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Written By DW

घट रहा है अमेरिकी मीडिया का प्रभाव

घट रहा है अमेरिकी मीडिया का प्रभाव -
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बॉन में 3 दिन तक चले ग्लोबल मीडिया फोरम में देश विदेश से आए प्रतिनिधियों में हिस्सा लिया। डॉयचे वेले के इस खास आयोजन में एक सत्र था 'सांस्कृति सम्राज्यवाद की उल्टी गिनती- एशियाई लहर।'

भारत के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि ले चुके प्रो. दया थुस्सू इस सत्र के प्रमुख वक्ता थे। दया थुस्सू लंदन में भारतीय मीडिया सेंटर के संस्थापक हैं और मीडिया पर तीसरी दुनिया के नजरिए से विचार करने के हिमायती हैं। सत्र के बाद डॉयचे वेले ने उनसे खास बातचीत की।

डॉयचे वेलेः कुछ समय पहले तक सूचनाओं का प्रवाह पश्चिम से पूर्व की ओर था। सारे मानक यहीं तय होते थे। क्या अभी भी वही स्थिति है या फिर आप इसमें कुछ बदलाव देखते हैं?
दया थुस्सूः देखिए, एक तो पश्चिम भी अपने आप में समस्यामूलक है। जो पश्चिम है उसमें भी एक एंग्लो-अमेरिकन कोर ग्रुप है जो कि वास्तव में अमेरिकी ज्यादा है। किसी भी श्रेत्र में आप देख लें, मनोरंजन हो या फिर फिल्में हों या फिर बेसिक मीडिया, अमेरिका पिछले 50 साल से आगे हैं।

इसकी वजह ये है कि मनोरंजन और मीडिया, दोनों में अमेरिका का हार्डवेयर सॉफ्टवेयर सबसे आगे है। इसके अलावा सबसे बड़ी बात ये है कि अमेरिका आज भी, यानि 2012 में भी सबसे बडी़ अर्थव्यवस्था है। जो अमेरिका की ताकत है वह मीडिया में भी दिखाई देती है।

डॉयचे वेलेः अमेरिका की मंदी के बारे में आप जानते हैं। यूरोजोन के संकट से भी आप वाकिफ हैं। कहा जा रहा है कि भारत और चीन 2020 तक सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं होंगी। देशों की आर्थिक स्थिति में जो बदलाव हो रहा है उसका सूचना के प्रवाह में भी असर पड़ेगा?
दया थुस्सूः बदलाव हो रहा है। यूरोपीय संघ का विचार भी नया है। अभी 10 साल से ज्यादा नहीं हुए हैं। जिस महाद्वीप में दो दो विश्व युद्ध हुए और जहां का खूनी इतिहास रहा है वहां पिछले साठ साल से कोई संकट नहीं है। सब कुछ ठीक ठाक है। वहां लोगों ने अपनी संप्रभुता अपनी मनमर्जी से छोड़ी है। उसका असर मीडिया में हुआ है।

आप आरटीएल को देख लीजिए जो जर्मनी और फ्रांस के सहयोग से चल रहा है, लेकिन जिसका मकसद है पूरे यूरोप के दर्शकों को गुणवत्ता से भरपूर टीवी कार्यक्रम दिखाना। ऐसे ही यूरोन्यूज भी है। ये यूरोप के सभी सरकारी मीडिया से मिलकर बना है। इन सबका असर मीडिया में भी हुआ है। यूरोप एक महत्तवूर्ण भूमिका में आ रहा है लेकिन दूसरी जगहों पर भी काम हुआ है। खासकर एशिया में और उसमें भी चीन में। चीन में जो सूचना क्रांति हुई है उसका असर पूरी दुनिया में हुआ है।

भारत में भी हुआ है। एक जमाने में भारत में बीबीसी और वॉयस ऑफ अमेरिका के अच्छे खासे दर्शक हआ करते थे, लेकिन आज बहुत कम हो गए हैं।

डॉयचे वेलेः भारत की स्थिति को कैसे देखते हैं?
दया थुस्सूः भारत का मीडिया काफी विकसित हुआ है। खासकर न्यूज मीडिया। इस समय भारत में 122 न्यूज चैनल हैं। अब सरकारी नियंत्रण खत्म हो गया है। एक जमाने में लोग पश्चिमी मीडिया पर निर्भर करते थे। अब उनको देश के अंदर इतना मिल रहा है कि वह पश्चिमी मीडिया को नहीं देखते। और ये दक्षिण अमेरिका, अरब देशों और ब्राजील, हर जगह हो रहा है। इस तरह के कई और समूह विकसति हो रहे है। अमेरिका का प्रभुत्व समाप्त नहीं हुआ है लेकिन कम जरूर हुआ है।

