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Written By WD

'अहिंसा की पहेली नहीं सुलझा पाऊँगा'

गाँधी जी (अपने बारे में)

Gandhi mahatma gandhi | ''अहिंसा की पहेली नहीं सुलझा पाऊँगा''
WD
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मुझे लगता है कि मैं अहिंसा की अपेक्षा सत्य के आदर्श को ज्यादा अच्छी तरह समझता हूँ और मेरा अनुभव मुझे बताता है कि अगर मैंने सत्य पर अपनी पकड़ ढीली कर दी तो मैं अहिंसा की पहेली को कभी नहीं सुलझा पाऊँगा.... दूसरे शब्दों में, सीधे ही अहिंसा का मार्ग अपनाने का साहस शायद मुझमें नहीं है। सत्य और अहिंसा तत्वतः एक ही हैं और संदेह अनिवार्यतः आस्था की कमी या कमजोरी का ही परिणाम होता है। इसीलिए तो मैं रात-दिन यही प्रार्थना करता हूँ कि 'प्रभु, मुझे आस्था दें'।
ए, पृ. 336

मेरा मानना है कि मैं बचपन से ही सत्य का पक्षधर रहा हूँ। यह मेरे लिए बड़ा स्वाभाविक था। मेरी प्रार्थनामय खोज ने 'ईश्वर सत्य है' के सामान्य सूत्र के स्थान पर मुझे एक प्रकाशमान सूत्र दिया : 'सत्य ही ईश्वर है'। यह सूत्र एक तरह से मुझे ईश्वर के रूबरू खड़ा कर देता है। मैं अपनी सला के कण-कण में ईश्वर को व्याप्त अनुभव करता हूँ।
हरि, 9-8-1942, पृ. 264

सच्चाई में विश्वास
मैं आशावादी हूँ, इसलिए नहीं कि मैं इस बात का कोई सबूत दे सकता हूँ कि सच्चाई ही फलेगी बल्कि इसलिए कि मेरा इस बात में अदम्य विश्वास है कि अंततः सच्चाई ही फलती है.... हमारी प्रेरणा केवल हमारे इसी विश्वास से पैदा हो सकती है कि अंततः सच्चाई की ही जीत होगी।
हरि, 10-12-1938, पृ. 372

मैं किसी-न-किसी तरह मनुष्य के सर्वोत्कृष्ट गुणों को उभार कर उनका उपयोग करने में कामयाब हो जाता हूँ, और इससे ईश्वर तथा मानव प्रछति में मेरा विश्वास दृढ़ रहता है।
हरि, 15-4-1939, पृ.86

संन्यासी नहीं
मैंने कभी अपने आपको संन्यासी नहीं कहा। संन्यास बड़ी कठिन चीज है। मैं तो स्वयं को एक गृहस्थ मानता हूँ जो अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर, मित्रों की दानशीलता पर जीवन निर्वाह करते हुए, सेवा का विनम्र जीवन जी रहा है... मैं जो जीवन जी रहा हूँ वह पूर्णतया सुगम और बड़ा सुखकर है, यदि सुगमता और सुख को मनःस्थिति मान लें तो। मुझे जो कुछ चाहिए, वह सब उपलब्ध है और मुझे व्यक्तिगत पूँजी के रूप में कुछ भी संजोकर रखने की कतई जरूरत नहीं है।
यंग, 1-10-1925, पृ. 338

मेरी लंगोटी मेरे जीवन का सहज विकास है। यह अपने आप आ गई, न मैंने इसके लिए कोई प्रयास किया, न पहले से सोचा।
यंग, 9-7-1931, पृ. 175

मैं विशेषाधिकार और एकाधिकार से घृणा करता हूँ। जिसमें जनसाधारण सहभागी न हो सके, वह मेरे लिए त्याज्य है।
हरि, 2-11-1934, पृ. 303