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Written By WD

दशमूलारिष्ट

दशमूलारिष्ट -
आयुर्वेद के उत्तम योगों में से एक योग है दशमूलारिष्ट, जो अनेक व्याधियों को दूर करने में सक्षम और सफल सिद्ध है। दस प्रकार की जड़ों वाला योग होने से इसे 'दशमूल' कहते हैं। ये दस जड़ें जिन वनस्पतियों की होती हैं वे हैं- बेल, गम्भारी, पाटल, अरनी, अरलू, सरिवन, पिठवन, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी और गोखरू। इनके शास्त्रीय नाम क्रमशः इस प्रकार हैं- बिल्व, श्रीपर्णी, पाटला, अग्निमन्थ, शालपर्णी, पृश्रिपर्णी, वार्ताकी, कण्टकारी और गोक्षुर।

यह योग 'दशमूलारिष्ट' नाम से बॉटल के पैकिंग में बना बनाया आयुर्वेदिक दवाओं के स्टोर्स से खरीदा जा सकता है। सूखे दशमूल काढ़े के रूप में कुटा-पिसा हुआ यह योग कच्ची देसी दवाओं की दुकान से खरीदा जा सकता है। इस औषधि के घटक द्रव्य (फार्मूला) इस प्रकार हैं-

घटक द्रव्य : सभी दस जड़ों का मिश्रण 2 किलो, चित्रक छाल 1 किलो, पुष्कर मूल 1 किलो, लोध्र और गिलोय 800-800 ग्राम, आंवला 640 ग्राम, जवासा 480 ग्राम, खैर की छाल या कत्था, विजयसार और गुठलीरहित बड़ी हरड़- तीनों 320-320 ग्राम। कूठ, मजीठ, देवदारु, वायविडंग, मुलहठी, भारंगी, कबीटफल का गूदा, बहेड़ा, पुनर्नवा की जड़, चव्य, जटामासी, फूल प्रियंगु, सारिवा, काला जीरा, निशोथ, रेणुका बीज (सम्भालू बीज), रास्ना, पिप्पली, सुपारी, कचूर, हल्दी, सोया (सूवा) पद्म काठ, नागकेसर, नागरमोथा, इन्द्र जौ, काक़ड़ासिंगी, विदारीकंद, शतावरी, असगन्ध और वराहीकन्द, सब 80-80 ग्राम। मुनक्का ढाई किलो, शहद सवा किलो, गुड़ 20 किलो, धाय के फूल सवा किलो। शीतलचीनी, सुगंधबाला या खस, सफेद चंदन, जायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची, तेजपात, पीपल, नागकेसर प्रत्येक 80-80 ग्राम और कस्तूरी 3 ग्राम।

निर्माण विधि : दशमूल से लेकर वराहीकन्द तक की औषधियों को मात्रा के अनुसार वजन में लेकर मोटा-मोटा जौकुट करके मिला लें और जितना सबका वजन हो, उससे आठ गुने पानी में डालकर उबालें। चौथाई जल बचे तब उतार लें। मुनक्का अलग से चौगुने अर्थात 10 लीटर पानी में डालकर उबालें। जब सा़ढ़े सात लीटर पानी शेष बचे, तब उतार लें।

अब दोनों काढ़ों (औषधि और मुनक्का) को मिलाकर इसमें शहद और गुड़ डालकर मिला लें। अब धाय के फूल से लेकर नागकेसर तक की 11 दवाओं को खूब महीन पीसकर काढ़े के मिश्रण में डाल दें। इस मिश्रण को मिट्टी या लकड़ी की बड़ी कोठी में भरकर मुंह पर ढक्कन लगाकर कपड़मिट्टी से ढक्कन बंद कर 40 दिन तक रखा रहने दें।

40 दिन बाद खोलकर छान लें और कस्तूरी पीसकर इसमें डाल दें। कस्तूरी न भी डालें तो हर्ज नहीं है। अब इसे बोतलों में भर दें। दशमूलारिष्ट तैयार है। यह फॉर्मूला लगभग 35 से 40 लीटर दशमूलारिष्ट तैयार करने का है। कम मात्रा में बनाने के लिए सभी घटक द्रव्यों और जल की मात्रा को उचित अनुपात में घटा लेना चाहिए।

मात्रा और सेवन विधि : दशमूलारिष्ट 2-2 चम्मच आधा कप पानी में घोलकर सुबह-शाम के भोजन के बाद पी लेना चाहिए।

उपयोग : दशमूलारिष्ट बहुत सी व्याधियों को नष्ट करने वाला और प्रसूता स्त्रियों के लिए अमृत के समान गुण करने वाला श्रेष्ठ योग है। भैषज्य रत्नावली के अनुसार ये संग्रहणी, अरुचि, शूल, श्वास, खांसी, भगन्दर, वात व्याधियों, क्षय, वमन, पाण्डुरोग, कामला, कुष्ठ, प्रमेह, मंदाग्नि, समस्त उदर रोग, शकर, पथरी, मूत्रकृच्छ तथा धातुक्षीणता आदि व्याधियों को नष्ट करता है। दुबले व कमजोर मनुष्यों को पुष्टि एवं स्त्रियों के गर्भाशय संबंधी दोष दूर कर उन्हें संतान उत्पन्न करने की क्षमता प्रदान करता है। यह शरीर में बल, तेज और वीर्य की वृद्धि करता है।