डॉयचे वेलेः बाजार के साथ संस्कृति का क्या संबंध हैं? क्या ग्लोबलाइजेशन से स्थानीय संस्कृतियों को खतरा है?
दया थुस्सूः देखिए, अगर आप चीन में बैठे हैं जहां मीडिया पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में है तो बाजार आपको एक रास्ता देता है। आप ऐसा प्रोग्राम बनाएं जो चलेगा, जिसे लोग देखेंगे और विज्ञापन मिलेगा। तो ये वास्तव में आपको एक विकल्प देता है। उस अर्थ में बाजार फायदेमंद भी हो सकता है। लेकिन बाजार की जो बड़ी ताकते हैं वे जनता के लिए नहीं बल्कि अपने शेयरहोल्डर्स के लिए जिम्मेदार होती हैं। तो वो ऐसा प्रोग्राम बनाएंगे या बनाना चाहेंगे जिसकी अधिक से अधिक दर्शक संख्या हो क्योंकि उससे ही विज्ञापन ही मिलेगा।

अगर आप टेलिविजन को ही लें तो इसमें मुख्य रूप से तीन मॉडल काम करते हैं। एक तो अमेरिका मॉडल जो पूरी तरह से बाजार के हिसाब से चलता है। दूसरा है यूरोपीय मॉडल जहां माना गया कि रेडियो और टीवी न्यूज जनता के लिए है।

आज 2012 में भी बीबीसी के घरेलू चैनलों में कोई प्रचार नहीं है। हालांकि यूरोप के दूसरे देशों में सार्वजनिक माध्यमों में भी विज्ञापन हैं लेकिन उतना नहीं। तो इससे होता क्या है कि बच्चों पर उपभोक्तावाद का असर कम पड़ता है। अमेरिका में जो छोटा बच्चा भी है वो स्कूल जाने के पहले ही लाखों विज्ञापन देख चुका होता है। एक और मॉडल है जहां मीडया पर पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण होता है। उसे सरकारी अधिकारी चलाते हैं।

भारत की स्थिति थोड़ा अलग है। हालांकि यहां प्राइवेट न्यज चैनलों का काफी विकास हुआ है। लेकिन जब ये नहीं था तब दूरदर्शन के समाचार केवल सरकारी नजरिए को ही सामने लाते थे। भारत का मीडिया प्राइवेट और सराकरी का जबर्दस्त मेल है।

डॉयचे वेलेः सोशल मीडिया की भूमिका को कैसे देखते हैं आप? सूचना देने और जनमत बनाने में ये कितने कारगर हैं?
दया थुस्सूः अभी तो ये काफी नए हैं इसलिए निश्चित तौर से इनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। आपस में बातचीत करने और संपर्क करने के लिए ये काफी सक्षम है। आप फेसबुक के जरिए दुनिया भर में लोगों से संपर्क कर सकते हैं। ट्विटर पर जा सकते हैं। ब्लॉग पर जा सकते हैं। लेकिन इसका राजनीतिक महत्व है खासकर उन देशों में जहां पर सूचना पर पाबंदी हैं। जैसे ईरान और चीन में देख लीजिए। वहां पर ब्लॉगर काफी सक्रिय हैं। यहां तक कि चीन में अमेरिका से ज्यादा ब्लॉगर हैं।

उस अर्थ में सोशल मीडिया ने लोगों को सूचना का वैकल्पिक मंच जरूर मुहैया कराया है। लेकिन अगर आप इसे हर दिन की गतिविधि के रूप में देखें तो ये राजनीतिक नहीं है। ब्लॉग में जो सक्रियता देखते हैं आप वो अपेक्षाकृत समाज का काफी छोटा तबका है।

डॉयचे वेलेःरेडियो के भविष्य को कैसे देखते हैं? देखने में आया है कि भारत और कई विकसशील देशों में कम्युनिटी रेडियो का विकास तो हुआ है, लेकिन बड़े रेडियो प्रसारण जैसे बीबीसी और वॉयस ऑफ अमेरिका आदि का प्रसार कम हुआ है।
दया थुस्सूः देखिए, रेडियो अभी भी कई जगह पर सूचना का प्रमुख स्रोत है, जैसे अफ्रीका। यहां टीवी अभी भी उस तरह से नहीं पहुंचा है। कई दूसरे विकासशील देशों के बारे में भी ये सच है। टेलीविजन अभी उस स्तर तक नहीं पहुंचा है और सोशल मीडिया भी सीमित ही है। तो रेडियो ही सूचना का सबसे बड़ा और प्रभावकारी माध्यम है।

रही बात बड़े रेडियो प्रसारण संस्थाओं की जैसे बीबीसी की तो उन्होने इसलिए अपने को समेटा है क्योंकि उन्हे पता है कि अब भारत में वहां का रेडियो विकसित हो चुका है। वो बड़ा नाप तौल कर रहे हैं। हर जगह उन्होने फंडिंग कम नहीं की है। अब इनके पास दर्शक वर्ग नहीं है उन देशों में। इसके अलावा एफएम रेडियो और कम्युनिटी रेडियों में जबर्दस्त विकास हो रहा है। और ये लगातार हो रहा है। रेडियो अभी भी सबसे सस्ता और सबसे दूर तक जाने वाला माध्यम है।

इंटरव्यूः विश्वदीपक
संपादनः मानसी गोपालकृष्णन