहर जाने पर भी घर की जिम्मेदारी पति तथा बच्चों के प्रति आत्मीयता, स्वयं अपनी चिंता से नौकरी बोझिल लगने लगती है।

अनेक बार महिलाओं की इस तरह की नौकरी परिवार में अलगाव पैदा कर देती है। प्रसूति अवकाश का सीमित होना, नौकरी वेतन में पक्षपात जैसी समस्याएँ भी जटिल होती हैं किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इन समस्याओं से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता बल्कि निदान खोजना आवश्यक है। इसके लिए ‍महिलाओं को अपने मन में विश्वास पैदा करना होगा साथ ही पुरुष प्रधान समाज को अपनी विचारधारा में परिवर्तन लाना होगा क्योंकि महिलाएँ अनेकानेक समस्याओं का सामना करते हुए भी समाज की प्रगति में सक्रिय हैं।

पुरुषों के साथ आर्थिक सहारा बनकर इस महँगाई के युग में परिवार को सबल बना रही हैं। फिर भी यदि उन्हें समाज में गरिमामय स्थान न ‍िमले तो यह निंदनीय है। महिलाओं के लिए दूषित परिवेश के निर्माता सहकर्मियों में ही मौजूद रहते हैं। अत: यदि हम चाहते हैं कि महिलाएँ प्रगति करें तो सहयोगी रवैया बनाना प्रथम उद्‍देश्य होना चाहिए।

समाज महिला से अधिक से अधिक क्षमता की अपेक्षा करता है तो उसके लिए कंकरीली-पथरीली पगडंडी के स्थान पर स्वच्छ मानसिकता वाली राह बनाना आवश्यक है। हरेक पुरुष को सोचना होगा कि हरेक पीड़ित महिला एक महिला होने के अतिरिक्त माँ, बहन, बेटी या पत्नी भी है। चिंतन के उदार होने तथा महिलाओं के संगठित होने पर ही कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ कम होंगी।