'आयुर्वेद सार संग्रह' और 'रसतंत्रसार व सिद्ध प्रयोग संग्रह' नामक ग्रंथों में भैषज्य रत्नावली का समर्थन करते हुए अनुभूत प्रयोगों के आधार पर इसके और भी उपयोग एवं लाभ बताए गए हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।

महिलाओं के लिए : प्रसूता स्त्रियों के लिए यह योग बहुत हितकारी है और प्रसव के बाद इसका सेवन करने से प्रसूता ज्वर, खांसी, अग्निमांद्य, कमजोरी आदि व्याधियों से बची रहती है। इसके सेवन से प्रसूति रोगों से रक्षा होती है, रक्त स्राव के कारण आई निर्बलता दूर होती है और स्तनों में दूध की वृद्धि होती है।

प्रसव के दिन से ही सुबह-शाम 2-2 चम्मच दवा, उबालकर ठंडा किए हुए आधा कप पानी में घोलकर 40 दिन तक सेवन करने से प्रसूता सभी व्याधियों से बची रह सकती है और प्रसव से पूर्व से भी अच्छी शारीरिक स्थिति प्राप्त कर सकती है। प्रसूता स्त्री को प्रसव काल से ही इसका सेवन शुरू कर देना चाहिए और कम से कम 40 दिन तक अवश्य लेना चाहिए।

यह स्त्रियों के गर्भाशय की कमजोरी और अशुद्धि को दूर कर गर्भाशय को पुष्ट, बलवान और शुद्ध करता है। साथ ही शरीर को भी पोषण प्रदान कर पुष्ट व शक्तिशाली बनाता है। जिन महिलाओं का गर्भाशय, गर्भ धारण करने में असमर्थ हो, गर्भाशय की शिथिलता, निर्बलता, शोथ या अन्य विकृति के कारण बार-बार गर्भस्राव या गर्भपात हो जाता हो, गर्भाधान ही न होता हो, यदि गर्भकाल पूरा हो भी जाए तो संतान रोगी, दुबली-पतली व कमजोर हो तो सभी व्याधियों को नष्ट करने के लिए दशमूलारिष्ट का प्रयोग अत्युत्तम और निःसंदेह गुणकारी है।

प्रसव के बाद नवप्रसूता की कोख में उठने वाले 'मक्कल शूल' के लिए दशमूल बहुत ही लाभदायक है। यह योग इतना गुणकारी और उपयोगी है कि प्रसूता स्त्री की, 'सूतिका ज्वर' जैसे भयंकर रोग से शर्तिया रक्षा करता है। सूतिका ज्वर यदि ठीक न हो तो प्रसूता स्त्री के शरीर और स्वास्थ्य के लिए तपेदिक के समान नाशक और घातक सिद्ध होता है।

स्तनों में दूध की कमी : प्रसूता को दूध कम उतरता हो तो 10 ग्राम शतावरी को जौकुट (मोटा-मोटा) कूटकर पावभर पानी में उबालें। जब एक चौथाई पानी बचे, तब उतारकर छान लें और ठंडा कर लें। इसमें एक बड़ा चम्मचभर दशमूलारिष्ट डाल लें। इसे 2-3 सप्ताह इसी विधि से सुबह-शाम या भोजन के बाद पीने से प्रसूता के स्तनों में खूब दूध आने लगता है।

खांसी का दौरा : खांसी का खूब दौरा पड़ता हो, खांसते-खांसते तबीयत बेहाल हो जाती हो, खांसने से पीठ व पेट में दर्द होने लगता हो, कफ निकल जाने पर आराम मालूम देता है तो दशमूलारिष्ट एक बड़े चम्मचभर मात्रा में बराबर भाग जल में मिलाकर 3-3 घंटे से पिलाना चाहिए। इससे कफ आसानी से निकल जाता है और खांसी का दौर समाप्त हो जाता है।

वातजन्य खांसी में इसके सेवन से शर्तिया आराम होता है। सूखी खांसी चलना और मुश्किल से कफ निकलना वातजन्य खांसी की खास पहचान है। तेल, खटाई और ठंडी चीजों का सेवन बंद रखना चाहिए। सन्निपात के ज्वर में भी इसी विधि से यह प्रयोग करना चाहिए।

भगन्दर और घाव : भगन्दर रोग में गुदा में घाव हो जाते हैं, जिनसे पस बहता रहता है और छिद्रों से मल भी निकलने लगता है। ऑपरेशन कराने पर भी जब यह रोग ठीक नहीं होता है, तब दशमूलारिष्ट के सतत्‌ सेवन से इसमें लाभ होता है। घाव सूख जाते हैं और रोग से मुक्ति मिल जाती है।

वात व्याधि एवं अस्थि क्षय : वात प्रकोप से होने वाले रोग जैसे जोड़ों में, कमर और पीठ में दर्द होना, कमजोरी मालूम देना, पूरे शरीर में हाड़फूटन और हलका सा बुखार जैसा लगना, हड्डी कमजोर होना, चलने-फिरने से थकावट और पैरों में दर्द होना आदि व्याधियों के लिए दशमूलारिष्ट का प्रयोग लाभदायक है।

शोथ : शरीर के किसी भाग में सूजन (शोथ) होने पर दशमूलारिष्ट का सेवन परम हितकारी है। यह गर्भाशय के शोथ को दूर करने की श्रेष्ठ औषधि है।

निषेध : जिस स्त्री या पुरुष का पित्त कुपित हो, मुंह में छाले हों, गरम-गरम पानी जैसे पतले दस्त लग रहे हों, प्यास और जलन का अनुभव होता हो, उसको दशमूलारिष्ट का सेवन नहीं करना चाहिए।